कुछ चिट्ठीयां ऐसी भी होती हैं
जो भेजी नहीं जाती कही वे किसको लिखी जाती हैं ?
वे खुद ही पढ़ती हैं खुद को ,ओर खुद ही समझती हैं
वे चिट्ठियाँ ! समय के साथ विसार दी जाती हैं |
पुनः आनंद के दिन आते ही बंद हो जाती हैं वे
एक दिन फिर लिखनी पड़ती हैं एक चिट्ठी
फिर पुरानी भी खुल जाती है पन्ने दर पन्ने
कुछ पन्ने पूरे हो चुके होते हैं
कुछ के ड्राफ्ट कुदरत ने भर दिए होतें हैं
कुछ खाली होती हैं
ये खाली चिट्ठीयां >>> बेचैनी बन कर
नसों मे दौड़ती हैं ,कुछ मे तो शीर्षक ही होते हैं
उनका अनुमान लगाया जाता है बस
हो सकता उसमे कुछ अच्छा लिखा जाए
जो बटवृक्ष की तरह हो
उनका विस्तार किसी को खुशी दे
दुनिया सबसे बड़ा कलमकार तो लिख चुका होगा
बस पढ़ ना बाकी है |
अहो राम ! वही नहीं पढ़ सकी
जो पढ़ा जाना चाहिए था
मन जब बहुत गीला हुआ तो एक चिट्ठी और लिख ली
ना कल गुजर ना आज गया |
बच जाती झंझावातों से गर मोह का पहरा ना होता
ना वो होता ना ये होता जीवन अपना गुजरा होता |
सवाल अभी भी है-- किसे लिखी गई ये चिट्ठीयां ??
शायद अपनी आत्मा को उसका पता नहीं पता
इसलिए डाकखाने नहीं जा सकी ये चिट्ठीयां
नहीं जा सकी ये चिट्ठीयां ||
शकुन्तला मिश्रा