मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

भ्रम

                                           

फिर विकल मन 
चित्र् लिखित सा 
ठहरा हुआ सा!
आज फिरबंसी बजी है !
फिर सुना है 
आयेंगे वो 
आज फिर यह भ्रम हुआ है !
हैं अकेले भीड़ में भी 
हादसा यह मेरे संग हरदम हुआ है !
फिर सुना है,
फिर बजी है
 बांसुरी !

30/10/12

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

जूता चलता है

पिछले दिनों देश में जूताफेंकने को लेकर खूब हंगामा काटा गया! हमारे नेताओं ने कहा जूता फेंकना
लोकतंत्रीयव्यवस्था नहीं है !
उद्दंडता हमारी संस्कृति में नहीं है - सही है !
पर घोटाला करना, घूस लेना, गरीबों का हिस्सा खुद ले लेना, भ्रष्ट आचरण करना फिर सफाई देना, ईमानदार को जितना हो सके परेशान करना ताकि वह पोल न खोले! यह सब भी हमारी संस्कृति में नहीं है !

सत्य कहना अब बड़ा जोखिम भरा है!
इमानदार अब अपनी जान गँवाते है!
जूते  पैरों में रहतें है, साथ चलते हैं!
जब पहन न सको तो जूते मचलते हैं!
जब जीवन चलना हो मुश्किल!
कदम-कदम  पर हो मुश्किल !
अधिकार  हो मंत्री हाथो में !
कर्तव्य  हो जनता हाथो में !
जब भ्रष्ट आचरण  'मन्त्र 'बने !
जब घोटाला 'अधिकार 'बने ! 
जब  'निष्ठावान ' कलंक लगे !
जब  भूखी जनता मरने लगे !
तब जूता खुद चल पड़ता है !
जब जूता 'खुद 'चल पड़ता है !
तब 'हिन्दुस्तान 'तड़पता है !
                              

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

अर्ध्य

रुको  श्वांस !भर अर्ध्य नयन का !
सूरज को यह फूल  जवा  का !
दे तो दूं मैं !
इक अमोघ अनिवार्य दान भी 
ले तो लूं मैं !
जो जिया; गया /जो किया; गया 
इस  लोकालय  में !
सब विस्मय आह 
मिटा तो लूं मैं
इस पावन क्षण में, पल भर अर्ध्य
चढ़ा तो लूं मैं !
जी लूं मैं संकल्प जगत में
यह आशीष  जगत कर्ता से
पा तो लूं मैं !
अनसुनी आह ,सूना अंतः ,गुजरी बातें
सब कह तो दूं मैं !
तिमिर रात्रि आने से पहले
भोर का वादा
कर तो लूं मैं !
स्वच्छ ह्रदय से सुमनांजलि दे
अपने पिय को
रिझा तो लूं मैं !
कुंदन भरे प्रभा मंडल से
अपनी झोली
भर तो लूं मैं !







गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

नायक

                                   नायक 

जीवन का रहस्य !
कृष्ण भी नहीं समझ सके 
कि क्या होगा आगे !
नियति के आगे झुकना पड़ा !
बहुत चाहा पर युद्ध नहीं रुका !
कहा -'अर्जुन सुन '
तू केवल कर्म को कर !
अपने धर्म को समझ 
इसे धारण कर !
दार्शनिकों ने  जीवन को 
नाटक कहा !
विद्वानों ने इसे - कर्म कहा !
गुरु  रवीन्द्र  ने इसे- स्वप्न कहा !
हम पढ़ सके सिर्फ उसे ही -
जो गुजर गया !
जो बीत गया उसका विश्लेषण किया !
भविष्य में बचा केवल 
कल्पना ,सोच ,विचार, संशय ,आशा -निराशा 
और परियोजना !
क्या सच होगा ,क्या ठीक है -नहीं जानते !
इस रंग मंच पर अभिनय करना ही होता है !
हम खुद ही इसके पात्र और रचनाकार हैं !
नायक होंगे या खलनायक
यह बुद्धि के निर्णय पर है!
परिणाम भी अज्ञात होता है !
पर परिष्कृत कर्म ,धर्म और  नियम
विनय देता है !
 सफल बनाता है !












बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

परित्राण

                                

छोटी सी है !
पर मेरी एक कहानी है !
खुद के होने को भूल गयी !
जख्मों का मान बढ़ाती गयी !
हर शाम रौशनी दीपक की ,
लगती है अधरों में लटकी !
हर रोज सुबह का सूरज ,
एक दर्द का पाठ  पढाता है !
खुशियों को बचा के रखा था !
दुनिया से छुपा के रखा था !
पर यह तो ठहरी चंचला ,
बोली तू रुक अब मैं चला !
हर रोज धैर्य ,साह्स ,आशा ,
इन सब को संजो कर रखती हूँ !
हर रोज सरकती सांसे ,
सहमी ,चौकन्नी ,दर्द भरी !
मैं खुद के सपनो से हारी !
नकली नाते ,खाली बातें !
पाथर पुतुल ,मनहीन लोग !
कब होगी मेरी सुबह सहज ?
कब खुशियां आएँगी आँगन ?
कब मंजिल मुझको चाहेगी ?
कब आशा मुझसे बोलेगी ?
उठ !  होगा तेरा परित्राण !!