रविवार, 18 नवंबर 2012

सफ़र


मुझको सफ़र का गम नहीं 
हर सुबह सफ़र से कम नहीं !
सफ़र के बाद मुझे,
फ़िक्र मेरे घर की है !
जमी थी एक 'बर्फ' रिश्तों की 
दरक के गिर गई  दीवार 
ज़ख्म बाकी है 
जो पर लगा के उड़ाई
वो उड़ नहीं पाई !
ये बात अब जो उड़ी है 
बगैर  पर की है !
जब मैं राजी हुआ 
सर झुकाने को,
पलट के बोला वो 
अब तो ज़रूरत 'सर' की है !
उन्हें है इल्म मगर 
बात बना लेते हैं,
हमें बिखेरने वाली 
फ़िज़ा किधर की है !

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