सोमवार, 10 दिसंबर 2012

बड़ा कठिन है


बड़ा कठिन है
सरल होना
खुद  की परछाई को लांघना !
ताप से ताप कर
टेसू बनना !
मन का बुद्धि से मिलना !
भीतर की भटकन का
चूकना !






रविवार, 18 नवंबर 2012

सफ़र


मुझको सफ़र का गम नहीं 
हर सुबह सफ़र से कम नहीं !
सफ़र के बाद मुझे,
फ़िक्र मेरे घर की है !
जमी थी एक 'बर्फ' रिश्तों की 
दरक के गिर गई  दीवार 
ज़ख्म बाकी है 
जो पर लगा के उड़ाई
वो उड़ नहीं पाई !
ये बात अब जो उड़ी है 
बगैर  पर की है !
जब मैं राजी हुआ 
सर झुकाने को,
पलट के बोला वो 
अब तो ज़रूरत 'सर' की है !
उन्हें है इल्म मगर 
बात बना लेते हैं,
हमें बिखेरने वाली 
फ़िज़ा किधर की है !

बुधवार, 14 नवंबर 2012

ताज

                                                 

ताज को जिसने बनाया,
वह पीछे छूट गया!
जिसने बनवाया 
अमर हो गया!
ताज शामिल हुआ 
अजूबे में!
शाहजहाँ बने 
महान प्रेमी!
मीनार बनी 
यादगार!
अनाम ही रहा 
वह, जिसने 
'ताज' बनाया 
श्रमकार 
अनाम रह गया!
बादशाह अमर!

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

भ्रम

                                           

फिर विकल मन 
चित्र् लिखित सा 
ठहरा हुआ सा!
आज फिरबंसी बजी है !
फिर सुना है 
आयेंगे वो 
आज फिर यह भ्रम हुआ है !
हैं अकेले भीड़ में भी 
हादसा यह मेरे संग हरदम हुआ है !
फिर सुना है,
फिर बजी है
 बांसुरी !

30/10/12

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

जूता चलता है

पिछले दिनों देश में जूताफेंकने को लेकर खूब हंगामा काटा गया! हमारे नेताओं ने कहा जूता फेंकना
लोकतंत्रीयव्यवस्था नहीं है !
उद्दंडता हमारी संस्कृति में नहीं है - सही है !
पर घोटाला करना, घूस लेना, गरीबों का हिस्सा खुद ले लेना, भ्रष्ट आचरण करना फिर सफाई देना, ईमानदार को जितना हो सके परेशान करना ताकि वह पोल न खोले! यह सब भी हमारी संस्कृति में नहीं है !

सत्य कहना अब बड़ा जोखिम भरा है!
इमानदार अब अपनी जान गँवाते है!
जूते  पैरों में रहतें है, साथ चलते हैं!
जब पहन न सको तो जूते मचलते हैं!
जब जीवन चलना हो मुश्किल!
कदम-कदम  पर हो मुश्किल !
अधिकार  हो मंत्री हाथो में !
कर्तव्य  हो जनता हाथो में !
जब भ्रष्ट आचरण  'मन्त्र 'बने !
जब घोटाला 'अधिकार 'बने ! 
जब  'निष्ठावान ' कलंक लगे !
जब  भूखी जनता मरने लगे !
तब जूता खुद चल पड़ता है !
जब जूता 'खुद 'चल पड़ता है !
तब 'हिन्दुस्तान 'तड़पता है !
                              

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

अर्ध्य

रुको  श्वांस !भर अर्ध्य नयन का !
सूरज को यह फूल  जवा  का !
दे तो दूं मैं !
इक अमोघ अनिवार्य दान भी 
ले तो लूं मैं !
जो जिया; गया /जो किया; गया 
इस  लोकालय  में !
सब विस्मय आह 
मिटा तो लूं मैं
इस पावन क्षण में, पल भर अर्ध्य
चढ़ा तो लूं मैं !
जी लूं मैं संकल्प जगत में
यह आशीष  जगत कर्ता से
पा तो लूं मैं !
अनसुनी आह ,सूना अंतः ,गुजरी बातें
सब कह तो दूं मैं !
तिमिर रात्रि आने से पहले
भोर का वादा
कर तो लूं मैं !
स्वच्छ ह्रदय से सुमनांजलि दे
अपने पिय को
रिझा तो लूं मैं !
कुंदन भरे प्रभा मंडल से
अपनी झोली
भर तो लूं मैं !







गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

नायक

                                   नायक 

जीवन का रहस्य !
कृष्ण भी नहीं समझ सके 
कि क्या होगा आगे !
नियति के आगे झुकना पड़ा !
बहुत चाहा पर युद्ध नहीं रुका !
कहा -'अर्जुन सुन '
तू केवल कर्म को कर !
अपने धर्म को समझ 
इसे धारण कर !
दार्शनिकों ने  जीवन को 
नाटक कहा !
विद्वानों ने इसे - कर्म कहा !
गुरु  रवीन्द्र  ने इसे- स्वप्न कहा !
हम पढ़ सके सिर्फ उसे ही -
जो गुजर गया !
जो बीत गया उसका विश्लेषण किया !
भविष्य में बचा केवल 
कल्पना ,सोच ,विचार, संशय ,आशा -निराशा 
और परियोजना !
क्या सच होगा ,क्या ठीक है -नहीं जानते !
इस रंग मंच पर अभिनय करना ही होता है !
हम खुद ही इसके पात्र और रचनाकार हैं !
नायक होंगे या खलनायक
यह बुद्धि के निर्णय पर है!
परिणाम भी अज्ञात होता है !
पर परिष्कृत कर्म ,धर्म और  नियम
विनय देता है !
 सफल बनाता है !












बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

परित्राण

                                

छोटी सी है !
पर मेरी एक कहानी है !
खुद के होने को भूल गयी !
जख्मों का मान बढ़ाती गयी !
हर शाम रौशनी दीपक की ,
लगती है अधरों में लटकी !
हर रोज सुबह का सूरज ,
एक दर्द का पाठ  पढाता है !
खुशियों को बचा के रखा था !
दुनिया से छुपा के रखा था !
पर यह तो ठहरी चंचला ,
बोली तू रुक अब मैं चला !
हर रोज धैर्य ,साह्स ,आशा ,
इन सब को संजो कर रखती हूँ !
हर रोज सरकती सांसे ,
सहमी ,चौकन्नी ,दर्द भरी !
मैं खुद के सपनो से हारी !
नकली नाते ,खाली बातें !
पाथर पुतुल ,मनहीन लोग !
कब होगी मेरी सुबह सहज ?
कब खुशियां आएँगी आँगन ?
कब मंजिल मुझको चाहेगी ?
कब आशा मुझसे बोलेगी ?
उठ !  होगा तेरा परित्राण !!





सोमवार, 24 सितंबर 2012

पहचान

                                             

हमारा  जीवन हो ! पहचान 
पहचान  बने मेरा  जीवन !
अपनी धरती ,अपनी मिट्टी ,
अपना गारा ,अपना ईटा !
अपना  सांचा ,अपना खांचा ,
अपना   आशियाँ  बनायेंगे  !
हम अपने घर को बसायेंगे !
अपनी पहचान बनायेंगे !
खंडहर बने न कभी कही ,
आकाश धरा से मिले यही ,
ऐसी  एक नस्ल बढ़ाएंगे -
इक सीमा तक ले जायेंगे ,
फिर सीमा हमें  बनाएगी !
मेरी  पहचान  बताएगी  !
मेरी  पहचान  बताएगी !!

रविवार, 23 सितंबर 2012

आशीष

हर सुन्दर क्षण तुम्हे मिले, जो मैंने बुने तुम्हारे लिए !
उस सुन्दर गान में तुम रहो,जो गाये मैंने तुम्हारे लिए !
खुशिया वो सारी तुम्हारी हो, जो मैंने चाही तुम्हारे लिए !
नव सुरम्य निवास तुम्हारा हो, जैसा सपनो में मेरे था !
तुमको न मिले कंकण-कांटे,  राहें हो तेरी सदा रोशन !
तेरे पंथ बुहारे हैं,बुहारुंगी !
हर कांटे चुनूंगी दुआओं से !
खुशबू बन महको पवन के संग
मसला रहता है फूलों का !
माँ! सुनने का कर्ज़ है मुझ पर !
बा-ख़ुशी और चढ़ाउंगी !
हर चाहत, अरुणाभ सवेरा !
मेरे पुत्र तुम्हारा हो, तुम्हारा हो !!


हे अभयंकर


पाहिमाम !
मै  भूल गई नैवैद्दय तेरा !
अर्पित है तुझको 
मृत्युंजय 
जो मिला मुझे इस जीवन से ,
मेरे जीवन का हर प्याला ,आनंद निमिष का हर एक क्षण !
मेरी छोटी सी बगिया में 
जो कली  खिले ,
पुलकित -पल्लव 
बन  पुष्प तेरे चरणों में चढ़े !
हे सर्वेश्वर !
तुझको अर्पण 
हर फूल जिसे  विल् गा  न सकी 
है जहाँ खिला वही से तुझे मिले 
प्रिय फल, नलिनी ,मेरी सांसे 
तेरी करुणा के रूप हैं सब 
अक्षत, चन्दन, मंदार सुमन 
हे हृदयेश्वर !
तुझको अर्पण !
अघ नाशक है जो  विल्वपत्र 
तेरे मंदिर में लायी हूँ 
तेरी विराट अविरल  धारा 
जीवन के ताप नष्ट कर दे 
हे सोमेश्वर !
सिरसा नमामि !!!

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

9/11/2001

इस भयानक त्रासदी को 11वर्ष  बीत गए !  हर वर्ष यह तारीख जैसे एक घाव को फिर  से दर्द देती है !
पूरी शान से खड़ा  ट्विन टावर  /सितम्बर की एक ताज़ी खुशनुमा सुबह !
9बजे चार विमान अमेरिका के आसमान पर ,
अज्ञात है उसे देखने वाले की क्या हो रहा है
बहत्तरवीं मंजिल से टकराया एक /कुछ ही मिनट दूसरा विमान टकराया
दुसरे टावर से !
ओह ! सब तरफ धुआँ, काला अँधेरा, चीखते, भागते लोग
हर कोई हताश, स्तब्ध, छितरे मानव अंग
भयानक !अबतक का सबसे भयानक और  घृणित आतंक !
लग रहा था! जब दुनिया की बड़ी ताकत नहीं बच पा रही है
तो फिर कौन सुरक्षित  है ?
पूरी दुनिया आश्चर्य में थी
विशाल टावर सूखे पत्ते की तरह जल रहा था
तभी !कुछ ही मिनट बाद
पेंटागन  की बेमिसाल इमारत
जो उपर  से स्टार की तरह दिखती है ,
मानो धरती का तारा हो
9.37 पर पश्चिमी हिस्से में तेजी से एक विमान घुसा
निचली मंजिल पर 23मीटर तक आग ही आग
पर पेंटागन के अन्य  हिस्सों में काम नहीं रुका
ओह !आह !ये क्या हुआ
जानलेवा  हालत /अकल्पनीय /अविश्वसनीय
रोती मानवता !!!
एक दशक बाद ,अपने निशा से भी मिटा आतंकी
'सील ' को सलाम !
इस हादसे में दुनिया के हर देश के लोग मारे गए
हिन्दुस्तान के भी !











सोमवार, 13 अगस्त 2012

मेघ

                                     
हिया हर्षा /पानी बरसा !
हुलसी हरी घास
झूमी मालती
फूटी नयी कोपले
वसुधा की  गोंद भरी !
वेदना गई चातक की !
सुरमई बादलों में ,कशीदा बिजली का
बरसे घन घनघोर, झांझर बाजे घन की !
सावन की आगवानी ,दामिनी दमकी !
नदियाँ युवान हुई   बोलीं -याद रहेगा ये मिलन !
गगन से  चाँद तारों ने देखा !
मैंने की दुआ तुम मेरे भारत में बसो !
तरलता से ,विरलता से , समृद्धी से ,सम्बन्ध से
सदा बहो ,सत्य बहो ,यही बसों ,जीवन रेखा सी !
नदियों तुम मेरे भारत में बसों ,भारत में रहो !!





शनिवार, 11 अगस्त 2012

तुम भी जी लो

                                                    
         

खिली कमलिनी  ,शरद चांदनी ,
अनकिये  क्षणों को, तुम भी  जी लो !

सोचा  था नहीं  देखेंगे ,पीछे  पलट  के ;
पर   नकारों  के  सहारे  कब  चला  जीवन !

साधना  रूकती  नहीं ,आलोक  भी  छिपता नहीं ;
झर गई  शाख  ही ,पर  माँग  है  रूकती  नहीं  !

सजाओ  भारत माँ को
रिद्घ  करो नदी और वन को ,
साफ़ रखो  हवा ,पानी को ,
तब  सिद्ध  करो मृत्युंजय  को !

             
               

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

आत्म गुंजन (हाइकू)

यहाँ मैं 17 अक्षरी कविता लिखूंगी  यह कविता लिखने की जापानी  विधा है !
आज से 50 वर्ष पहले इस तरह की कवितायें  जापान में लिखी गयी थी !
हमारे देश में सबसे पहले  इस  तरह की कविता  गुरु देव रबीन्द्र नाथ  टैगोर  ने  लिखी !
जापान में इसे   हाईकू कहतें  हैं !

मान सको तो ,                                                      
मानो सबसे कठिन
है सहजता !

हाथों का श्रम
इंसान की प्रेरणा
बना अजंता !

आंसू  की रात
जीवन  जीत गया
रो पड़ा गम !

जीवट  को भी
बनाती  है कायर
नातों की   बेड़ी !

कर्म  कर तू
कर्तब्य के लिए
धर्म  के  लिए !

हठ  करके
जी भर  भोग  ख़ुशी
भागेगी  बाधा !

पेट  का लेख
है आदमी  को गा रही
इस दौर  में !

साँसे हैं  तान
धड़कन  है  ताल
मन  है  गीत !

श्रेष्ठ  रचना
तप  से  ही बनी है
जैसे  मानव !


फिर सुनी है
व्याकुल सी  बांसुरी
मनहर  की !


घने मेघों  में
चमका  पीताम्बर
वो !देखो सखी !

मैंने  माना है
बड़ा  सुखद   पथ
तेरे द्वार का !

जीवन  यह
दृष्टांत  बना अब
दुर्गम यात्रा !

जूही की माला
करुण  निवेदन
सजल  नेत्र !

कौन सँवारे
सतरंगी  सपने
दृष्टि संजोई !

क्या पाया है
तब जानोगे जब
यह खो दोगे !

भटका पंछी
घोसले की  चाह में
तमाम  उम्र !

घर की राह
बिसरा  दे  जो वह
कैसी  तरक्की ?

मुझे बचाओ
तुमको  दूँगी  प्राण
मैं  हूँ  प्रकृति !

कटते  वन
हाँफती   है  धरती
रहोगे कहाँ !

वृक्ष लगाओ
समारोह पूर्वक
सुखी रहोगे !

रो रही नदी
खो गया तरु विम्ब
सूखे है ताल !

पीड़ित मन
बनती है कविता
बोले है शब्द !

आज है लगा
गूंगे  की कलम को
मिली  आवाज !

कलम कार !
है शब्द उपासक
मौन तपस्वी !

अब टूटेंगी
सौ साल की बेड़ियाँ
जगा  है युआ !

समंदर हूँ
लहरों का पग है
मुड़ती   नहीं !


सदानीरा  हूँ !
प्राणित हर कण
धरती माँ हूँ !

वरसा  मेघ !
अप्रतिहत  स्वर
गीत गा  गया !


विदग्ध स्वर
धूसरित साँसों में
उमड़ने दो !

कोसो दूर हो
रहते हो मन में
क्या कहोगे ?

बरसने दो
स्नेह की बौछार
बहकने दो !

कह न सके
यौ बीत गया सब
सह न सके !

चिर मंगल
मानसिक क्षितिज
हो मेरा साथी !

कृष्ण  कली हूँ
तपसी वनचरी
हूँ शकुन्तला !

जीवन खुद
अधूरा पथिक है
पूर्ण है मन !

हे ! चिर पुराण
जग जीवन तुम
हो चिर नवी!

मैं  श्रम कर
दोनों को मिलाता हूँ
जो है जो होगा !

अलिखित हूँ
मुझे विश्राम नहीं
मैं संघर्ष  हूँ !

मशाल बनी
अखंड आस्था का
मैं शक्ति हूँ !

बादल चीर
धरा पे आया नीर
जीवन जगा !

असीमित है
युवा  मन की उड़ान
छोटा है नभ !

मोह लेती है
पशु- पक्षी- लता को
तेरी बांसुरी !

ऐसा है प्रेम
न तो कैद में रखा
न दी आजादी !

मर्म !सीप का
स्वाति की बूँद को
मोती बनाया !

विषमताएं
ठिलती चलती है
पहाड़ो पर !

निकल चल !
प्रवासी तू दूर का
चल अकेला !

खिला गुलाब
खुशबू  उड़ चली
क्या करे फूल !















रविवार, 1 जुलाई 2012

मूक बंधन

जूली देखने में बहुत सुन्दर थी.. एक दम सफ़ेद ! झबरे बाल, उसके गुलाबी होंठ और काली कजरारी आँखें जो उसके श्वेत चेहरे को अधिक खूबसूरत बना देती थीं। उसकी पूँछ एकदम गोल लपेटी हुई छल्ले के आकर में उसकी पीठ पर गजब की दिखती थी। अगर कभी खोल दे कि लम्बी दिखे तो फिर कुछ ही मिनटों में गोल हो जाती। मैंने अब तक किसी की ऐसी पूंछ नहीं देखी।

विभु और विकास दोनों उसके साथ खेलते, विकास उसे बहुत प्यार करते थे। वह भी उनको देखकर खूब उछलती कुछ देर उछल कूद करके उनके पैरों के पास बैठ जाया करती थी। जूली हम सबसे इस तरह का व्यव्हार करती जैसे सब समझ रही हो। जब उससे कोई गलती हो जाती तो चुपचाप बैठ जाती थी। जब डांट पड़ती तो धीरे -धीरे आकर पैरों के पास बैठ जाती थी। उसे चूहों से नफरत थी देखते ही झपट पड़ती और मार देती थी।

उसे हरिद्वार से लाये थे ! वह नौ साल से कुछ महीने अधिक हमारे साथ रही। जूली के आखिरी साल में एक विदेशी नस्ल का कुत्ता आया जो केवल 15 दिन का था जब उसे विभु घर ले आये । हमने उसे जैकी कहा। जूली ने उस पर अपनी पूरी ममता लुटाई। जूली जैकी की माँ नहीं थी पर उसे अपने साथ रखती, जैकी उसका दूध (स्तन पान ) पीता और जूली उसे यह सब करने देती । जूली पहले उसको खाना खाने देती और मैं इनके मुक्त मूक -बंधन को देखती रहती।

जैकी जब 9-10 माह का था तब जुली चल बसी। जिस दिन वह प्राण हीन हुई उस दिन मैं बहुत रोई.. बच्चे स्कूल में थे ,उनके पिता मेरठ गए थे। दो दिन कुछ सुस्त रही, मेरे सामने ही निढाल हो गई। मैंने एक श्वेत वस्त्र में उसे अपने एक नौकर के द्वारा सीता कुंड भिजवा दिया ।

अब जैकी बड़ा हो रहा था। उसका रंग और आकार बिलकुल अलग था.. वह German Shephard नस्ल का था। उसके पेट का रंग अलग और पीठ का अलग था। उसकी आधी पूंछ, आधा मुख और पंजा गहरे भूरे रंग था जो उसके पेट से मिलता था और पीठ एकदम काली चमकीली। उसकी पूँछ हमेशा खड़ी रहती झंडे की तरह, जब वह उसे हिलाता तो बड़ा शानदार लगता था.. जैसे बड़े अदब के साथ सलाम कर रहा है ! मैं उसकी इस अदा पर खुश होती।

विकास उसके साथ बहुत खेलते, उसे नहलाते...उनके साथ वह आराम से नहाता भी था। एक बार विकास ने उसके मुख में rubber band लपेट दिया, उसका मुख लम्बा था rubber band भी ठीक से लग गया, उसने बहुत मुख को इधर -उधर घुमाया पर वह नहीं खुला अब वह इनके पीछे -पीछे चलता रहा मुख उठाये जैसे कह रहा हो मुझे खोलो। हम सब हँसते रहे।

जैकी हम सब के अलावा किसी बाहर के आदमी को बिलकुल बर्दाश्त नहीं करता था। जब तक कोई घर के बाहर के लोग बैठे रहते थे, वह निरंतर भौंकता रहता था। उसकी यह आदत हमें परेशान कर देती थी। उसको यदि कभी कभी मार भी देती कि चुप हो जा, वह तभी शांत होता जब अतिथि चले जाते थे।

वह हम सब पर कभी आक्रामक नहीं हुआ, मार खाता तो मुख अपने पंजों में छिपा कर बैठ जाता था ,एक शरणागत भाव को दर्शाता था। उसके उग्र स्वभाव के कारण लोग हमारे घर आने में डरते थे। पर वही जैकी जब मालिक के सामने इस तरह पेश आता तो ताज्जुब होता था।

कभी जब मैं घर के अन्दर होती और कोई आ जाता तो वह आकर एक ख़ास आवाज निकालता और फिर दौड़ कर बाहर जा कर भौंकने लगता, फिर मेरे पास आता, फिर बाहर जाता यह उसका अपना तरीका था यह कहने का कि चलो... बाहर कोई आया है।

शाम को जब विभु और विकास स्कूल से आते तो जैकी अपनी ख़ुशी को संभाल नहीं पाता था। खूब उछलता, तरह तरह की आवाज निकालता। विभु तो नहीं, पर विकास उसके साथ कुछ मिनट रुक कर ही अपने कपडे बदलते और फिर बाकी काम करते।

जैकी की वफादारी ही थी की वह हम सब पर कभी नही गुर्राया और किसी अन्य को कभी बर्दाश्त नहीं किया। इसी वजह से उसको अगर मैं कभी मार भी देती थी तो वह सर झुकाकर मार खा लेता। फिर जब कोई आता तो तब तक भौंकता जब तक वह चला न जाता। उसको बाँध कर रखना पड़ता था, नहीं तो मौका देखकर वह आगंतुक को काट लेता था।

कौवा जब आता तो जैकी अपनी रोटी को पेट के नीचे रखकर बैठ जाता। जब बड़ा हो गया तो कौवे को आते ही भगाता और अपने कटोरे का खाना तुरत ख़त्म कर देता। जब मैंने यह देखा तो मैंने कौवे के लिए मुंडेर पर रोटी रखनी शुरू कर दी... वह दोपहर में आता, 1 से 2 के बीच उसकी कांव -कांव सुनकर रोटी रख देती और वह लेकर चला जाता।

एक बार की बात है, दोपहर में सिर्फ चावल ही बना था वह आया और बुलाने लगा उसकी कांव कांव सुनकर मैं सोच में थी क्या करू फिर उसके लिए एक रोटी बनायी जब तक रोटी उसे नहीं मिली वो भी काँव काँव करता रहा रोटी पाकर उड़ गया। इस प्रकार जैकी और कौवे में भी एक रिश्ता बना, उसे देखकर जैकी तुरत खा लेता ताकि उसका खाना कौवा न ले सके। मैं भी खुश होती।

जैकी करीब नौ साल तक हमारे साथ रहा। मुझे जैकी और जूली दोनों बहुत याद आते हैं। मैं इनको न तो कुत्ता कहना चाहती हूँ न ही पशु, पर समाज में ये इसी नाम से जाने जाते हैं। मेरे जैकी ने हम चारो के अलावा किसी से दोस्ती नहीं की नौ सालों में... क्या कोई इंसानी रिश्ता इस तरह हो सकता है ?
















































































































रविवार, 17 जून 2012

मैं हूँ दीपक

अमावास    के  काले  सागर में,
भयंकर  विषधर  फन  फैलाए,
देहरी  पर बैठा  एक  दिया।

सूरज  के  आने  की आस में,
जल रहा, उसे  जलना ही  होगा,
उसने ठानी है  अँधेरे  से  लड़ने की।

प्रतिपल  जलता  रहा, निखरता रहा,
खुद को खुद  से परखता  रहा,
तपन  अपने हिस्से की तौलता रहा।

धैर्य में तन्मय हो,
उजाले  की चाह में,
परिपक्व होता  रहा।

तभी सुनी  एक आवाज़,
दूर से आती  शंख की गूँज,
संकट मोचन  दया निधान।

भोर की दिखी किरण,
दीपक बोला, भगा अँधेरा,
जीत गया  मैं  हुआ सवेरा।

मैं हूँ दीपक।

चलो आली

चलो आली  चित चोर आया।
त्रिभंगी  मुद्रा/ तिरछा  चितवन/ मनहर रूप
रस राज/ रास रसेश्वर  आया।

चलो  आली।

कालिया नाग  नथैया/ अहंकार तोड़े यह गउओं का चरैया
गोपी  प्राण  बसैया  आया।

चलो आली।


धर्म रक्षक/ धर्म  धारक/ धर्म पालक
धर्म  राज्य  रचैया  आया।

चलो आली।


प्रेम  धारक/ प्रेम पोषक/ प्रेम रक्षक
प्रेम  रचनाकार  आया।

चलो आली।


प्राण  दाता/ दुःख हरता/ सुख  करता
दीना नाथ जगन्नाथ आया।

चलो आली।

अनंत/ अखंड/ अछेद/ अभेद
सुवेद  है आया।
चलो आली।


कृष्ण कृष्ण/ महाबाहो/  अच्युत/ अनंत
गोविन्द  है  आया।

चलो आली।


चली आली चितचोर आया/
'सुदर्शन'  प्रेम  रूप  धर आया।

चलो आली।

गुरुवार, 24 मई 2012

शक्ति

तू ही  नारायण  तू ही  नारायणी।
तू  ही  शक्ति  तू  ही  ज्योति।

तू  ही  भू  लोक में तू  ही  भुवः!
तू  ही  दिन  रात  में, तू  ही ज्ञान  चित्त में।

तू ही उल्लास  में, तू ही  उत्साह  में।
तू  ही हर्ष में,  तू ही  विषाद  में।
तू  ही प्राण  में, मरण, हरण में।

निद्रा  तोड़ो  चित्त जगा दो।
मुक्त  स्वर  दो , मानस  रस  दो।

एक  काल  मेरा  दो।
अमरत्व, आलोक  दो।

त्रिभुवन  मोहिनी ,चिर  कल्याणी।
विश्व  विजयिनी, पुण्य पियुशिनी।

जगत जननी,  थोड़ी  महक  दो।

हे भय विनाशिनी, निखिल नाथ से मिला दे।
तेरी  आरती का दिया बनूँ, थोड़ी अगन दे।

सर्व व्यापिनी अंतर मन  विकसित कर।
निर्मल कर, उज्जवल कर, आश्रित कर।

चित्त  मेरा आनन्दित, निस्पंदित करो माँ।


बुधवार, 9 मई 2012

यौवन

अति उत्साही, अद्भुत शक्ति से भरा यौवन,
खुशियों  के ज्वार  में ,निर्बंध  बंधन  में,
अपने  ही नियमों में चलता  है यौवन।
बिना  सोचे  भूल  किये  जाना,
परिणाम  की परवाह से बेखबर,
बेखोफ  रहता  है  यौवन।

सीमोल्लंघन, अमर्यादित, चंचल यौवन,
गहरे संकट, ऊँची चढाई, सब  करने  को तत्पर  यौवन।
जीवन-  मृत्यु, झंझा-आंधी सब सहने को राजी यौवन।
बेचैन , विकल , अति  ज्ञानी,
अपनी धुन  में, स्वर्ण हिरन की चाहत में 
रहता  है   यौवन।

कोई न  रोको   कोई  न   बांधो,
मुझे  चाहिए   पूरी  आज़ादी,
मन  की  गति  से  चलता   यौवन।
चंचल  छलांग, उन्मुक्त उड़ान,
कल्पना  के  लोक   में ,
सपन  समंदर  में  विचरता  यौवन।
बाधा, दुःख  से  हाथ  मिलाता,
सबसे  आगे , सबके  संग  में,
सब  विधियों  में  जीवट  यौवन।
मैं हूँ  यौवन !!!

रविवार, 15 अप्रैल 2012

आँगन की गौरैया

आज मैंने बाहर अपना बगीचा धुला, वहां दाना पानी रखा।
तभी एक गौरैया आई, पूरे आँगन में फुदक-फुदक कर गाने लगी।
एक दम निडर!

मैंने कुछ दाने उसकी ओर फेंके,
उसने एक चोंच लगा कर छोड़ दिया।
वह पौधों के बीच खुश होकर चहकने लगी,
 मैं उसे देखती रही,  मन मैं सवाल भी थे..
बहुत दिनों  के बाद आज तुम आई हो,
किस आलोक से प्राण लेकर आई हो।
है कौन तुम्हारा सहचर?
फिरती हो अनंत में मरण को भूल कर।
खुली हवा बागों फूलों पर,
सुबह, शाम, घर, आँगन, बाहर,
मनुष्य की भृकुटी से निडर।

मुक्ताकाश, उन्नत उड़ान, अपने पर लहरा कर,
तू मरने को है राजी पर बंधन नहीं जरा भी,
हरदम ताज़ी लय पर गाती तिंयु-तिंयु के सुर भी,
वही रास्ता, वही मकां है, वही शहर भी।

सुन तू!
कुछ पल ठहर हमारे घर भी।
मेरे फूलों को उनकी जिन्दगी नसीब हो,
इन्हीं के बीच में छोटा सा तेरा घर भी हो,
तू भी आज़ाद रहे, मैं भी खुशहाल रहूँ।
तू अपने घर में खुश रहे, मैं अपने घर में खुश रहूँ !

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

गुजारिश

चाँद!
तू मुझे भगा कर ले चल।

तू अँधेरे को भगा देता है, ताप को शीतल कर देता है।
मैं थकी हुई, उलझी, मुझे अपने जहाँ तक ले चल।
मैंने सुख के दिन देखे, पीड़ा की रात भी काटी।
तेरी चाँदनी को समेट लूँ, तेरे साथ थोडा सा जी तो लूं।
तू मुझे भगा कर ले चल।

मैं अजब गुलाब का फूल हूँ, नहीं काँटों से कभी दूर हूँ।
तेरी चांदनी की महक बनूँ, तू मुझे भगा कर ले चल।
मेरे पास है थोड़ी जिन्दगी, रहे शान्ति से यह भरी पगी।
कोई मोड़ आए न राह में,
तू मुझे भगा कर ले चल।

चाँद!
मुझे अपने साथ ही ले कर चल।

कभी यूँ भी आ मेरे पास तू, यही राह हो, हमराह तू।
कुछ लम्हे तेरे संग झूम लूँ , तू मुझे भगा कर ले चल।
तेरे इख्तियार में क्या नहीं, मैं हूँ अदना पर तू खुदा नहीं।
कुछ देर दुनिया भुला सकूँ, तू मुझे भगा कर ले चल।
ये राज़ तुमको बताया है, हमराज़ तुमको बनाया है।
इक सच्चे प्रेमी की तरह, मेरी आन रख, आ साथ चल।
तू मुझे भगा कर ले चल।

बुधवार, 28 मार्च 2012

जिन्दगी तूने मुझे चाहा है

कभी -कभी हम इंसानों के साथ जब कुछ अनचाहा घट जाता है, हम बहुत उदास हो जाते है और लगता है अब क्या होगा? जब कोई राह नहीं दिखती अँधेरे से निकलने की, तो हम सोचते हैं बड़ी खराब किस्मत है मेरी। इस जीने से मरना अच्छा।

एक सवाल उठता है -

तुम कौन हो/ क्यों बाहें फैलाए मेरे पीछे चलती हो?
मुझे रुलाती/ आरोप लगाती/ डराती/ धमकाती।
मैं हूँ पीड़ा/ तेरा कर्ज हूँ, अँधेरे ने कहा। 

तब एक आवाज आती है -

तू मुझे पहचान मैं हूँ, मैं हूँ साथ तेरे।
मुझे पहचान, मैं हमेशा तेरे साथ रही हूँ।
तेरी रगों में- धीरज, आशा और ईश बनी हूँ।
घोर निशा में, हारी दशा में, व्यथा कथा में।
हर क्षण, हर साँस में, घोर तिमिर में।
हर निश्चय, हर राह में।
मैं ही तेरे साथ चली हूँ।
मैं ही तेरे साथ रही हूँ।
तू भटकती रही यहाँ से वहाँ,
मुझको कोसा नहीं कहाँ-कहाँ।
मैंने तुझको प्राण दिया,
तूने मुझे दी मरने की दुआ।
परन्तु मैंने तेरा साथ दिया,
देख! अपनों ने तुझे छोड़ दिया।
अपने मतलब से तेरे साथ रहे,
अपने मतलब से तुझसे दूर हुए।
मुझे पहचान! मैं हूँ ज़िन्दगी,
मुझसे ही कर तू बंदगी।

ज़िन्दगी ????
ज़िन्दगी  माफ़ कर दे तू मुझे,
तेरे ही साथ अब चलना मुझे।
कोई कर्म था पिछले जनम का,
कोई कर्ज था पिछले जनम का।
तू मुझे थोडा समय दे ठहर जा,
इस जनम को सुधारूँ, थोड़ा रुक जा।
देख! तूने की है मुझसे वफ़ा,
पर रही मैं तुझसे होकर बेवफ़ा।
तू मेरे दिल की बात पढ़ लेना,
अब मैं तेरी हूँ ये समझ लेना।
तू जरूरत है मेरी, तू इबादत है मेरी,
तू मेरी है, मैं रहूंगी तेरी।
जियूंगी तेरे साथ, मरूँगी तेरे साथ,
न कोई शर्त हैं न वादे हैं,
पर अब रहूंगी तेरे साथ।
तेरे उपकार याद रखूंगी,
मित्र !माफ़ी की आस रखूंगी।

तुझको शत -शत नमन है ज़िन्दगी!
सर झुका कर करूँ मैं बंदगी!






शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

एक था मन

एक था मन !
बड़ी ऊँची उड़ान वाला !!
सब कुछ पाने की चाहत से भरा !
सब कुछ जीने की चाहत से भरा !!
एक था मन !
जीवन के ताप से अनजान !
नियति के चक्र से अनजान !!
एक था मन !
हर चुनौती देख लेंगे !
जंगे जीवन जीत लेंगे !!
सोचता था मन !
तय था खुशियाँ घर लायेंगें !
जी भर कर इसमें डूबेंगें !!
सोचता था मन !
पर रिश्तों से धोखा खाया !
साए में था धूप तपाया !!
छला गया तू -मन !
तेरी बुद्धि बुद्धू ठहरी !
फर्क समझ की थी न गहरी !!
चकित रह गया- मन !
दुनियां के जंगल में तूने !
नैतिकता को चला था छूने !
भटक गया तू -मन !
समय के पहिये पर थर्राया !
अडिग रहा ,फिर मुस्काया !!
धर्य वान तू -मन !
मन तू हार कभी न मान !
तिलकित कर तू अपनी शान !!
ज्योतिर्मय तू -मन !
आस भरा अनंत आसमा !
देख तारों का समां !!
सोचता क्या मन !
ठहरा वक़्त है किसका !
छोड़ सब -जिया है जिसका !!
नवांकुर हो तू -मन !
आशा का इक वृक्ष लगाकर !
नित नव कर्मो से सिंचित कर !!
महक उठेगा मन !
एक था मन !
एक था मन !!

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

गोपी गीत

कृष्णाय वासु देवाय हरये परमात्मने !प्रनत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः !!
यह शरीर साधन है धाम का ,मुक्ति का !यदि मनुष्य शरीर पाकर भी जीवन न संवर सका तो इसमे न काल का दोष है ,न कर्म का और न ईश्वर का । सब दोष स्वयं का है !
एक बार एक भक्त ने कहा -प्रभु !मैं आपको एक बार जान लूँ बस फ़िर मैं मर जाना चाहता हूँ ।भगवान् ने कहा -अगर तू मुझे जान लेगा तो मरेगा ही नही । जिसने मुझे जाना वो अमर हो गया ।
मैं यहाँ गोपी प्रेम की कथा अपने पाठकों तक पहुचाना चाहती हूँ पहले मैं प्रेम के विषय में कुछ कहना चाहती हूँ -हर जीव ,पेड़ -पौधे जिसमे भी चेतनता होती है वो प्रेम करता है। एक प्रेमी अपने प्रेम का प्रतिकार मांग कर नही चाहता । वो अपने प्रेमी की दृष्टि को देखता हैं उसमे अपने लिए जगह तलाशता रहता है ,मौन तपस्वी की तरह । जो इस को न पहचान सके वो इंसान कम मशीन ज्यादा है ,ईश्वर की बनाई हुई मशीन।
भगवान ग्यारह वर्ष कि उम्र तक वृज में रहे । किशोरा अवस्था में वे अक्रूर के साथ मथुरा गए । कंस के बुलावे पर । कंस श्री कृष्ण को मथुरा बुला कर मल्ल युद्ध के बहाने मारना चाहता था । भगवान मथुरा गए कंस के तमाम सैनिको को मारकर कंस का वध कर दिए । अपने माता -पिता देवकी और वासुदेव को कारागार से मुक्त किया ।इस प्रकार व्रज में श्री कृष्ण केवल ११ वर्ष कि अवस्था तक रहे ।
कुछ अज्ञानी गोपी -कृष्ण प्रेम को अपनी मानसिक विकृति के साथ देखतें हैं जबकि दुनिया में इससे पावन और कुछ नहीं हो सकता ।
अब गोपियों के बारे में जानिये -श्री कृष्ण प्रेम में पगी गोपियाँ घर -बार वालीं थी । वृज में रहने वालीं सभी स्त्रियाँ ,किशोरियां कृष्ण कि भक्त थीं ।गोपियों में सबसे कम उम्र थी श्री राधाजी की पर वो भी श्री कृष्ण जी से पांच साल बड़ी थी । श्री राधा रानी भी विवाहित थीं पर वे श्री कृष्ण के पावन प्रेम में इस तरह पड़ी कि सबकुछ भूलकर उनके चरणों कि सेविका बन गई।श्री राधा जी का गाँव था "वरसाना "एक बार श्री कृष्ण जी मोर के पीछे खेलते हुए वृषभानु जी के महल तक चले गए वहां श्री राधा जी भगवान् की अनुपम छवी को देख कर मोहित हो गयी ।श्री राधा जी गाँव था "बरसाना "एक बार श्री कृष्ण जी मोर के पीछे खेलते हुए श्री वृषभानु जी के महल तक चले गए वहां श्री राधा जी भगवान् कि अनुपम छवी को देख कर मोहित हो गई । भगवान् भी योगमाया के रूप में राधा रानी को पहचान गए । राधा जी जैसे -जैसे बड़ी होतीं गई श्री कृष्ण प्रेम का रंग गहरा होता गया । श्री राधा जी का अप्रतिम सौन्दर्य लक्ष्मी जी से कम न था ।
गोपियाँ भगवान् के दर्शन करने के बहाने खोजा करतीं थी । वे राह देखतीं कि भगवान् आयें और उनके माखन कि मटकी को जूठा करें । हम उलाहना लेकर नन्द भवन जाए और कन्ह्यैया के दर्शन करें ,भगवान् कि अद्भुत लीला कि प्यासी गोपियाँ उनकी मुरली की धुन सुन कर सब छोड़ कर भाग आतीं । भगवान की मुरली की धुन सुन कर मनुष्य तो क्या पशु -पक्षी भी चित्र से हो जाते । जो जिस अवस्था में रहता ,जैसे रहता वह वहीं उसी दशा में बीन्ध जाता । गाय अगर घास खा रही होती तो आधी अन्दर और आधी मुख के बाहर लिए हुए ही खडी रह जाती ,पक्षी अगर उड़ने को पंख फैलाए हो और मुरली बजी तो उसी तरह वो खड़ा रह जाता था ,हिरन पानी पीना भूलकर खड़े रह जाते थे । कुलांचे मारते हिरन थम जाते ,यमुना जी का जल ठहर जाता ,बहना भूल कर चित्रखीचा सा हो जाता यमुना जी का जल ,सुगंधित वायु वही रुक जाती ,पेड़ -पौधे ,लता -कुञ्ज ,पूरी प्रकृति वंशी कि धुन में डूब जाता । जब प्रकृति थम जाती थी तब भला जीवों कि क्या दशा होती होगी । गोपियाँ जब वंशी कि धुन सुनती तो खडी कि खडी रह जातीं । श्री कृष्ण जी के अनंत सौन्दर्य को निहारतीं ही रह जाती ।
गोपियाँ अपनी बदनामी कि परवाह भी नहीं करतीं थीं वे लोक लाज को भूलकर श्री कृष्ण कि एक झलक पाने के लिए सब कुछ छोड़ कर भाग आतीं । कोई सखी अपनी अवस्था की परवाह नहीं करती थी भगवान् की मोहिनी लीला सबके सुध -बुध हर लेती थी ।गोपियाँ संसारी थीं वे व्यवहार तो संसार का करतीं थीं पर मन में श्री कृष्ण को बिठा कर रखतीं थीं।
प्रेमी अपने मन में एक और मन रखता है जिसे दुनियां वाले नहीं देख पाते । पवित्र प्रेम का स्थान वहीँ होता है । उस प्रेम में और कुछ नहीं केवल पूजा है । पूजा में भी कर्म काण्ड होतें हैं जो दुनिया वाले देखतें है पर यह प्रेम तो साक्षात ईश्वर है जिसे केवल अपना मन देखता है या फिर परमात्मा । यह प्रेम किसी कि परवाह नहीं करता ,न कुछ दिखाता है । वह तो अपने ह्रदय के अन्दर एक परम पावन स्थान रखता है जहां वह केवल अपने प्रिय को बसा कर रखता है । जब मन करता उसे निहार लेता है ,बातें कर लेता है वहां तो हमेशा पूजन होता रहता है । उस प्रेम को संसार कैसे देख सकेगा ,उसे देखने के लिए तो बड़ी पावन दृष्टी चाहिए । विकृति में फंसा हुआ व्यक्ति उसे कैसे देख सकेगा ?नहीं देख सकेगाबड़ी पवित्र नजर और पवित्र मन चाहिए।
प्रेम को समझने के लिए जो लोग स्थूल दृष्टी से ऊपर नहीं जा सकतें उनकी बुद्धि पवित्रता नहीं छू पाती ठीक उसी प्रकार जैसे उल्लू को दिन में नही दीखता । पूरी दुनिया सूर्य का स्वागत करती है ,तेज लेती है ,जीवन लेती है ;परन्तु उल्लू नहीं जान सकता कि सूर्य क्या है ?युगों बीत गए पर उल्लू को कोई नहीं समझा पाया कि -आँखे खोलो और सूर्य का दर्शन करो । इसी प्रकार गोपियों के प्रेम को ,सच्चे प्रेम को समझने के लिए पवित्र मन और पवित्र दृष्टी चाहिए । ।ऐसे लोगों को समझाया भी नही जा सकता की प्रेम क्या है क्यों की वो स्थूल दृष्टि से ऊपर नही जा सकते ,या फ़िर उनकी बुद्धि वहाँ तक नही जा पाती ठीक वैसे ही जैसे उल्लू को दिन में नही दीखता । पूरी दुनिया सूर्य भगवान् का स्वागत करती है पर ,पूजा करती है ,तेज लेती है ,जीवन लेती है ,परन्तु उल्लू नही जान सकता की सूर्य क्या हैं । वह कहता है सूर्य नही हैं । युगों बीत गए पर उसे कोई नही समझा पाया की आँखे खोलो और सूर्य का दर्शन करो । इसी प्रकार गोपियों के प्रेम को देखने और समझने के लिए उल्लू की आँख नही पवित्र दृष्टी होनी चाहिए ।
जिसनेएक झलक श्री कृष्ण की देखी वह अपना सब कुछ हार गया श्री कृष्ण जी कृपा केवल प्रेमी भक्त ही पा सकता है । वे भक्तों के भगवान् ,वेदान्तियों के ब्रम्ह और गोपियों के परमात्मा हैं । वे विश्वमोहन हैं । गोपियाँ धर्म ,ज्ञान ,योग आदि नही जानती वे तो केवल प्रेम जानती हैं ,अपने प्रिय कृष्ण को अपने प्राण निछावर कर चुकी गोपियाँ केवल उनकी दासी बन कर रहना चाहती है ताकि उनकी एक झलक पा सकें ।
।जब भगवान् ने गोपियों के वस्त्र छिपाए थे तब शरद रात्री को मिलने के लिए कहा था । दुधिया चांदनी में बेला ,चमेली और सुगन्धित पुष्प खिल कर महक रहे हैं । भगवान् ने गोपियों को दिब्य बनाया अपने प्रेम का रस पिला कर । गोपियों पर भगवान् ने कृपा की । योगमाया के सहारे गोपियों को निमित्त बना कर उनको प्रेम की उच्चा अवस्था तक पहुँचाया ।गोपियाँ श्री कृष्ण का प्रेम पाना चाहतीं थी पूर्णिमा की रात ,दुधिया चांदनी ने वन के कोने -कोने में अमृत उड़ेल दिया था । दिव्य धवल रात्री में वृंदा वन में श्रीकृष्ण जी ने वासुरी पर सबके मन को हरण करने वाली मधुर तान छेडी ।अब तो गोपियों का मन कृष्ण में मिल गया संकोच ,भय ,धैर्य ,मर्यादा सब ख़तम हो गया कृष्ण प्रेम ने सब छीन लिया । मुरली की धुन सुनते ही ब्रिज -बालाओं की विचित्र गति हो गई । सारी गोप बालाएं एक दूसरे से छिप कर बिना किसी को बताये भगवान् के पास चल पड़ी ।जब भगवान् ने वासुरी बजाई तो उनके प्रेम में पगी गोपियाँ जो दूध दुह रहीं थीं वो दुहना छोड़ कर चल पड़ी ,जो चूल्हे पर दूध औटा रही थी वे उफनता हुआ दूध छोड़ कर और जो गोपी भोजन पका रही थी उसे बिना उतारे ही ज्यों -का -त्यों छोड़ कर चल दी । जो अपने परिवार को भोजन परोस रही थी वे उसे छोड़ कर ,जो छोटे -छोटे बच्चों को दूध पिला रही थी वे दूध पिलाना छोड़ कर ,जो अपने पतियों की सेवा -सुश्रुषा कर रही थी वे उसे छोड़ कर और जो स्वयं भोजन कर रही थी वे अपना भोजन छोड़ कर अपने प्रिय कृष्ण के पास चल पड़ी ।कोई गोपी अपने शरीर में उबटन लगा रही थी ,कोई गोपी आंखों में अंजन लगा रही थी एक आँख में लगा दूसरी आँख बिना अंजन के ,कोई उलटे वस्त्र में श्री कृष्ण की वन्सुरी सुनते ही चल पड़ी ।पिता और पतियों ने ,भाई और बंधुओं ने उनको रोका परन्तु वे नही रुकी । क्योंकि उनका मन विश्वमोहन श्री कृष्ण ने हर लिया था । वे मन प्राण और आत्मा श्री कृष्ण को सौप चुकी थी केवल उनका शरीर इस संसार के धर्म का पालन कर रहा था ।गोपियों ने जो प्रेम प्रभु से किया वही है पवित्र प्रेम वे रहती थी अपने घर में ,काम -काज सब करती थी ,पति -घर -बच्चे सब के बीच रह कर भी प्रेम करतीं थी कृष्ण से उनका मन था श्री कृष्ण में ।
।वृज की कुछ नई वधुएँ जो घरों के अन्दर थी और निकल नही पाई ,जब कृष्ण जी की वासुरी की तान सुनी तो अपने नेत्र बंद करके बड़ी तन्मयता से श्री कृष्ण के अनुपम सौन्दर्य और लीलाओं का ध्यान करने लगी ।परम प्रेम में पड़कर गोपियों के सारे अशुभ संस्कार भस्म हो गए । जिन गोपियों ने भगवान् का ध्यान किया भगवान् प्रकट हो गए । गोपियों ने मन ही मन बड़े प्रेम से भगवान् का आलिंगन किया ।यही है अनन्य प्रेम ध्यान में ही अपने प्रियतम का आलिंगन और फ़िर श्रीकृष्ण मय हो जाना ।जब गोपिया श्री कृष्ण के पास पहुँची तो श्री कृष्ण ने अपनी वाक् चातुरी से मोहित करते हुए कहा -आओ गोपियों तुम्हारा स्वागत है । देखो सर्वश्रेष्ठ मैं ही हूँ । तुम इतनी रात यहाँ क्यों आई हो ?घर में सब कुशल -मंगल है न ?बताओ मैं तुम्हारे लिए क्या करू ? गोपियों ने कहा -पहले तो मन को चुराते हो फ़िर कहते हो क्यूँ आई हो ।भगवान् ने कहा -सुंदर गोपियों ! रात का समय है । भयानक जीव -जंतु घूमते रहतें हैं । तुम यहाँ आई डर नही लगा ,जाओ अपने घर लौट जाओ ।गोपियों ने कहा -हे श्री कृष्ण मेरा मन अब मेरा नही है हम आपके दर्शन की चाह में सब कुछ छोड़ कर आयीं है ,अब आप कहते हो लौट जाओ ।
गोपियाँ उदास हो गईं ।श्री कृष्ण ने कहा -तुम्हारे भाई -बंधू ,माँ-बाप ,पति -पुत्र तुमको खोज रहे होंगे तुम उनको भय में डालो । अब तो तुमलोगों ने मुझे देख लिया । इस वन की शोभा को भी देख लिया अब देर न करो शीघ्र अपने घर जाओ अपने बच्चों ,पति और परिवार की देख -रेख करो गौए दुहो अपना घर देखो ।
गोपियों तुम लोग मेरे प्रेम के वश में होकर यहाँ आई हो यह कोई अनुचित बात नही है क्यों की मुझसे तो पशु -पक्षी भी प्रेम करतें हैं ।"त्रिभुँवन सुंदर भगवान् का रूप जो काम को भी लज्जित करता है तो गोपियाँ कैसे न मोहित हो । "श्री कृष्ण ने कहा गोपियों ! स्त्रियों का परम धर्म है यही है की वे अपने पति और उनके भाई बंधुओं की निष्कपट भाव से सेवा करें संतान का पालन पोषण करें । इसलिए !कुलीन स्त्रियों अपने घर जाओ । यह सुन कर गोपियों के दुःख के आंसू निकल पड़े ।गोपियों ने कहा -हम अपने श्याम सुंदर के लिए सारी कामनाएं ,सारे भोग छोड़ कर आई हैं । हम सब केवल तुम्हारे चरणों में प्रेम करती हैं ।प्रिय मोहन ! तुम स्वतंत्र हो तुम पर हमारा कोई वश नही है । फ़िर भी जिस प्रकार भगवान् अपने भक्तों से प्रेम करतें हैं वैसे ही तुम हमें स्वीकार कर लो । हमारा त्याग मत करो । हम तुमको देखे बिना नही जी पाएंगी ।प्रिय श्याम सुंदर यह कहना ठीक है की -अपने पुत्र -पति और भाई -बंधू की सेवा करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है । अब तक हमारा चित्त घर के काम धधों में लगता था । परन्तु तुमने हमारा चित्त लूट लिया । अब हमारी गति मति निराली हो गयी है । इन चरण कमलों को छोड़ कर हम घर कैसे जाएँ तुम्हारी मंद -मंद मुस्कान ,प्रेम भरी चितवन ,मनोहर वंशी की तान हमारा चित्त हर लिए है । अब हम किसी के सामने एक क्षण भी नही ठहर सकने में असमर्थ हैं । हम सब छोड़ कर तुम्हारे शरण में आईं हैं । हे पुरूष भूषण !हे पुरुषोत्तम ! तुम हमें अपनी दासी स्वीकार कर लो ।इतना सुन कर भगवान् ने गोपियों का मान किया । उनसे प्रेम भरी सखी भाव का ब्यवहार किया ।गोपियाँ मान वती हो गयी उनके मन यह भाव आया की भगवान् मुझसे प्रेम करते हैं इसलिए हम श्रेष्ठ हैं । श्रीकृष्ण का अनन्य प्रेम पाकर अहंकार हो जाना स्वाभाविक है पर भगवान् को यह नही अच्छा लगा वे अंतर्ध्यान हो गए ।जब श्री कृष्ण अंतर्धान हो गए तो गोपियों को बहुत दुःख हुआ । उनका ह्रदय विरह ब्यथा से जलने लगा । अब वे अपने को सर्वथा भूल गई ।गोपिया भगवान् के प्रेम की प्यासी थी भगवान् मिले भी लेकिन जब गोपियों को अहंकार हो गया की 'भगवान् मुझसे प्रेम करते हैं मैं श्रेष्ठ हूँ ' तब सबके मन की जानने वाले भगवान् को भान हो गया की गोपियों में अहंकार आ गया है अतः इसे मिटाना है ,भगवान् अंतर्धान हो गया ।आप सब जान ले की जहा अहंकार होगा वहाँ प्रेम नही टिकेगा । प्रेम तो समर्पण है और समर्पण में अपना क्या रहा फ़िर अहंकार कैसे रहेगा ।बंधुओं यही है प्रेम ,प्रेम में यह बात विशेष महत्व की होती है की -जिसे हम प्रेम करें उसकी खुशी में अपनी खुशी खोज ले । प्रेम में हिंसा ,इर्ष्या ,स्वार्थ ,निंदा दूर -दूर तक नही होना चाहिए । विचार करे इस प्रकार का प्रेम कितने लोग करते है ।किसी भी प्रकार से उसे ,जिसे आप प्रेम करतें हैं दुःख न होने देन । प्रेम का दूसरा पहलु है भक्ती और यह सब के बस की बात नही है । गोपियाँ भगवान् का प्रेम पाने के लिए सब कुछ छोड़ कर आयी हैं ,वे केवल उनके रूप की ,उनके गुणों की ,उनके चरणों की दासी बनाना चाहती है ।
आज हम श्री कृष्ण का साथ तो नही पा सकते । अब वे धरती के नही वैकुण्ठ के वासी हैं । गोपियाँ भगवान् के साथ। रही पर आज हम उनकी कृपा को पा सकते हैं भक्ती और प्रेम के द्वारा ,उनके बताये मार्ग पर चलकर ,उनको अपने ह्रदय में बसा कर अनेक लोगों ने उनकी कृपा को पाया है भक्ती के द्वारा ।प्रेम और भक्ती दोनों एक दूसरे के पूरक हैं जहाँ प्रेम होगा वहां भक्ती भी होगी और भक्ति तभी होगी जब प्रेम होगा । प्रेम या भक्ति डूब कर होती है - उनकी
याद आई है
,साँसों जरा उसकीआहिस्ता चलो !
धडकनों से भी इबादत में खलल पड़ता है !!
भक्ती बड़ी कठिन होती है सब नही कर पाते पर जो करतें हैं वो इस तरह करतें है । आज एक मिनट की मुलाकात में लोग प्यार करतें है और अगले मिनट में उनका प्रेम घृणा बन जाता है । कब हुआ कब खतम हुआ पता ही नही चलता । हम भगवान् के साथ भी यही प्रपंच करतें है अगर वो मेरी इक्षा पूरी करतें हैं तो हैं नही तो भगवान् केआस्तित्व में भी शक है ।लोग कामना पूर्ण न होने पर कहते है मैंने उनकी पूजा की क्या मिला ? सोचिये क्या ये प्रेम है ?क्या ये उस सर्वेश्वर का सम्मान है ? क्या ऐसा सोचना उनके न्याय के प्रती अन्याय नही है ?भगवान् से कुछ भी मांगते वक्त क्या हम अपनी पात्रता का ख्याल रखतें हैं ?भगवान् भी नियमो का पालन करतें हैं ,धर्म का पालन करतें हैं ,भगवान् ने इस पृथ्वी पर धर्म की स्थापना के लिए अनेक कष्ट सहे जीवन भर दुर्जनों के संहार में लगे रहे । श्रेष्ठ कर्मो से बंधे रहे ।गोपियाँ भगवान् के गुणों पर उनसे प्रेम करतीं थीं ,अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर नही । गोपियों ने भगवान् को अपने ह्रदय में बसाया यही प्रेम है यही भक्ती हैप्रेमी अपने प्रियतम को ,भक्त अपने भगवान् को अपने ह्रदय में बिठाता है ।
जो लोग समझते है परमात्मा मन्दिर में रहतें हैं और उनका दर्शन करने जाते हैं समझो कच्चे भक्त हैं अभी वो भक्ती करना सीख रहा है । परमात्मा तो भक्त के ह्रदय में ,आंखों में ,ख्यालों में ख्वाबो में बसे तो समझो भक्ती हो रही है वरना नही ।भक्त के अन्दर अहंकार नही होना चाहिए गोपियों को जरा सा मान हुआ ,भगवान् अंतर्धान हो गए । गोपियों की स्थिति विरहिणी की हो गयी । भगवान् को साँसों में सुगंध की तरह बसाओ और जीवन की तरह सवारों तब प्रेम पूर्ण होता है । प्रेम ही परमात्मा है और प्रेमी परमानंद है । उनमे खो जाओ तब वे तुम्हे खोज लेंगे जैसे सुदामा को मिले भगवान् ।प्रेम ही व्रत है ,प्रेम ही नियम है ,प्रेम ही साधना है ,ध्यान है ,धारण करने योग्य है ,प्रेम ही समाधि है। प्रेम करना तो गोपियों से सीखना चाहिए ,वे ही प्रेम की ध्वजा हैं ।श्री कृष्ण जब अंतर्धान हो गए तो गोपियों की दशा विचित्र हो गयी । वे वनस्पतियों से ,पेड़ -पौधों से उनका पता पूछने लगीं । श्री कृष्ण के विरह में गोपियों ने तुलसी से ,पीपल ,पाकर ,बरगद ,कुरबक ,अशोक ,नागकेशर ,पुन्नाग और चम्पा के वृक्ष से कृष्ण का पता पूछा । रसाल ,प्रियाल ,कटहल ,पीतसाल ,कचनार ,जामुन ,आक ,बेल ,मौलसिरी ,आम ,कदम्ब और नीम तथा अन्य तरुवरों से भगवान् का पता पूछा ।हिरनों और पक्षियों से पूछा श्री कृष्ण की भावना में डूबी गोपिया यमुना की पावन रेती में लोट गई और भगवन के गुणों का गान करने लगीं ।
गोपियों ने श्री कृष्ण के विरह में जो गाया वही है "गोपी -गीत "!गोपी गीत में १९ श्लोक हैं जो इसे गाता है वह भगवान् की कृपा का पात्र होता है । गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं - प्यारे ! आपने व्रज में जन्म लिया इसीलिए व्रज की महिमा वैकुण्ठ से भी अधिक बढ़ गई । तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निवास स्थान "वैकुण्ठ "छोडके यहाँ रहने लगी है । परन्तु प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपिया तुम्हारे ही चरणों में अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं ,वन -वन में भटक कर तुम्हे ढूंढ रही हैं ।हमारे ह्रदय में आप ही बसे हो हम तो बिना मोल की बिकी हुई आपकी दासी हैं । हमारा ह्रदय आपसे प्रेम करता है आपही हमारे स्वामी आप होआपके सुंदर नेत्र से हम धायल हो चुकी हैं । हमारे मनोरथ को पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर !क्या नेत्रों से हमें मारना वध नही है ?क्या अस्त्रों से मारना ही वध होता है ?हे पुरूष शिरोमने !यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु ,अजगर के रूप में खाने वाले अघासुर ,इंद्र की वर्षा ,आंधी, विजली ,दावानल ,वृषभासुर और व्योमासुर आदि से और भिन्न -भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार -बार हमलोगों की रक्षा की है ।तुम केवल यशोदा नंदन ही नही हो ,समस्त शरीर धारियों के ह्रदय में रहने वाले उनके साक्षी हो ,अन्तर्यामी हो ।
सखे ! ब्रम्हा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो !हे यदुवंश शिरोमने ! तुम तो अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करते हो । जो तुम्हारी शरण में आता है उसे तुम जन्म -मृत्यु रूपी संसार के चक्र से छुड़ाकर अभय कर देते हो । हमारे प्रियतम ! तुम्हारे कर कमल सबकी अभिलाषाओं को पूर्ण करतें हैं । वो कर कमल जिससे तुमने लक्ष्मी का हाथ पकड़ा है ,हमारे सर पर रख दो ।वीर शिरोमणि तुम वृजवासियों के दुःख को हरने वाले हो !श्याम सुंदर !तुम्हारी मंद -मंद मुस्कान की एक उज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमी जनों के मान को चूर -चूर करने के लिए पर्याप्त हैं । हमारे प्यारे सखा हमसे रूठो मत !हमसे प्रेम करो ,हम तुम्हारी दासी हैं ,तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं । हम दुखी अबलाओं को अपना वह परम सुंदर सांवला -सांवला मुख कमल दिखलाओ ।तुम्हारे चरण कमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देतें हैं । वे समस्त सोंदर्य ,माधुरी की खान हैं । लक्ष्मी जी स्वयं उनकी सेवा करती हैं । तुम उन्ही चरणों से हमारे बछड़ो के पीछे पीछे चलते हो और हमारे लिए उन चरणों को साप के फनों पर भी रख देते हो । हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है । तुम्हारे मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम उन्ही चरण कमलों को हमारे वक्ष :स्थल पर रख दो और हमारे मिलन की आकांक्षा को शांत कर दो ।
गोपियाँ कहती हैं तुम अपने चरण हमारे ह्रदय पर रख दो क्यों की हम उनकी (आपके चरणों की )दासी हैं ।कमल नयन !तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है । आपके एक -एक शब्द एक -एक अक्षर मधुरातीमधुर है .बड़े -बड़े विद्वान भी उसे सुनकर ख़ुद को भूल जाते हैं । अपना सर्वस्व निछावर कर देतें हैं । तुम्हारी उसी वाणी पर तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हैं ।दान वीर !अब तुम हमें अपना दिब्य अधरामृत पिला कर जीवन दान दो । प्रभो तुम्हारी लीला कथा भी अमृत है विरह से व्याकुल लोगों के लिए यह जीवन है । अनेक ग्यानी महात्माओं ने भक्त कवियों ने आपकी कथा को गाया और अपने पाप ताप को मिटाया है । आपकी कथा श्रवन मात्र से परम मंगल और परम कल्याण करती है । आपकी लीला परम मधुर और अनंत है !गोपियाँ कहती है -जो आपकी कथा गाता है वही सबसे बड़ा दाता है ।प्यारे ! हम तुम्हारी प्रेम भरी हँसी ,चितवन और क्रीडाओं का ध्यान करके आनंद मग्न हो जाती हैं । हमसे कपट न करो हमारा मन क्षुब्ध है हमें दर्शन दो ।हमारे प्यारे स्वामी ! तुम्हारे चरण तो कमल से भी सुंदर हैं । जब तुम गौओं को चराने के लिए वृज से निकलते थे तो तुम्हारे सुंदर ,सुकुमार युगल चरण में कितने कंकण ,कुश -कांटे चुभते रहे होंगे । आज यह सोच कर हमें बड़ा दुःख हो रहा है !तुमने हमारे लिए कितने कष्ट सहे ।दिन ढलने पर जब श्री कृष्ण गौओं को लेकर आते ,तो गोपियाँ कहती हैं -दिन ढले तुम गौओं को लेकर वन से घर आते तो हम देखती थीं तुम्हारे सुंदर मुख को ,तुम्हारी नीली घुंघराली अलकें ,उन पर गौओं के खुर से उड़ -उड़ कर घनी धूल पड़ी होती थी ।हमारे वीर प्रियतम !तुम फ़िर हमें अपना वह सौन्दर्य दिखा कर हमारे विरह को शांत करो । प्रियतम एकमात्र तुम्ही हमारे दुखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों को परम सुख प्रदान करतें हैं उनकी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करते हैं । लक्ष्मी जी स्वयं उनकी सेवा करतीं है । आपके चरण कमल तो पृथ्वी का भूषण हैं । आपत्ति के समय केवल उन्ही का चिंतन करने से सारी आपत्तियां कट जाती हैं ।हे कुञ्ज विहारी ! तुम अपने परम कल्याण स्वरूप चरण कमल हमारे वक्षस्थल पर रख कर हमारे ह्रदय की व्यथा शांत कर दो ।वीर शिरोमणि ! यह जो वासुरी है ये तुम्हारे अधरामृत का पान करने के कारण ही इतनी मोहक तान छेड़ पाती है । इस अमृत का वितरण हमें भी करो ।प्यारे !दिन के समय जब तुम वन में चले जाते हो तब तुम्हे देखे बिना हमारे लिए एक -एक क्षण युग के समान हो जाते हैं । जब तुम संध्या के समय लौटते हो तो घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुंदर मुखारविंद जब हम देखतीं हैं तो उस समय पलकों का गिरना हमारे लिए भार हो जाता है और तब लगता है ,इन नेत्रों की पलकों को बनने वाला विधाता मूर्ख है ।प्यारे श्याम सुंदर !हम सारे बन्धनों को त्याग कर ,पति पुत्र ,भाई बंधू और कुल परिवार को त्याग कर उनकी इक्षा और आज्ञा का कर आपके दर्शन को आई हैं।
हम तुम्हारे मधुर गान की एक -एक गति समझतीं हैं ,संकेत समझती हैं ,तुम्हारी वासुरी की तान से बंधी हुई इस रात्री में हम यहाँ आई हैं और तुम इतने निर्दई की हमें छोड़ गए । तुम कपटी हो पहले मोहित करते हो फ़िर त्याग करते हो ।तुम्हारी मुस्कराहट ,प्रेम भरी तिरछी चितवन ,तुम्हारी वंशी की धुन,तुम्हारा वह विशाल वक्षस्थल जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करतीं हैं ।मनमोहन जब से तुमको देखा है तब से आज तक निरंतर हमारी लालसा बढती ही जा रही है । हमारा मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है । तुम्हारे अनंत गुन और मन को हरने वाली लीलाएं ,तुम्हारा रूप सौन्दर्य हम वृज वासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाला है ।
आप सम्पूर्ण विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए पृथ्वी पर आए हैं । आप कुछ ऐसा कर दो जिससे आपके भक्तों का ह्रदय रोग निर्मूल हो जाए ।मन मोहन ! आपके चरण कमल से भी अधिक सुकुमार हैं उन्हें हम अपने कठोर वक्ष:स्थल पर बहुत धीरे से रखतीं हैं की कहीं उनपर चोट न लग जाय और आप उन्ही सुकोमल चरणों से रात्रि के समय इस घोर जंगल में हमसे छिपे छिपे फ़िर रहे हो । आपके उन्ही कोमल चरणों में कंकड़ ,पत्थर ,कुश -कांटे चुभ रहे होंगे आपको पीड़ा हो रही होगी यह सोच कर हम अचेत हुई जा रहीं हैं ।श्री कृष्ण ! श्याम सुंदर ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है ,हम तो बस तुम्हारे लिए ही जी रहीं हैं । हम केवल तुम्हारी हैं ।
इस प्रकार गोपिया विरह आवेश में भांति -भांति से गान करने लगीं अपने प्यारे के दर्शन की लालसा को वे रोक नही पा रहीं हैं । करुनाजनक ,सुमधुर स्वर से फूट -फूट कर रोने लगीं ।
ठीक उसी समय उनके बीचों बीच भगवान् श्री कृष्ण प्रकट हो गए । उनका मुख कमल मंद -मंद मुस्कान से खिला हुआ था ,गले में वन माला थी ,पीताम्बर धारण किए हुए थे उनका यह रूप कोटि -कोटि कामों को लज्जित करने वाला था । सुंदर और परम मनोहर था । अपने श्याम सुंदर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनद से खिल उठे ,मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो ,एक -एक अंग नवीन चेतना से खिल उठा । गोपियाँ पूर्ण काम हो गयी !भगवान् यमुना जी की रेती में गोपियों के बीच आए ,गोपियों ने अपनी ओढ़नी बिछा दी भगवान् बैठे ।
सहस्त्र -सहस्त्र गोपियों ने उनकी पूजा की भगवान् की शोभा निराली थी । तीनो लोकों के सौन्दर्य भगवान् से आश्रय मागते हैं उन भगवानका स्पर्श गोपियाँ कर रही हैं । किसी ने उनके चरण कमल अपनी गोद में रखा तो किसी ने कर कमल को । गोपियाँ पूछतीं हैं -आप हमसे क्यों छिप गए ?क्या हम आपसे प्रेम नही करतीं हैं ?भगवान् ने प्रेम का स्वरूप बताया -बोले मेरी प्रिय सखियों ! जो प्रेम करने पर प्रेम करतें हैं वो तो मात्र लेंन देन है ,उस प्रेम में सौहार्द और धर्म नही होता केवल स्वार्थ होता है ।सुंदरियों ! जो लोग न प्रेम करने वालों से भी प्रेम करतें हैं वे स्वभाव से ही सज्जन और करुना से भरे होते हैं । वे बड़ो का सम्मान करते हैं ,सब के हितैषी होतें हैं ,किसी का बुरा करने की नही सोचते । सच पूछो तो उनका व्यवहार ,सत्य एवं धर्म पूर्ण होता है ।कुछ लोग ऐसे होतें हैं जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नही करते ,न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्नं ही नही उठता है ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं -
-प्रथम वे जो अपने में ही मस्त रहतें हैं जिनकी दृष्टि में कोई और आता ही नही ।
-दूसरे वे हैं जिन्हें द्वेत तो भाता है पर कोई प्रयोजन नही रखते ।
-तीसरे वे हैं जो जानते ही नही की हमसे कौन प्रेम करता है वे भ्रम में रहते हैं की अमुक मुझे प्रेम करता है या नही ,वे समझ ही नही पाते ।
-और चौथे वे हैं जो जानबूझ कर अपने हितैषियों और परोपकारी लोगों से द्रोह करतें हैं और उनको सतातें भी है ।
।भगवान् कहतें हैं -गोपियों मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नही करता जैसा करना चाहिए ।मैं ऐसा इसलिए करता हूँ ताकि उनकी चित्तवृत्ती मुझमें लगी रहे । मैं मिल -मिल कर छिप जाता हूँ ।गोपियों !निसंदेह तुम लोगों ने मेरे लिए लोक मर्यादा ,वेदमार्ग और अपने सगे सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है ,ऐसी स्थिति में तुम्हारा चित्त कहीं और न जाय इसलिए मैं छिप गया ।मेरी प्रिय गोपियों !जो काम बड़े -बड़े योगी मुनि नही कर पाते वो तुमने किया है । तुम्हारा यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और निर्दोष है । मैं अनंत काल तक तुम्हारे प्रेम का ऋनि रहूँगा । तुम अपने सौम्य स्वभाव से मुझे उरिन (मुक्त )कर सकती हो परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋनी (कर्जदार )ही रहूँगा ।ॐ नमो नारायणाय ............त्वामहं शरणम् मम !