शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - ११ एवं विराम।

स्कन्ध-१२/अध्याय-१३


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब पृथ्वी देखती है कि ये राजा लोग मुझे जीतना चाहते हैं, मुझ पर राज करना चाहते हैं, तो वह हँसती है। राजा जब एक द्वीप पर विजय पा लेता है तो वह दूसरे द्वीप पर विजय पाने के लिए अधिक शक्ति और उत्साह के साथ आक्रमण करता है। सोचता है, धीरे-धीरे क्रम से यह सारी पृथ्वी मेरे हो जाएगी, मैं उस पर राज करूँगा। उन्हें यह ध्यान नही रहता कि सिर पर काल सवार है। परीक्षित, पृथ्वी कहती है कि ये बड़े-बड़े वीर मुझे ज्यों की त्यों छोड़ कर, जहाँ से आए थे, खाली हाथ वहीँ लौट गए, मुझे साथ न ले जा सके। ये मूर्ख राजा जब यह जान लेते हैं की यह पृथ्वी मेरी है, तो उनके राज में "मेरे लिए" उनके भाई, बंधु, पिता, पुत्र सब आपस में लड़ने लगते हैं और कहते हैं- मेरी है, मेरी है। लड़ते हुए मर जाते हैं।


परीक्षित, लोक में अपने यश का विस्तार करना चाहिए। तुममें ज्ञान पूर्ण वैराग्य आए, इसलिए यह कथा सुनाई है। यह वाणी विलास है। भगवान् श्री कृष्ण का गुणानुवाद और उनके चरणों में अनन्य प्रेम ही सत्य है। परीक्षित श्री शुकदेव जी से पूछते हैं- भगवन! कलियुग तो दोषों का खजाना है, लोग किस उपाय से दोषों का नाश कर सकेंगे।


श्री शुक देव जी ने कहा- परीक्षित! सतयुग में धर्म के चार चरण होते हैं- सत्य, दया, दान और तप। सत्य युग में लोग बड़े संतोषी और दयालु होते हैं, शांत रहते हैं, और सबसे मित्रवत व्यवहार करते हैं। निष्ठा के साथ धर्म का पालन करते हैं, धर्म स्वयं भगवान् का स्वरूप है। परीक्षित, जिस तरह धर्म के चार चरण होते हैं, उसी तरह अधर्म के भी चार चरण हैं- असत्य, हिंसा, असंतोष और कलह। त्रेतायुग में इनके प्रभाव से धीरे-धीरे धर्म के चारों चरणों का चतुर्थांश क्षीण हो गया। ब्राम्हणों की प्रधानता घटी, हिंसा बढ़ी। लोग सत्य को छोड़ कर अर्थ, धर्म और काम को मानने लगे। द्वापरयुग में हिंसा, असंतोष, झूठ, द्वेष आदि की वृद्धि हुई। तप, सत्य, दया और दान आधा हो जाता है, कुटुंब बड़े होंगे, लोग कर्म कांडी होगे। उस समय ब्राम्हण और क्षत्रिय दो वर्णों की प्रधानता होगी।


कलियुग में असत्य, हिंसा, असंतोष और कलह बढ़ जाता है। अधर्म बढ़ता है, धीरे-धीरे धर्म क्षीण हो जाता है, धर्म का चतुर्थांश ही बचता है। लोग लोभी, दुराचारी और झूठे होते हैं। सभी प्राणियों में तीन गुण होते हैं- सत्व, रज और तम्। काल की प्रेरणा से समय-समय पर शरीर, प्राण और मन में उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है। जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियां सत्वगुणी होकर कार्य कर रही हों, उस समय सतयुग समझना चाहिए। जब सत्वगुण प्रधान होता है तो मनुष्य ज्ञान और तप से अधिक प्रेम करता है। (इस तरह हम आज भी सतयुग में जी सकते है) जिस समय मानव प्रवृत्ति अर्थ, काम और सुख चाहती है, समझना चाहिए वह त्रेतायुग में है। जब लोभ, असंतोष, अभिमान, दंभ का बोलबाला हो तो समझो अब द्वापरयुग में हो। रजोगुण और तमोगुण का मिश्रण ही द्वापरयुग है। कलियुग वह है, जब झूठ, कपट, हिंसा, विवाद, शोक, भय, आलस्य की प्रधानता हो। जो समय तमोगुण प्रधान होगा, वह क्षुद्र दृष्टी वाला होगा।

परीक्षित, अधिकाँश लोग होते तो निर्धन हैं, पर खाते बहुत हैं। भाग्य बहुत मंद होता है, पर बातें और कामनाएं बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं। कलियुग की स्त्रियाँ कलह प्रिय होंगी, कुलटा और मर्यादा को भंग करने वाली होंगी, उनके संतानें बहुत होंगी, कद में छोटी होंगी पर भूख ज्यादा होगी, दुस्साहसी होंगी। कलियुग में लुटेरों की संख्या अधिक होगी, पाखंडी लोग वेदों का तात्पर्य मनमाने ढंग से करेंगे। गृहस्थ संन्यासी का अपमान करेगा, संन्यासी लोभी और धन संग्रह में रहेगा। सेवक अपने स्वामी को धोखा देगा। प्रेम का अर्थ केवल वासना तृप्ति तक होगा। प्रिय परीक्षित, कलियुग में तो वस्त्र, रोटी और दो हाथ जमीं से भी वंचित होंगे लोग। रिश्तों की उपेक्षा होगी। पाखंडियों के कारण लोग धर्म से भी विमुख हो जाएंगे क्योंकि ये लोग चित्त को भ्रमित कर देते हैं और लोग धर्म का मजाक बना लेते हैं। पाखंडियों के कारण ही धर्म अशुद्ध होगा।

परीक्षित, कलियुग में अनेक दोष हैं पर एक बड़ा गुण भी है। इस युग में जाने-अनजाने जो भी प्रभु नाम जप करेगा वो प्रभु का प्रिय होगा। सब दोषों का मूल स्रोत, अन्तःकरण में जब भगवान् विराजते हैं, तो नष्ट हो जाता है। हजारों जन्मों के पाप क्षण में भस्म हो जाते हैं, ह्रदय में स्थित भगवान् विष्णु अशुभ संस्कारों को सदा के लिए मिटा देते हैं। हर प्रकार की शुद्धि का एक ही उपाय है- भगवान् की सेवा।


श्री शुक देव जी कहते हैं- परीक्षित! करण की सारी वृत्तियों से भगवान् श्री कृष्ण को अपने ह्रदय सिंहासन पर बिठाओ, तुम्हे अवश्य ही परम गति की प्राप्ति होगी। सर्वात्मा भगवान अपना ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में मिला लेते हैं। कलियुग दोषयुक्त होकर भी एक गुण से युक्त है कि- भगवान् श्री कृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही आसक्तियां छूट जातीं हैं और परमात्मा की प्राप्ति होती है। फ़िर पूजा, आराधना, सेवा के फल का तो कहना ही क्या। ॐ तत्सत्!!!


हमने अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार भगवान् का गुणगान किया। भागवत से लिए हुए यह तीस अध्याय समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं।


हे परम परमेश्वर, इस यात्रा में सफल होने का जो संकल्प मैंने लिया है, वो आपकी कृपा से पूर्ण हो। इसलिए निवेदन है-


ॐ सर्वेश्वरेश्वराय, सर्वविघ्न विनाशिने मधुसूदनाय स्वाहा!


हम रुक्मणी जी के उस पत्र का वर्णन करेंगे जो उन्होंने अपने महल के एक ब्राम्हण के द्बारा श्री कृष्ण को भेजा था। यह सात श्लोकों में है। इसमें भगवान् के गुणों का वर्णन है, जो रुक्मणी जी ने सुना है। प्रभु के गुणों को सुनकर रुक्मणी जी उनसे प्रेम करने लगीं और प्रण किया कि- श्री कृष्ण ही मेरे पति होंगे। रुक्मणी जी का पत्र सात श्लोकों में है-
  • त्रिभुवनसुंदर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते ह्रदय में प्रवेश करके एक -एक अंग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप सौंदर्य को, जो नेत्र वाले जीवों के नेत्रों के लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थों का फल एवं स्वार्थ-परमार्थ सब कुछ है, श्रवण करके, प्यारे अच्युत, मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़ कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है।

  • प्रेमस्वरूप श्यामसुंदर! चाहे जिस दृष्टि से देखें, कुल, शील, स्वभाव, सौंदर्य, विद्या, अवस्था, धन-धान्य, सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्य लोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देख कर शान्ति का अनुभव करता है, आनंदित होता है। अब पुरूष भूषण, आप ही बताइये- ऐसी कौन सी कुलवती, महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी।

  • इसलिए प्रियतम! मैंने आपको पति रूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे ह्रदय की बात आपसे छिपी नहीं है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। कमल नयन! प्राण वल्लभ! मैं आप सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाए, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाए।

  • मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआ, वावली), इष्ट दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राम्हण और गुरु आदि की पूजा के द्बारा भगवान् परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान् श्री कृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें। शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरूष मेरा स्पर्श न कर सके।

  • प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइये और फ़िर बड़े -बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासंध की सेनाओं को मथ डालिए, तहस-नहस कर दीजिये और बल पूर्वक राक्षस विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये।

  • यदि आप यह सोचते हैं कि- तुम तो अन्तःपुर में भीतर के महलों में पहरे के अन्दर रहती हो, तुम्हारे भाई-बंधुओं को मारे बिना मैं तुम्हे कैसे ले जा सकता हूँ। तो इसका उपाय मैं आपको बतला देती हूँ। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिए एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जलूस निकलता है, जिसमें विवाही जाने वाली कन्या को, दुल्हन को, नगर के बाहर गिरिजा देवी के मन्दिर में जाना पड़ता है।

  • कमलनयन! उमापति भगवान् शंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धि के लिए आपके चरण कमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी चरण धूल नही प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूंगी। चाहे उसके लिए सैकड़ों जन्म क्यों न लेना पड़े, कभी न कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य मिलेगा।
यह सात श्लोक हर प्रकार से हमारे गृहस्थ जीवन को सुखमय बना देते हैं। इसका पाठ करना कुमारियों के लिए भी लाभ कारी होगा, उन्हें उत्तम वर की प्राप्ति होगी और भगवान् का आशीर्वाद मिलेगा।


मैंने भागवत से लिए गए कुछ सूत्र आप तक पहुंचाने का प्रयास किया है। यह जीवन को सुखी बनाने के लिए हैं-

आपकी कोई समस्या ऐसी हो जो सुलझ न रही हो और आप अपने को असमर्थ पा रहे हों, तो आप श्री विष्णु जी को घी का दीपक दे, पीत वस्त्र और पुष्प से पूजन करें, उत्तम भोग अर्पित करें, पूर्ण समर्पण के साथ। आचमन दे कर नवीन वस्त्र का आसन दें। अब तुलसी या रुद्राक्ष की माला से एक माला निम्न मन्त्र का जप करें जब तक समस्या ख़तम न हो। आपकी कामना जरुर पूरी होगे। यह गजेन्द्र मोक्ष से लिया गया मन्त्र है, इसका शीघ्र प्रभाव होता है।

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम, पुरुषायादिवीजाय परेशायाभीधीमहि।
यस्मिन्निद यत्श्चेदं येनेदं य इदं स्वयम, योस्मात परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयं भुवम्।।

अर्थ- जो जगत के मूल कारण हैं और जो सबके ह्रदय में पुरूष के रूप में विराजमान हैं, एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं। जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है, उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ। यह संसार उन्ही में स्थित है, उन्ही की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमे व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण प्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान् की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

आशा है कि भागवत रुपी मधु को आप तक पहुचाने का मेरा यह प्रयास आपको अच्छा लगा।

नारायण को नमन।

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html

भागवतांश - १०

स्कन्ध-१०/अध्याय-८७


राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा- भगवान्! जिसे ब्रम्ह कहते हैं,जो कार्य और कारण से परे है, मन और वाणी से परे है, निर्गुण है, तो श्रुतियां उसका गुणगान कैसे करतीं हैं? क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप नही होता।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सर्वशक्तिमान भगवान् जो गुणों की खान हैं, विचार करने पर तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है। मन, बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण- इनका कोई स्वरुप नहीं है, पर इनके द्बारा हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। एक बार यही प्रश्न देवर्षि नारद ने भगवान् नारायण से पूछा था जब वे मानव कल्याण के लिए बदरिका आश्रम में तपस्या कर रहे थे। ऋषियों की सभा में नारायण ने कहा- प्राचीन काल की बात है, ब्रम्हा के मानस पुत्र सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार ने उस ब्रम्ह की चर्चा की जिसका वर्णन श्रुतियां भी नही कर पातीं, उसी में सो जाती हैं। नारद, उस समय तुम श्वेत द्वीप गये थे मेरी अनिरुद्ध मूर्ति का दर्शन करने। उस ब्रम्ह चर्चा में सनक, सनातन और सनत्कुमार श्रोता बने, सनंदन वक्ता। सनंदन जी बोले -जिस प्रकार प्रात:काल सोते हुए सम्राट को जगाने के लिए बंदीजन उनके सुयश का गान करते हैं, उसी प्रकार श्रुतियां उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से प्रभु को जगाती हैं। श्रुतियां कहती हैं- हे अजित! आप सर्व श्रेष्ठ हैं, अजेय हैं, आप पूर्ण ऐश्वर्य शाली हैं। हम प्राणियों को फँसाने वाली माया का आप नाश कर दीजिये। प्रभु, इसे केवल आप ही मिटा सकते हैं। भगवान्, जब आप स्वरुप में होते हैं, तभी हम आपके गुणों का रंच मात्र वर्णन करने में समर्थ होते हैं। प्रभु, जब सबकुछ विलीन हो जाता है, तब भी आप होते हैं साक्षी रूप में, और आपसे ही फ़िर जगत की रचना होती है। हे अनंत, हम कहीं भी पैर रखें, ईंट पर, काठ पर... होगा तो पृथ्वी पर ही, क्योंकि वह पृथ्वी का ही रूप है। विवेकी पुरूष आपके गुणों के सागर में गोता लगा कर अपने पाप-ताप, राग-द्वेष, रोग-शोक को बहा देते हैं और अपना जीवन सफल कर लेते हैं। भगवान्, मनुष्य के पाँच कोष -अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, आनंदमय और विज्ञानमय, सब आपकी शक्ति से हैं, यही एक मात्र सत्य है। स्थूल दृष्टि से मणिपुर चक्र में अग्नि रूप से उपासना होती है। ह्रदय, जो सब नाड़ियों का केन्द्र है, इसमें सुषुम्ना नाड़ी ह्रदय से ब्रम्हरन्ध्र तक गई है। ह्रदय में जो आपके स्वरूप को धारण करता है, वह ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त करता है, सदैव ऊपर की ओर बढ़ता है।


श्रुतियां कहतीं हैं- उत्तम-अधम, छोटा-बड़ा सब में समभाव रखना चाहिए। परम तत्त्व का ज्ञान कराने के लिए प्रभु अवतार लेते हैं। उनकी मादक, मधुर लीला कथाएँ मोक्ष से बढ़ कर हैं। मानव जीवन पाकर जो आपको नहीं भजता, उसके लिए यह संसार भयावह है। आपका घोर शत्रु भी आपका नाम लेकर पार हो जाता है। जो आप से प्रेम सम्बन्ध जोड़ लेता है, वह दूसरों को भी पावन कर देता है। देवताओं के पूज्य ब्रम्हा जी आपकी माया के आधीन हैं। जो लोग देह, गह, स्त्री, पुत्र, धन, महल आदि के सुखों में रमे रहते हैं, उन्हें इस संसार में सुख नही मिलता। इसके विपरीत जो समस्त भोगों के बीच रहकर भी ह्रदय में आपको धारण करे, वह सौभाग्यवान होता है। आपको भजने वाला सबका प्रिय बन जाता है। प्रभु, आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, बल, वैराग्य अपरिमित है और देश तथा काल की सीमा से परे है। इस संसार के व्यापार में बुद्धि तो बेचारी बन कर रह जाती है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंह पुरुषोत्तम है, उन्ही सर्वसौन्दर्य-माधुर्य निधि प्रभु का मैं मन ही मन आश्रय ग्रहण करता हूँ, ऐसा श्रुतियां कहतीं हैं।


नारायण जी ने कहा- देवर्षि! तुम भी ब्रम्हा के मानस पुत्र हो। सनकादी ऋषियों ने जो बताया उसे धारण करो, यह विद्या मनुष्य की समस्त वासनाओ को भस्म कर देगी। शुकदेव जी परीक्षित से कहते हैं- नारद जी संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम और ब्रम्हचारी हैं, वे जो सुनते हैं, धारण कर लेते हैं। नारद जी कहते हैं-भगवान्! आप सच्चिदानंद स्वरुप श्री कृष्ण हैं, परम पवित्र कीर्ति वाले हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप धर्म को स्थापित करने और मनुष्य का कल्याण करने के लिए अवतार लेते हैं। शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित! नारद जी भगवान् को प्रणाम करके मेरे पिता श्री कृष्ण द्वैपायन के आश्रम पर गए। वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया। आसन ग्रहण कर नारद जी ने जो कुछ भगवान् के मुख से सुना वो सब मेरे पिता जी को सुना दिया और पिता के मुख से मैंने सुना और तुम्हे बता दिया कि- मन, वाणी से अगोचर, प्राकृत गुणों से रहित परब्रम्ह, परमात्मा का वर्णन श्रुतियां किस प्रकार करती हैं और उसमें मन का कैसे प्रवेश होता है। ॐ तत्सत्!!!


स्कंध-११/अध्याय-९


अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा- राजन! मानुषों को जो वस्तु प्रिय लगती है, वह उनको पाने की चेष्टा में रहता है और वही उनके दुःख का कारण बनती हैं। बुद्धिमान पुरूष इस सत्य को समझ कर मन से, शरीर से परमात्मा को याद करता है। दत्तात्रेय कहते हैं- एक कुरर पक्षी ने अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिए था, दूसरे बलवान पक्षी उसे पाने के लिए उसे चोंच मार रहे थे। पक्षी ने मांस का टुकडा फ़ेंक दिया, सब भाग गए कुरर को सुख मिल गया। अवधूत जी ने देखा- एक बालक, जिसे मान अपमान का ध्यान नही सुख-दुःख की चिंता नहीं, वह अपनी ही आत्मा में रमता है, बड़े मौज से रहता है। इस जगत में दो ही लोग मौज से रहते है, आनंद में रहते हैं- एक तो बालक दूसरे गुनातीत पुरूष। अवधूत जी ने एक कन्या से सीखा कि अकेले ही विचरण करना चाहिए। एक कन्या के घर कुछ अतिथि आए, घर के लोग बाहर गए थे इसलिए कन्या को ही उनका सत्कार करना पड़ा। वह भोजन के लिए धान कूटने लगी, उसकी कलाई की चूड़ियाँ बजने लगी। उसकी आवाज उन अतिथियों तक जाती जो मर्यादा के ख़िलाफ़ होता। उसने दो-दो चूड़ियों को छोड़ सब तोड़ दिया, पर वे भी बजने लगीं। तो उसने एक छोड़ कर एक तोड़ दी तो आवाज बंद हो गई । मैंने उससे यह सीखा कि ज्यादा लोग होते हैं तो कलह होती है, दो होते हैं तो भी बात तो होती ही है, इस लिए अकेले रहना चाहिए। बहेलिया से सीखा कि वह वाण बनाने में इतना तन्मय हो गया कि उसके पास से दल-बल के साथ राजा की सवारी निकल गई, उसे पता नहीं चला। इसी प्रकार आसन और श्वास को जीत कर मन को वश में करके लक्ष्य में लगा दो। जब यह मन परमात्मा में लग जाता है, तो विषय रूपी धूल ख़त्म हो जाती है। जैसे ईंधन के बिना अग्नि स्वत: शांत हो जाती है, उसी तरह मन शांत हो जाता है। सांप से सीखा- संन्यासी को मठ, मंडली नही बनानी चाहिए। किसी गुफा, कन्दरा में जीवन बिताना, कम बोलना, प्रमाद न करना, यह सन्यासी की जीवनशैली होनी चाहिए। मकड़ी- मैंने देखा वह बिना किसी सहायता के अपने मुख से जाल बनाती है, विचरती है उसमें, फ़िर जब चाहे निगल लेती है। भगवान् ने इसी प्रकार पूर्व कल्प में बिना किसी सहायता के अपनी माया से जगत की रचना की और जब चाहा अपने में लीन कर लिया। शून्य रूप में वे अकेले ही शेष रहे। दीमक को मैंने देखा- वह दीवार में अपने रहने की जगह को बंद कर देता है। इस प्रकार शरीर त्याग से पहले ही उसी चिंतन में बंद हो जाता है।


अवधूत जी कहते हैं- राजन!मैंने अपने शरीर से क्या सीखा, वह भी तुम्हे बताता हूँ। यह मुझे विवेक, बुद्धि, विचार और वैराग्य की शिक्षा देता है। आयु पूरी होने पर यह नष्ट हो जाता है, पर इससे चारो पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। मनुष्य शरीर दुर्लभ है, ब्रम्हा ने मनुष्य को बुद्धि से युक्त बनाया, इसकी रचना करके वे आनंदित हुए। राजन्- मेरे ह्रदय में परमज्योति जलती रहती है, मुझे जगत से वैराग्य हो गया है। ज्ञान और बुद्धि से सब कुछ पाया जा सकता है, भगवान् भी।


श्री कृष्ण ने कहा- प्रिय उद्धव! दत्तात्रेय ने मेरे पूर्वज राजा यदु को यह उपदेश दिया। यदु ने उनकी पूजा की वे प्रसन्न होकर पधार गए, राजा आसक्तियों से छुट्कारा पा गए। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-११/अध्याय-२१


भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं- प्रिय उद्धव, मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो मनुष्य क्षुद्र भोग में पड़े रहते हैं, उनके लिए यह संसार दुखों से भरा है। धर्म में निष्ठा मनुष्य का स्वाभाविक गुण है, इसमें योग्य और अयोग्य का ठीक से विचार करके धर्म का सम्पादन करना चाहिए, ताकि समाज का व्यवहार और व्यक्तिगत जीवन निर्वाह में कोई कठिनाई न हो। शास्त्र के अनुसार जीवन को चलाना चाहिए, वासना के जाल में नही उलझना चाहिए। धर्म में कपट, ढोंग नही होता। निष्पाप उद्धव! यह आचार मैंने ही मनु रूप धारण करके धर्म की जड़ता को ख़त्म करने के लिए दिया है।


उद्धव, सबका शरीर पञ्चभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) से बना है। सभी प्राणियों की आत्मा एक है, फ़िर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम इसलिए बना दिए कि ये अपने वासना को नियंत्रित करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध कर सकें। साधुश्रेष्ठ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुण दोष का विधान इसलिए किया गया है कि कर्म की मर्यादा भंग न हो। वह देश अपवित्र है जहाँ कृष्णसार मृग न हों, जहाँ के निवासी ब्राम्हण भक्त न हों, जहाँ संत न हों। समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करने योग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म हो सके। आगन्तुक दोषों या अन्य दोषों के कारण जब कर्म न हो सके, तो समझो वह समय अशुद्ध है। पदार्थों की शुद्धि जैसे- पात्र, शरीर, स्थान, वस्त्र आदि जल से शुद्ध होते हैं। किसी वस्तु की शुद्धि में शंका होने पर ब्राम्हणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है। पुष्प सूँघने से अशुद्ध हो जाता है। तुरंत का बना भोजन शुद्ध होता है। शक्ति, अशक्ति, बुद्धि, वैभव के अनुसार भी पवित्र और अपवित्र की व्यवस्था होती है। स्नान, दान, तप, संस्कार और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है।


उद्धव जी- इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म के शुद्ध होने से धर्म, और अशुद्ध होने से अधर्म होता है। उद्धव! एक ही वस्तु किसी के लिए ठीक और किसी के लिए त्याज्य है। जैसे -ब्राम्हण दूध का व्यापार करे तो अधर्म है, श्रेष्ठ अगर गलत आचरण करे तो दोष, संन्यासी अगर स्त्री संग करे तो पाप है। बात यह है की जो नीचे सोया है वह गिरेगा कहाँ? जो पहले से पतित है उसका क्या पतन होगा।उद्धव जी! मोह किसी वस्तु से है तो उसे पास रखने की कामना होती है, बाधा पड़ने पर कलह होती है, फ़िर क्रोध आता है। अत्यधिक क्रोध में हित-अहित का बोध नही रहता, मनुष्य पशु बन जाता है। अज्ञान छा जाता है और चेतना लुप्त हो जाती है, कुछ नही बचता। विषयासक्ति आत्मोन्नति में बाधक है। जो लोग इन्द्रियों की तृप्ति के लिए भजन का ढोंग करते हैं, वे मुझे नही जान पाते। उद्धव जी! वेद शब्द ब्रम्ह है, वे मेरी मूर्ति हैं, इसलिए उनका रहस्य समझना कठिन है। वह पारा, पश्यन्ति और माध्यम के रूप में प्राण, मन और इन्द्रिय है, यह अथाह है। जैमिनी आदि बड़े मुनि भी नही समझ पाते। मैं अनंत शक्ति संपन्न, परब्रम्ह हूँ। मैंने ही वेदों का विस्तार किया है। सभी श्रुतियां कर्मकांड में मेरा ही विधान करती हैं और अंत में मुझमे ही समा जाती हैं। अधिष्ठान रूप में मैं ही शेष रहता हूँ। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१२/अध्याय-२


इस अध्याय में कलियुग में होने वाले कर्मो का विवरण है। आज से कई हजार वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था की कलियुग कैसा होगा, और आज वही देखने को मिल रहा है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! ज्यों-ज्यों कलियुग आएगा त्यों-त्यों धीरे -धीरे धर्म, कर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरण शक्ति का लोप होता जाएगा। कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन और सदाचारी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी, वह न्याय और धर्म की व्यवस्था अपने अनुकूल कराने में सक्षम होगा। सत्य और ईमान को सिद्ध करना होगा। जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहार कुशल माना जाएगा। ब्राम्हण की पहचान उसके गुण व स्वभाव से नहीं, यज्ञोपवीत से होगी। संन्यासी गेरुआ वस्त्र, दंड और कमंडल से पहचाने जायेंगे। जो घूस नहीं देगा, उसे अदालत में न्याय नही मिल सकेगा। जो बोल-चाल में धूर्त और चालक होगा, वह पंडित और बुद्धिमान माना जाएगा। गरीब होना असाधुता होगी, पाखंडी पंडित बनेंगे, शास्त्रीय विधि विधान और संस्कार की आवश्यकता नही समझी जाएगी। दूर के तालाब को तीर्थ कहा जाएगा और पास के तीर्थ की उपेक्षा होगी। जो जितनी ढिठाई से बात करेगा, उसे उतना ही सच माना जाएगा। धर्म का सेवन लोग यश प्राप्त करने के लिए करेंगे। राजा नीच, निर्दयी और लोभी होगा, प्रजा में भय व्याप्त रहेगा। प्रकृति अपना संतुलन नही रख पाएगी। मनुष्य रोगी होगा, नाना प्रकार के कुकर्म करेगा, अपराध करेगा। संन्यासी में वैराग्य नही रहेगा, वह गृहस्थों की तरह साधन जुटाएगा और उन्हें की तरह व्यापार करेगा। धान, गेहूँ, यव के पौधे छोटे होंगे तथा उपज कम होगी। परीक्षित! कलि युग के अंत में मनुष्य का व्यवहार दुसह बन जायगा, ऐसी स्थिति में भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे।


शुकदेव जी बोले- प्रिय परीक्षित! सज्जन पुरुषों की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए भगवान् अवतार लेते हैं। सर्वशक्तिमान प्रभु कलियुग में शंभल ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राम्हण होंगे जो भगवत भक्ति से परिपूर्ण होंगे। उनके घर "कल्कि" भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़े पर सवार हो कर पूरी पृथ्वी का विचरण करेंगे और कोटि-कोटि दुष्टों को मारेंगे। प्रजा फ़िर से पवित्र आचरण करेगी और उसकी संतान बलवान और दीर्घायु होगी। उस समय सत्य युग का प्रारम्भ होगा, भगवान् वासुदेव फ़िर सबके ह्रदय में वास करेंगे। जिस समय चंद्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्र के प्रथम पल में प्रवेश करते हैं, एक राशि पर आते हैं उसी समय सत्य युग का प्रारम्भ होता है। सर्वशक्तिमान भगवान् श्री कृष्ण जब अपनी लीला का संवरण कर परम धाम पधारे, उसी समय कलियुग ने इस संसार में प्रवेश किया। इसी कारण मनुष्य की गति-मति दोनों पाप की हो गई। जब तक लक्ष्मी पति भगवान् विष्णु अपने चरण कमलों से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे, तब तक कलियुग इस पृथ्वी पर अपने रहने के स्थान की खोज में भटकता रहा, अपना पैर न जमा सका। जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर विचरण करते हैं, उसी समय कलि का प्रारम्भ होता है। कलियुग की आयु मनुष्य गणना के अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्ष है। प्रिय परीक्षित, जिस नरपति ने अपने बल पौरुष से पृथ्वी को जीता और राज किया अब केवल उनकी कहानियाँ ही शेष रह गई हैं । इसलिए किसी को सताना अपने नर्क का द्वार खोलना है। ॐ तत्सत्!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_7780.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_1611.html

भागवतांश - ९

स्कन्ध -१०/अध्याय-५४


शिशुपाल के साथी राजाओं और रुक्मी की हार तथा श्री कृष्ण-रुक्मणी विवाह।



श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवन की माया के समान ही मोहित कर देने वाली रुक्मणी जी के अपूर्व सौंदर्य को देख बड़े-बड़े यशस्वी वीर मोहित हो गए। रुक्मणी जी उत्सव यात्रा के बहाने मंद-मंद गति से चलकर भगवान् श्री कृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा करती हुई बहुत धीरे धीरे आगे बढ़ रही थीं, तभी उन्हें श्री कृष्ण के दर्शन हुए। भगवान् ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते रुक्मणी जी को रथ पर बैठा लिया, जिस पर गरुण जी का ध्वज लगा था। भगवान् रुक्मणी जी को ले कर यदुवंशियों के साथ चले, सारे राजा देखते रहे। "हमें धिक्कार है", यह कहते हुए क्रोध से आग बबूला होकर सेना सहित राजा लोग धनुष लेकर भगवान् के पीछे दौड़े।


परीक्षित कहते हैं- राजन! जब यदुवंशियों ने देखा की शत्रु दल हम पर चढ़ा आ रहा है, तो उन लोगों ने पलट कर युद्ध किया और देखते -देखते जरासंध की सारी सेना को भगवान् ने तहस-नहस कर दिया। उनके वाणों से रथ, घोड़े, हाथी, गदा और शत्रुओं के सिर कट कट कर गिरने लगे। जरा संध और बचे हुए राजा पीठ दिखा कर भागे। शिशुपाल भी अपनी भावी पत्नी के छीन लिए जाने के कारण बहुत दुखी था। जरासंध ने उसे समझाया- शिशुपाल उदासी छोड़ दो, अनुकूलता और प्रतिकूलता स्थिर नही रहती। यह जीवन भगवान् की इच्छा के अनुसार चलता है। मुझे देखो- श्री कृष्ण ने मुझे सत्रह बार हराया है, मैं केवल एक बार उनको हरा पाया- अठारहवी बार। फ़िर भी मैं शोक नही करता। मैं जानता हूँ- काल ही इस जगत को चलने वाला है आज यदुवंशियों की थोडी सी सेना ने हमें हरा दिया। आज काल उनके अनुकूल है। इस प्रकार सांत्वना पाकर बचे हुए राजा अपने-अपने नगर को चले गए। पर रुक्मणी जी का भाई रुक्मी, जो श्री कृष्ण से बहुत द्वेष रखता था, वह नही चाहता था कि श्री कृष्ण इस प्रकार उसकी बहन को हरण कर ले जाएँ।


शुकदेव जी कहते हैं- रुक्मी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई वह भगवान् को नही जानता था। बोला- आज मैं तुझे यही सुला दूंगा। अगर मैं तुझे न मार सका तो लौट कर अपने राज्य कुन्दीनपुर नही जाऊँगा। भगवान् मुस्कराए और उसके सारे अस्त्र-शस्त्र, रथ, शूल आदि को तिल-तिल काट डाला। फिर भी वह नही माना। जब रुक्मणी जी ने देखा कि अब तो श्री कृष्ण उनके भाई को मार ही डालना चाहते हैं, तो वे श्री कृष्ण जी के चरणों में गिर कर बोली- हे देवताओं के आराध्य! जगत्पते योगेश्वर! आप परम बलवान हैं और कल्याण स्वरूप भी, प्रभो मेरे भाई को मारना आपके योग्य काम नही है।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- रुक्मणी जी भय के कारण थर-थर काँप रही थी, उनको देख कर भगवान् करुणा से द्रवित हो गए, रुक्मी को छोड़ दिया। पर रुक्मी अब भी अनिष्ट की चेष्टा करता रहा। भगवान् ने उसी के दुपट्टे से उसे बाँध कर उसकी दाढ़ी-मूंछ और केशों को मुंड कर छोड़ दिया, पर बलराम जी ने उसका बंधन खोल दिया और श्री कृष्ण से बोले यह व्यवहार उचित नही है। रुक्मी का तेज नष्ट हो चुका था, वह अपनी प्रतिज्ञा अनुसार अपनी राजधानी भी नही गया। वहीँ पर "भोज कट" नाम की एक बहुत बड़ी नगरी बसाई और क्रोध वश वहीँ रहने लगा। भगवान् रुक्मणी जी को लेकर बलराम और सेना के साथ द्वारिका आए। विधि पूर्वक रुक्मणी जी के साथ भगवान् का विवाह हुआ। घर घर उत्सव मनाया जाने लगा। अनेक नर पति आमंत्रित किए गए। द्वरिका नगरी को दुल्हन की तरह सजाया गया। केले और सुपारी के पौधे रोपे गए। कुरु, कैकेय, विदर्भ, यदु और कुंती के वंशो के लोग आनंद मना रहे थे। रुक्मणी हरण और विवाह की गाथा के गीत गाए गए। नगर वासी परमानन्द में डूबे थे। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय-६५


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! श्री बलराम जी के मन में नन्द-यशोदा और ब्रजवासियों से मिलने की बड़ी इच्छा थी। वे ब्रज आए, माँ बाबा से मिले, नन्द ने प्रेमाश्रुओं से भिगो दिया। गोप-गोपियों से मिले, खूब हँस कर मीठी बातें की। इन ग्वालों ने कृष्ण के वियोग में समस्त भोगों को त्याग दिया था। वे बार-बार बलराम से कृष्ण के बारे में पूछते- अब तो वे बाल बच्चे वाले हो गए हैं, क्या उनको हमारी याद आती है? आप दोनों ने पापी कंस को मार डाला, यह बड़े सौभाग्य की बात है। हमारे सखा तो अब किले में रहते हैं। बलराम जी के दर्शन कर गोपियाँ निहाल हो गईं।


वे पूछ रहीं हैं- हमारे प्राण सखा कुशल से हैं न? क्या वे अपनी माँ के दर्शन को आयेंगे? उनको कभी हमारी याद आती है? हम चाहतीं तो उनको रोक लेतीं, पर जब वे कहते हम तो तुम्हारे हैं, तुम्हारे उपकार का बदला हम नही चुका सकते। तब ऐसी कौन स्त्री है जो उनको रोकती, पर वे हमें छोड़ गए। एक गोपी बोली- हम तो गाँव की गँवार हैं जो उनकी मीठी बातों में आ गईं, पर नगर की स्रियाँ भी उनकी मोहक मुस्कान और प्रेम भरी चितवन पर अपने प्राण न्योछावर करती होंगी। दूसरी गोपी बोली- अरे सखी, वह बड़ा निष्ठुर है, हमारा जीवन अब विरह में ही कटेगा। इस प्रकार श्री कृष्ण के ध्यान में गोपियाँ तन्मय हो कर रोने लगी। बलराम भी बातें करने में निपूर्ण थे। वे गोपियों को मन भावन लुभावना संदेश श्री कृष्ण की तरफ से दे रहे थे और कृष्ण प्रेम में वृद्धि कर रहे थे। वे दो मास ब्रज में रहे। यमुना का तट, शीतल और सुगंध भरी वायु, पूर्णिमा की रात्रि,a बलराम गोपियों संग विहार कर रहे हैं, आनंदित हैं। गले में वैजयंती की माला, कानों में कुंडल चमक रहा है। बलराम जी ने जल क्रीड़ा करने के लिए यमुना जी को पुकारा, वे नहीं आईं, तब बलराम जी ने क्रोध से अपने हल की नोक से उनको खींचा। बोले, तू मेरा तिरस्कार कर रही है, मैं तेरे सौ टुकड़े कर देता हूँ। यमुना जी भयभीत हो कर बलराम के चरणों में गिर पडीं। बोलीं- हे महाबाहो! मैं आपके पराक्रम को जान गई, आप शेष जी के अंश से सारे जगत को धारण करते हैं। भगवन्! आप परम ऐश्वार्यशाली हैं। अनजाने में मुझसे अपराध हुआ, मुझे क्षमा कर दें, मैं आपकी शरण में हूँ। यमुना जी की प्रार्थना से बलराम खुश हो गये। गोपियों के साथ जल विहार करके जब वे बाहर आए तो लक्ष्मी जी ने उनको सुंदर आभूषण उपहार में दिया। यमुना जी आज भी बलराम जी के खींचे हुए मार्ग से बहती हैं। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय- ७८


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! श्री कृष्ण ने बहुत से अत्त्याचारी राजाओं का वध किया जो किसी और से नही हो सकता। शिशुपाल, शाल्व,पौन्द्र को मारा तो दन्तवक्त्र युद्ध भूमि में आया। बोला- कृष्ण, मैं तुम्हे मारना नहीं चाहता, तुम मेरे मामा के लड़के हो। पर तुम मुझे मारना चाहते हो, इसलिए मैं तुमको मारूँगा। उसने घमंड में चूर भगवान् पर गदा से वार किया। प्रभु तनिक न हिले, अपनी कौमोदकी गदा से उसके वक्षस्थल पर प्रहार किया, दन्तवक्त्र खून की उल्टियाँ करता गिरा, मर गया। अब उसका भाई विदुरथ आया। भगवान् ने किरीट सहित उसका सिर चक्र से काट दिया। तब भगवान् ने द्वारिका में प्रवेश किया।


भगवान् के स्वागत में द्वारिका खूब सजी थी। देवता पुष्पवर्षा कर रहे थे। सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, किन्नर उनका जय गान कर रहे थे। चहुँ ओर आनंद छाया था। एकबार बलराम जी ने सुना कि कौरव और पांडव युद्ध की तैयारी कर रहे हैं, तो वे तीर्थ के बहाने द्वारिका से चले गए। वे किसी का पक्ष लेना नहीं चाहते थे। पहले वे प्रभास क्षेत्र में गए, स्नान, दान और तर्पण किया। फिर वे पृथूदक, विन्दुसर सुदर्शन, विशाल, ब्रम्हा तीर्थ, चक्र तीर्थ से नैमिषारण्य गये। वहाँ दीर्घ कालिक सत्संग चल रहा था, बलराम जी के पहुँचने पर संतों ने उनका स्वागत किया, पर व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यास पीठ से नही उठे। यह देख कर बलराम को क्रोध आया बोले यह सूत जाति का है, इसलिए यह व्यास पीठ पर नही बैठ सकता। दूसरे यह विनयी नहीं है, यह धर्म का स्वांग रचता है, संयमी नही है, यह मृत्यु का पात्र है। इतना कह कर कुश की नोक से उन पर प्रहार किया, वे तुंरत मर गए। अब ऋषियों में हाहाकार मच गया। बोले-हमने ही सूत जी को व्यास गद्दी पर बिठाया था, प्रभु आपने अधर्म किया। बलराम जी बोले -मैं लोक शिक्षा के लिए इस ब्रम्ह हत्या का प्रायश्चित करूँगा, आप विधान बताएं। रोमहर्षण के स्थान पर उनके पुत्र को व्यास गद्दी पर नियुक्त किया। बलराम जी ने अपनी शक्ति से उसे दीर्घ आयु और बल दिया। ऋषियों से कहा- आपकी कोई कामना हो तो बताइये। ऋषियों ने कहा- वल्वल नाम का एक राक्षस जो यज्ञ शाला को दूषित कर देता है; मांस, मदिरा, विष्ठा और खून की वर्ष करता है, हम सब उससे दुखी हैं। बलराम जी ने वल्वल को मार डाला, ऋषि प्रसन्न हुए। वहाँ से चलकर बलराम जी ने भारत वर्ष के सभी तीर्थ क्षेत्रों का भ्रमण किया। ॐ तत्सत्!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9737.html

भागवतांश - ८

स्कंध-१०/अध्याय-६


शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! नन्द ने मथुरा को छोड़ दिया क्योंकि वहाँ बहुत प्रकार के उत्पात हो रहे थे। वे अब ग्वाल बालो के साथ गोकुल में रहने लगे। कंस के द्बारा भेजी गई पूतना, जो बच्चों को खोज-खोज कर मार डालती थी, एक दिन वह सुंदर नारी का वेश बना कर गोकुल में आई। गोपियों ने उसके रूप और वेश को देख कर उसे कुलीन मान कर आदर किया। वह अनायास नन्द महल में चली आई। सोये हुए बाल कृष्ण को गोद में उठा लिया। माता देखती रही, रोक न सकी। पूतना भगवान् को दूध पिलाने लगी। वह अपने स्तन में विष लगा कर आई थी। भगवान् को क्रोध आया, वे दूध के साथ उसके प्राण भी पीने लगे। वह छटपटाने लगी, उसके प्राण निकल गए। उसका राक्षसी वेश प्रकट हो गया। एक भयंकर गर्जना के साथ वह भूमि पर गिर पड़ी। उसका रूप डरावना था, बाल कृष्ण उसकी छाती पर खेल रहे थे। ब्रजवासी घबराए हुए आए। माता ने दौड़ कर श्री कृष्ण को ले लिया। अनिष्ट से बचाने के लिए गाय की पूँछ का स्पर्श कराया, गो-धूलि लगया और बोलीं- अजन्मा भगवान् पैरों की, मणिमान घुटनों की, यज्ञ पुरूष जांघों की, अच्युत कमर की, हयग्रीव पेट की, केशव ह्रदय की, ईश वक्षस्थल की, सूर्य कंठ की, विष्णु भुजा की, इश्वर सिर की, भगवान् परम पुरूष तेरी सब ओर से रक्षा करें। ऋषिकेश भगवान् इन्द्रियों की और नारायण तेरे प्राणों की रक्षा करे। योगेश्वर मन की, परमात्मा अहंकार की रक्षा करें।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सब भगवान् के प्रेम पाश में बंधे हैं। माता ने दूध पिलाया, भगवान् को पालने में सुला दिया। इधर नन्द बाबा मथुरा से लौटे तो सब कुछ जाना। पूतना के भयंकर शरीर को देख कर चकित रह गए। उसे नगर से बाहर ले जाकर जला दिया। ब्रजवासियों को जलने पर उसके शरीर से खुशबू आ रही थी क्योंकि उसे भगवान् का स्पर्श मिल गया था। वह भगवान् को दूध पिलाने आई थी, इसलिए परम दयालु प्रभु ने उसे परम गति दी। मृत्यु के मुख से बचे अपने लाला को पाकर नन्द और यशोदा बहुत आनंद मना रहे थे। गोपियाँ मंगल गा रही थीं और गोप नाच रहे थे। ॐ तत्सत!!!




स्कन्ध-१०/अध्याय-१७



यह "कालिय"नाम के विषधर की कथा है। कालिय नाग की माँ कद्रू और गरुण जी की माँ विनता में परस्पर वैर था। इसके कारण गरुण जी को जो सर्प मिलता वे खा जाते। व्याकुल हो सब सर्प ब्रम्हा जी के पास गए। ब्रम्हा जी ने कहा- प्रत्येक अमावस्या को बारी बारी से एक सर्प परिवार गरुण जी को एक सर्प की बलि देगा। एक निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुण जी को अमावस्या के दिन बलि दी जाती। कद्रू पुत्र कालिय को विष के बल का घमंड था। वह गरुण का तिरस्कार करके बलि देने के बजाय दूसरे सर्प जो बलि देते उसे भी खा जाता।


परीक्षित जी बोले- परीक्षित! भगवान् के प्यारे पार्षद, शक्तिशाली गरुण जी को जब यह बात पता चली तो वे कालिय को मारने के लिए टूट पड़े। कालिय ने गरुण जी को दंश लिया और यमुना जी में छिप गया। एक दिन भूख से व्याकुल गरुण जी ने मत्स्यराज को खा लिया, मछलियाँ बहुत दुखी हुईं। मुनि सौभारी ने गरुण जी को शाप दिया कि- "फ़िर कभी मछलियों को खाओगे तो प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा" यह बात कालिय जान गया, वह निर्भय हो कर यमुना में रहने लगा। यमुना जी के तट पर भगवान् गायों को चराते और ग्वालों के साथ अनेक क्रीड़ाएं करते। यमुना जी में एक स्थान, जहाँ नाग का विष हरदम उबलता रहता था, भगवान् ने देखा कि वहाँ यमुना जी का जल विषैला हो रहा है। तब भगवान् यमुना जी में कूद गए। कालिय ने देखा कि एक सुंदर, कोमल, सलोना बालक विषैले जलकुंड में क्रीड़ा कर रहा है। वह चकित रह गया। उसने भगवान् को नाथ लिया, भगवान् ने अपना आकर बढाया और कूद कर कालिय के फन पर चढ़ गए और तांडव करने लगे। उसके फनों को कुचल दिया, रक्त की धारा बह चली, उसका अंग अंग चूर हो गया, मूर्छा आ गई। अब उसे नारायण की याद आई, विनीत हुआ- मुझ पर कृपा करें। नाग पत्नियाँ भी स्तुति करने लगी। श्री कृष्ण ने कहा- सर्प, तू यहाँ से चला जा। तू गरुण के डर से यहाँ रह रहा है, वे अब तुझे नही मारेंगे क्योंकि अब तुम्हारे शरीर पर मेरे चरण चिन्ह पड़ गये हैं। नाग ने भगवान् की पूजा की और रमणीक द्वीप पर चला गया। यमुना जी का जल निर्मल हो गया,k ब्रजवासी आनंदित हुए। उस रात सब लोग यमुना के तट पर सोये। अर्ध रात्री को अचानक वन में आग लग गयी। ब्रजवासी आग में घिरे प्रार्थना कर रहे थे- हे भगवान् मुझे बचाओ। भगवान् उस आग को पी गये। नन्द-यशोदा, सब कुशल है, देख कर हर्षित हुए। सबने प्रार्थना की- हे अनंत, हम आपकी शरण में हैं। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय-३०


यमुना के किनारे कुमुदनी की सुवासित वायु आनंद को बढ़ा रही थी। शीतल चांदनी पूर्णिमा की छटा, भगवान् वैजन्ती की माला पहने गोपियों को प्रेम की सीमा तक ले गये। सबको मान हो गया कि भगवान् तो केवल मेरे हैं। इसी बीच प्रभु अंतर्धान हो गये।


शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! गोपियों का ह्रदय विरह ज्वाला से जलने लगा। वे वृक्षों, लताओं, हिरनों और पक्षियों से कृष्ण का पता पूछ रही हैं। उनकी गजराज की चाल, तिरछी चितवन, प्रेम भरी मुस्कान, वल्गुवाक्य जो गोपियों के मन को हर लेते हैं। गोपियों के संग बीते पलों के साक्षी कुंजो से, पीपल, पाकर, बरगद से पूछती हैं- तुमने मेरे श्याम को देखा? अशोक, नागकेसर, पुन्नाग और चम्पा, क्या तुमने श्याम सुंदर को देखा जिनकी मुस्कान मुनियों के मन को हर लेती है? तुलसी, तुम तो सबका कल्याण करती हो, भगवान् तुमसे और तुम उनसे बहुत प्रेम करती हो, तुम्हारी माला वे कभी नही उतारते, क्या तुमने देखा? प्यारी मालती, जूही. मल्लिके क्या कृष्ण इधर आए थे?


रसाल, प्रियाल, कटहल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसरी, आम, कदम्ब और नीम, तुम तो उपकार करते हो, बताओ हमारे प्रियतम किधर गये? उनके बिना हमारा जीवन सूना हो गया है। लताओं, तुमने देखा है? उनके अंग अंग से सौन्दर्य की धारा बहती है। इस प्रकार कातर हो कर गोपियाँ कृष्ण को खोज रही हैं। उनकी एक एक लीला को याद कर रही हैं। कोई गोपी कृष्ण का वेश बनाती है, कोई उनकी तरह चलती है, कोई कालिय नाग बनती है तो दूसरी सिर पर चढ़ कर कहती है- रे सर्प, तू यहाँ से चला जा। भगवान् को खोजते हुए एक स्थान पर गोपियों ने चरण चिन्ह देखा। बोली, ये चरण नन्द-नंदन के हैं। इसमें ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश और यव के चिन्ह हैं। आगे गईं तो एक गोपी के चरण चिन्ह भी दिखे, व्याकुल हो गईं की ये किस के चिन्ह है जिसे भगवान् का संग मिल गया। वह अवश्य श्री कृष्ण की आराधिका होगी। खोजते हुए आगे बढ़ी तो राधा विलाप करती हुई मिली। बताया -भगवान् मुझे यहाँ ले आए, मैंने समझा मैं ही श्रेष्ठ हूँ। मतवाली हो गई, कुछ देर में बोली, भगवान् मुझसे अब नही चला जा रहा। मुझे अपने कंधे पर बिठा लो, जहाँ चाहे ले चलो, श्याम सुंदर ने कहा मेरे कंधे पर चढ़ जाओ। ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने चली- अंतर्धान हो गये, अब पछता रही हूँ। हे नाथ, मैं तुम्हारी दीन हीन दासी हूँ, मुझे दर्शन दो। मैंने आप का अपमान किया है। गोपियाँ खोजती हुई घोर जगल में गई, भगवान् को न पाकर लौट आई। यमुना की रमन रेती पर सब मिलकर कृष्ण के गुणों का गान करने लगीं, पुकारने लगीं। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय-४२


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! श्री कृष्ण मथुरा पुरी में आए हैं। बलराम के साथ नगर भ्रमण कर रहे हैं। जो उनको देख लेता है, वो उनके पीछे लग जाता है, उनकी रूप माधुरी में लिपटा चला आता है। मथुरा वासियों का एक झुंड पीछे चल रहा है। मार्ग में एक कुबरी स्त्री मिली, चंदन लेकर जा रही थी। भगवान् ने कहा यह चन्दन मुझे दो, तुम्हारा कल्याण होगा (प्रभु उसका भाग्य सवारने के लिए उस पर कृपा की)। कुब्जा बोली- हे परम सुंदर !मैं कंस की दासी हूँ त्रिवक्रा (कुब्जा)। यह चन्दन और अंगराग उसके लिए ले जा रही थी पर इसके उत्तम पात्र आप हैं, कुब्जा ने अपना ह्रदय न्योछावर कर दिया। भगवान् का मंद हास्य, चारु चितवन देख कर वह अपनी सुध खो गई। उसने भगवान् को चंदन लगाया। श्री कृष्ण उस पर प्रसन्न हो गए। तीन जगह से टेढ़ी कुब्जा के पंजों पर भगवान् ने अपना चरण रखा और हाथ उठा कर दो उँगलियों को गले पर लगा कर उसके शरीर को थोड़ा सा उठा दिया। इतना करते ही उसके सारे अंग सीधे हो गए, वो रूपवती बन गई। अब उसके मन में भगवान् को पाने की कामना जगी। बोली- वीर शिरोमणि! हमारे घर चलिए, मुझपर प्रसन्न होइए। पुरुषोत्तम, मैं आपको नही छोड़ सकती। भगवान् आने का वादा करके चले।


अब वे मथुरा की रंग शाला में पहुंचे। वहाँ एक अद्भुत धनुष देखा। उसमें कई धनुष लगे थे। वह बहुमूल्य अलंकारों से सजा था, उसकी पूजा हुई थी और सैनिक उसकी रखवाली कर रहे थे। सैनिकों के रोकने पर भी उस धनुष को भगवान् ने उठा लिया। डोरी चढ़ा कर खीचा, एक भयंकर आवाज़ के साथ धनुष टूट गया। सैनिकों ने भगवान् को घेरने व पकड़ने की कोशिश की। भगवान् ने सब का संहार किया। यह बात जब कंस को पता चली तो वह डर गया। इधर श्री कृष्ण अपने छकड़े पर, जो नगर के बाहर था, वहाँ रात को विश्राम किया। नगरवासियों ने उनके रूप और पराक्रम को देख कर निश्चय किया कि ये दोनों वीर श्रेष्ठ देवता हैं। अब कंस को मृत्यु सूचक अपशकुन होने लगे। प्रात: उसने रंग शाला का आयोजन किया, उसमे बड़े-बड़े वीर अखाडे में बुलवाए और कंस एक मंच पर
बैठा था। वह बहुत डरा हुआ था। ॐ तत्सत्!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_1611.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_4014.html

भागवतांश - ७

स्कन्ध-८/अध्याय-१५


परीक्षित ने शुकदेव से पूछा- भगवान् श्री हरि सब के स्वामी हैं, फ़िर उन्होंने दीन की भांति राजा बलि से तीन पग भूमि क्यों मांगी? मिल जाने पर उनको बाँधा क्यों?



शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उसकी सम्पत्ति छीन ली और प्राण भी ले लिया तो असुर गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उसे जीवित कर लिया। तब राजा बलि ने अपना सर्वस्व गुरु के चरणों में अर्पित कर दिया और तन, मन से ब्राम्हणों की सेवा करने लगे। भृगुवंशी ब्राम्हण प्रसन्न हुए और स्वर्ग पर अधिकार दिलाने वाला विश्वजीत यज्ञ बलि से करवाया। हविश्यों के द्वारा जब अग्निदेव को हविष्यान्न दिया, तब अग्नि में से एक दिव्य सोने की चादर से बना हुआ रथ निकला। उसमें सोने का धनुष, अक्षय तरकश, दिव्य कवच और हरे रंग के रथ के घोड़े थे। उनके दादा प्रह्लाद ने उनको कभी न कुम्हलाने वाली माला दी।


राजा बलि ने सारे दिव्य अस्त्रों को धारण किया, असुर सेना को ले कर ऐश्वर्य से भरे राजा रथ पर सवार हुए। क्रोध से प्रज्वलित उनके नेत्रों से ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश पी जायंगे। अन्तरिक्ष को कंपाते हुए बलि ने देवताओं की राजधानी अमरावती पर चढाई कर दी। अमरावती की शोभा अपूर्व थी, सोने के महल, ऊँचे परकोटे, सुगन्धित सफ़ेद धुँआ। इस नगरी का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था। अमरावती की स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्ष की सी रहती हैं, हरदम संगीत बजता रहता है। वहा की शोभा अपूर्व है, राजा बलि ने सेना सहित पूरी अमरावती को घेर लिया, भय को संचार करने वाले शंख को बजाया। इन्द्र ने देखा बलि ने युद्ध की पूरी तयारी की है, अतः वे अपने गुरु बृहस्पति के पास गए। बोले- भगवन, मेरे शत्रु बलि ने इस बार बड़ी तैयारी की है। पता नही कौन सी शक्ति से वह इतना बढ़ा है। इस समय उसके प्रलय को कोई नही रोक सकता। लगता है दसों दिशाओं को भस्म कर देगा। इसके शरीर, मन और इन्द्रियों में इतना तेज और बल कहाँ से आ गया? देव गुरु बृहस्पति जी ने कहा- इन्द्र, मैं बलि की उन्नति का कारण जानता हूँ। ब्रम्हवादी भृगुवंशियों ने इसे महान तेज और बल दिया है, अब इसे केवल सर्वशक्तिमान श्री हरि ही हरा सकते हैं। तुमलोग स्वर्ग को छोड़ कर कहीं और छिप जाओ और भाग्य के चक्र के बदलने तक प्रतीक्षा करो। जब यह उन्ही ब्राम्हणों का तिरस्कार करेगा, तभी इसका नाश होगा। राजा बलि ने अमरावती पुरी पर अपना अधिकार कर लिया। तीनो लोकों को जीत लिया, तब शिष्य प्रेमी भृगुवंशियों ने बलि से सौ अश्वमेध यज्ञ करवाए। राजा की कीर्ति-कौमुदी दसों दिशाओं में फ़ैल गई। ब्राम्हण देवता की प्राप्त कृपा से बलि बड़ी उदारता से राज्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे। ॐ तत्सत!!!

स्कन्ध-९/अध्याय-४


शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मनु पुत्र नभग के पुत्र का नाम था नाभाग। जब वे दीर्घ काल की तपस्या के बाद लौटे, तब बड़े भाइयों ने नाभाग को हिस्से में केवल पिता को दिया (संपत्ति को बड़े भाइयों ने आपस में बाँट ली)। नाभाग ने पिता से कहा- मेरे हिस्से में आप हैं, पिता ने कहा तुम इनकी बात न मानो। पिता ने कहा -अंगिरस गोत्र के ब्राम्हण बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। वे छठे दिन एक भूल कर देते हैं। पुत्र, वहाँ जाओ और उन्हें दो सूत्र बता दो। जब वे जाने लगेंगे तो यज्ञ से बचा हुआ धन तुम्हे दे देंगे। नाभाग ने ऐसा ही किया, यग्य का बचा हुआ बहुत सा धन ऋषियों ने नाभाग को दिया और स्वर्ग चले गये। जब नाभाग उस धन को लेने लगे तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरूष आया, कहा -यह धन मेरा है। नाभाग बोले- ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है। काले रंग के पुरूष ने कहा-चलो इस विषय में तुम्हारे पिता से बात करते हैं। नाभाग ने पिता से प्रश्न किया। पिता ने कहा -दक्ष यज्ञ में यह निश्चय हुआ था की यज्ञ भूमि में जो बचता है वह रुद्र देव का है, इसलिए यह धन महादेव का है। नाभाग ने उस काले पुरूष से कहा- पिता ने कहा है यह धन आपका है, भगवन मुझसे अपराध हुआ, मुझे क्षमा कर दें। तब रुद्र ने कहा- तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी सत्य कहा, मैं तुम्हे ब्रम्ह तत्व का ज्ञान और यह सारा धन देता हूँ। इतना कह कर भगवन अंतर्धान हो गए। जो मनुष्य प्रातः और सायं काल इसे पढता है वह ज्ञानी होता है। नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीश। वे भगवान् के परम भक्त थे, उदार और धर्मात्मा थे। जो शाप कभी कही नही रोका जा सका वो अम्बरीश को छू भी नही सका।


राजा परीक्षित ने कहा -भगवान्, मैं उनके चरित्र को सुनना चाहता हूँ। शुकदेव ने सुनाया- अम्बरीश पृथ्वी के सातों द्वीपों के राजा थे। अतुलनीय ऐश्वर्य के स्वामी थे, परम दुर्लभ वस्तुएं उनको प्राप्त थीं। वे भगवान श्री कृष्ण के, ब्राम्हणों और संतों के भक्त थे। वे वाणी से भगवान् का गुणगान, हाथों से उनकी सेवा, कानों से कथा का श्रवण और पैरों से उनके धाम की यात्रा किया करते थे। उनका सब कुछ भगवान् को अर्पित था। वे संतों की आज्ञानुसार शासन करते, उनकी प्रजा बहुत सुखी थी। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा में सुदर्शन चक्र को लगा दिया।


एक बार राजा ने द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का नियम लिया। व्रत की समाप्ति पर कार्तिक मास में तीन दिन का उपवास किया। यमुना जी में स्नान कर मधुवन में श्री कृष्ण की महाभिषेक विधि से पूजा की। वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला, अर्ध्य आदि से ब्राम्हणों को दान दिया। उसी समय ऋषि दुर्वासा आए। राजा ने आसन दे स्वागत किया, भोजन का आग्रह किया। दुर्वासा स्नान करने यमुना जी गए, इधर द्वादशी घड़ी भर शेष रह गई थी। राजा सोचने लगे अगर पारण न करूँ तो व्रत भंग होगा। अतिथि को बिना भोजन कराए पारण करूँ तो भी व्रत भंग होगा। उन्होंने ब्राम्हणों से विचार करके भगवान् का चरणोदक ले लिया। स्नान से निवृत्त हो कर जब दुर्वासा आए तो यह जानकर की राजा ने पारण कर लिया है, बहुत क्रोधित हुए कि मुझे खिलाये बिना ही तुमने पारण कर लिया, "इसका फल चखाता हूँ"। उन्होंने अपनी जटाओं से एक बाल उखाडा और राजा को मार डालने के लिए कृत्या पैदा की। कृत्या तलवार ले कर अम्बरीश पर टूट पड़ी। राजा तनिक भी विचलित नही हुए, सुदर्शन चक्र ने कृत्या को भस्म कर दिया। वह चक्र दुर्वासा की ओर बढ़ा, वे अपने प्राण बचाने के लिये तीनों लोक का चक्कर लगा लिए पर सुदर्शन ने पीछा नही छोड़ा। वे ब्रम्हा के पास गए, बोले- मेरी रक्षा कीजिये। ब्रम्हा जी बोले श्री हरि के द्रोही को बचाने का सामर्थ्य मुझमे नही है, तुम शंकर जी के पास जाओ। दुर्वासा कैलाश पर गए, महादेव से बोले- मैं आपकी शरण में हूँ। शिव जी ने कहा- हम जैसे हजारों उनके चक्कर काटते हैं, यह चक्र विश्वेश्वर का है, मैं कुछ नही कर सकता, तुम उन्ही की शरण में जाओ। दुर्वासा भगवन के धाम वैकुण्ठ में गये, कांपते हुए चरणों में गिर पड़े। बोले- हे अनंत, विश्व विधाता, मेरी रक्षा कीजिये। मैं आपका प्रभाव नही जानता था, मैं आपके भक्त का अपराधी हूँ। भगवान् बोले- दुर्वासा जी, मैं सर्वथा भक्त के आधीन हूँ। भक्तों ने मेरा ह्रदय अपने हाथ में रखा है। जो सब कुछ छोड़ कर केवल मेरी शरण में है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ। मेरे भक्त मेरे ह्रदय हैं और मैं भक्तों का ह्रदय हूँ। आप उसी भक्त के पास जाइए। आपका कल्याण हो। दुर्वासा लौट कर अम्बरीश के पास आए। बोले- मुझे इस चक्र से बचाओ। राजा ने चक्र की स्तुति की और वह शांत हो गया, दुर्वासा की रक्षा हुई। ॐ तत्सत!!!


स्कन्ध-९/अध्याय-१०


परम यशस्वी राजा रघु के पुत्र अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए। देवताओं की प्रार्थना से साक्षात् परब्रम्ह श्रीहरि के अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न हुए। श्री राम पिता के वचन की रक्षा के लिए राज्य छोड़, सीता और लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष के लिए वन को गए। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हेतु राम-लक्ष्मण ने मारीच ताड़का आदि कई राक्षसों को मारा, जनक पुर में सीता स्वयंवर में शिव धनुष को भंग कर सीता को प्राप्त किया। श्री लक्ष्मी जी ही सीता नाम से जनक पुर में अवतीर्ण हुईं। परशुराम, जिन्होंने २१ बार पृथ्वी को राजवंश से विहीन किया, भगवान् ने उनके गर्व को तोड़ा। वनवास काल में शूर्पणखा, जो राक्षसी थी, उसकी नाक को काटकर विरूप किया। सीता जी के रूप और गुणों को सुनकर रावण ने उनका हरण कर लिया। राम सीता की खोज में वन-वन भटके। जटायु का संस्कार किया, कबंध का संहार किया। हनुमान जी से और सुग्रीव से मिले। बलि का वध किया, सुग्रीव राजा और अंगद युवराज बने ।


शुकदेव जी बोले- परीक्षित! शिव जिनकी वंदना करते हैं, वे श्री राम मनुष्य लीला करते हुए समुद्र तट पर पहुंचे। हनुमान जी ने पता लगाया कि सीता जी लंका की अशोक वाटिका में हैं। राम ने समुद्र से विनती की- मुझे मार्ग दो। तब समुद्र शरीर धारण कर रत्नों का थाल लेकर राम की शरण में आया, बोला- दयानिधान, मैं सूख जाऊँगा तो मुझमे रहने वाले जीव मर जायेंगे। आप मेरे ऊपर पुल बना लीजिये और पार चले जाइए, आप का यश बढेगा। भगवान् ने नल-नील की सहायता से बाँध बनाया। सेना सहित लंका पर आक्रमण किया, रावण पूरे वंश सहित मारा गया। राम जी ने विभीषण को राजा बनाया।


सीता, लक्ष्मण, हनुमान और सुग्रीव के साथ श्री राम अयोध्या के लिए विमान पर सवार हुए। देवताओं ने पुष्पवर्षा की, ब्रम्हा जी ने स्तुति की। इधर भरत जी नगर से बाहर विरक्त जीवन जी रहे थे। सिंहासन पर श्री राम की पादुका थी, भरत जी पत्तों के बिस्तर पर सोते, कंदमूल खाते, वल्कल वस्त्र पहन कर चौदह साल रहे। श्री राम को जब यह मालूम हुआ तो उनका ह्रदय भर आया, वे पहले भरत से मिले। राम-भरत ने गले लग कर एक दूसरे को आंसुओं से भिगो दिया। सबने नगर में प्रवेश किया, नगर वासियों ने पुष्पवर्षा की, दीये जलाये। हर तरह से राजा राम का स्वागत हुआ, भगवान् ने गुरुजनों को प्रणाम किया। महल में आए, माताओं से मिले, सबका शोक मिट गया । राम राजा बने, सीता जी महारानी। राम के राज्य में सबको सब प्रकार से सुख था। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9737.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9016.html

भागवतांश - ६

स्कन्ध-६/अध्याय-१६



राजा चित्रकेतु का पाँच वर्षीय पुत्र जिसे अन्य रानियों ने विष दे दिया, वह मर गया। राजा-रानी शोकाकुल विलाप कर रहे हैं, महर्षि नारद ने उन्हें समझाया। श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवर्षि नारद ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को स्वजनों के सामने बुलाकर कहा- जीवात्मन! तुम्हारा कल्याण हो। देखो तुम्हारे माता पिता और स्वजन वियोग से शोकाकुल हो रहे हैं, इसलिए तुम अपने शरीर में आ जाओ और शेष जीवन इनके साथ रहो और सिंहासन को संभालो। जीवात्मा ने कहा- देवर्षि! मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मो से भटक रहा हूँ। हर जन्म में नए-नए माता-पिता बने, सम्बन्ध बदलते रहे। जैसे क्रय-विक्रय की वस्तुएं एक व्यापारी से दूसरे के पास जाती रहती हैं, वैसे ही जीव भी विभिन्न योनियों और संबंधो में उत्पन्न होता रहता है। जब तक सम्बन्ध रहता है, ममता रहती है, उसके बाद नही। जीव नित्य. अंहकार रहित, समरूप होता है, यह ईश लीला के कारण अपने को प्रकट करता है। आत्मा तो साक्षी और स्वतंत्र है।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- वह जीवात्मा इस प्रकार कह कर चला गया। उसके माता-पिता यह बात सुनकर विस्मित रह गए, उनका बंधन कट गया, शोक जाता रहा। मृत देह का संस्कार किया गया। जिन रानियों ने बच्चे को विष दिया था, उन्होंने बाल हत्या से मुक्त होने के लिए यमुना जी के तट पर प्रायश्चित किया। राजा चित्रकेतु की विवेक बुद्धि जागृत हुई। नारद जी के उपदेश से राजा ने यमुना जी में स्नान किया और देवमुनि की पूजा की। वंदना से प्रसन्न हो कर नारद जी ने उपदेश किया- ॐकार स्वरुप भगवान! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण के रूप में मन, बुद्धि, चित्त और अंहकार के अधिष्ठाता हैं। मैं आपके इस चतुर्भुज रूप को बार-बार प्रणाम करता हूँ। आप विशुद्ध विज्ञान स्वरुप हैं, आपकी मूर्ति परमानन्द देने वाली है। आप अपने स्वरूप में परम शांत और पावन हैं। आप को बारम्बार प्रणाम है। मायापति हो कर भी माया जनित द्वेष आप को छू भी नही पाया है। यह जगत आपसे उत्पन्न हुआ और आप में ही विलीन होता है। आप को मन, बुद्धि, वाणी और ज्ञान से नही जाना जा सकता। ॐकार स्वरुप, महाप्रभावशाली, महाविभूतिपति भगवन्- आपको बार-बार नमन!


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवर्षि नारद अपने भक्त चित्रकेतु को इस विद्या का उपदेश देकर अपने लोक को चले गए। चित्रकेतु ने देवर्षि की उपदिष्ट विद्या का उनके आज्ञा अनुसार सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया। सात दिनों के पश्चात् राजा को "विद्याधरों" का आधिपत्य प्राप्त हुआ। इस विद्या के प्रभाव से इनका मन निर्मल हो गया, अब वे शेष जी के चरणों के पास पहुँच गए। देखा कि शेष जी सिद्धेश्वरों के मंडल में विराजमान हैं, उनके प्रत्येक अंग में सुंदर आभूषण शोभित हैं, नेत्र रत्नारे हैं। भगवान् शेष जी के दर्शन से उनके सारे पाप जल गए। उनका रोम-रोम खिल गया, नेत्रों में अश्रु आ गये, ह्रदय भर गया, मुख से बोल नही निकल पा रहे थे। फ़िर विवेक से मन को समाहित किया और स्तुति की- अजित! जितेन्द्रिय संतो ने आपको पा लिया है, आपने अपने गुणों से उनको वशीभूत कर लिया है। प्रभु, जो आपका भजन करता है वो सबकुछ पा लेता है। आप ही आदि अंत और मध्य हैं, आप अनंत हैं। भगवत धर्म इतना महान और शुद्ध है कि जो इसे धारण करता है, उसमे विषय विकार नही आता, दृष्टि सम हो जाती है, पाप जल जाते हैं। हे सम्पूर्ण जगत की आत्मा, हे सहस्त्रशीर्ष भगवान्, मैं आपको नमन करता हूँ। इस प्रकार चित्रकेतु ने अनंत भगवान् की स्तुति की।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! चित्रकेतु की भक्ति से श्री शेष जी प्रसन्न होकर बोले- चित्रकेतु, तुम मेरे दर्शन से सिद्ध हो चुके हो। मैं ही शब्द ब्रम्ह (वेद) और परब्रम्ह हूँ। जागृत अवस्था में यह जगत परमेश्वर की माया है। जब जीव मुझे भूल कर माया में खो जाता है, तो संसार चक्र में फंस जाता है। यह मनुष्य की योनि, ज्ञान और विज्ञान का स्रोत है। जो इसे पाकर परमात्मा को भूल जाता है, उसका क्लेश नही मिटता। राजन! मानव तन का पाना तभी सार्थक है जब ब्रम्ह और आत्मा की एकता का अनुभव कर सको। श्रद्धा भाव से शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे। इस प्रकार कहकर श्री शेष जी अंतर्ध्यान हो गए। ॐ तत्सत्!!!


स्कंध-७/अध्याय-७


भक्त प्रह्लाद की कथा नारद जी ने युधिष्ठिर को सुनायी है। नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब दैत्य बालकों ने प्रह्लाद जी से पूछा- तुम अभी इतने छोटे हो, जब से जन्म लिए हो, माँ के पास महल में हो, तुम कैसे कहते हो की नारद जी से मिले हो? प्रह्लाद जी ने कहा- सुनो, एक बार हमारे पिता हिरण्यकश्यपु तपस्या करने मंदराचल गए, तब इन्द्रादि देवों ने दानवों से युद्ध की तैयारी की। उस युद्ध में दैत्य सेनापति अपने प्राण बचने को भाग गए। देवताओं ने राज महल को लूटा और मेरी माँ राजरानी कयाधू को इन्द्र बंदी बना कर लिए जा रहे थे। मार्ग में देवर्षि नारद ने देखा और इन्द्र से कहा- यह अपराध है इसके गर्भ में नारायण का भक्त पल रहा है। देवराज, यह सती-साध्वी परनारी है, इसका तिरस्कार न करो। इन्द्र ने कहा- यह हिरण्यकश्यपु के संतान की माँ बनेगी जो देव द्रोही है। मैं इसके बालक को मार कर इसे छोड़ दूँगा। नारद ने कहा- तू यह नही कर सकेगा। इसका बालक भगवत भक्त,प्रेमी, शुद्ध और महात्मा है। तब इन्द्र इस भाव से कि यह भागवत भक्त की माँ है, मेरी माँ की प्रदक्षिणा कर के चले गए। इसके बाद नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम में ले आए। बोले- जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहाँ निर्भय होकर रहो। मेरी माँ आश्रम पर रहने लगी, भक्ति पूर्वक देवर्षि की सेवा करती। नारद जी ने मेरी माँ को भगवत धर्म का रहस्य बताया, शुद्ध ज्ञान का उपदेश दिया। मुझे सब याद है, नारद जी की कृपा से बुद्धि शुद्ध हो गई है। मेरी बात पर श्रद्धा करो दैत्य बालकों, यह ज्ञान तुम भी पा सकते हो। शरीर के छ विकार होते हैं -जन्मलेना, अस्तित्व की अनुभूति, बृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश। पर आत्मा अविनाशी, नित्य, शुद्ध, असंग और आवरण रहित है। अध्यात्म तत्व को जानने वाला पुरूष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्म पद का साक्षातकार कर लेता है।


प्रह्लाद बोले- आचार्यों ने प्रकृति के तीन गुण बताए हैं -सत्व, रज और तम्। उनके विकार हैं- दस इन्द्रियां, एक मन और पञ्च महाभूत। इन सब का समुदाय है शरीर। आत्मा जड़ और चेतन दोनों में है पर वह सबसे पृथक है। बुद्धि की भी तीन वृत्तियाँ हैं- जागृत, स्वप्न और सुसुप्ति। इन सबको निरर्थक कर्म से हटकर परमात्मा से जुड़ने का कर्म करना चाहिए। निष्काम प्रेम श्रेष्ठ है, यह बात स्वयं भगवान् ने कही है। दास भाव से सेवा, गुणों का गान, भजन और मूर्ति दर्शन से प्रेम हो जाता है। इतना करते रहो, एक दिन अनन्य प्रेम हो जाता है। तब असीम आनंद से मन खिल उठता है, फ़िर मन उसकी परम मनोहर छवि को नही भूलना चाहता और पुकारता है- नारायण! तन्मय होकर, आँखों में अश्रु लेकर वह भगवनमय हो जाता है। तब उसके सारे बंधन कट जाते हैं, इसी अवस्था को निर्वाण कहते हैं। जीवन शुभ मय हो जाता है। सुनो असुर बालकों- तुम भी अपने ह्रदय में नारायण को बिठाओ। इसमें कोई विशेष परिश्रम भी नहीं है। भोगों को पाने के लिए संसार में दौड़ भाग करना, किसी को दुःख देना मूर्खता है। स्वर्ग के सुख में भी दोष है। निर्दोष केवल परमात्मा है, उसमें मन लगाओ। वो आनंद का समुद्र है ,उसे किसी वस्तु की आवश्यकता भी नही, केवल श्रद्धा चाहिए। धर्म, अर्थ, काम सब उसके आधीन हैं। जो उन चरण कमलों की सेवा करता है, वह हमारे समान कल्याण का भाजन होता है। दैत्य बालकों! भगवान् को प्रसन्न करने के लिए ब्राम्हण होना, ज्ञानी होना, दानी होना, यज्ञ या बड़े -बड़े अनुष्ठान करना जरुरी नही, भगवान् तो केवल निष्काम भक्ति से मिल जाता है। सब से प्रेम करो, भगवान् की भक्ति के प्रभाव से कई दानव, क्षुद्र, और पापी उनकी कृपा को पा गए। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-८/अध्याय-९


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! समुद्र मंथन से जब अमृत निकला तब सब असुर आपस में लड़ने लगे, डाकू की तरह एक दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे। इसी बीच उन्होंने देखा की एक बड़ी सुंदर स्त्री उनकी ओर चली आ रही है। उसके अनुपम सौन्दर्य को, उसकी अद्भुत छटा को देख कर सारे असुर लड़ना भूलकर उसके पास दौड़ आए, सब काम मोहित हो गए। पूछा- हे कमलनयनी! तुम कौन हो? कहाँ से आ रही हो? क्या करना चाहती हो? सुंदरी, तुम किसकी कन्या हो? तुम्हे देखकर हमारे मन में खलबली मच गई है। हम समझते हैं- देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालों ने भी अब तक तुम्हें नही छुआ होगा। सुंदरी, विधाता ने अवश्य दया करके शरीर धारियों की इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिए तुम्हे यहाँ भेजा है। मानिनी, हमलोग एक ही जाति के हैं और एक ही वस्तु हम सब चाह रहे हैं, इसलिए हम में वैर हो गया है। सुंदरी, तुम हमारा मिटा दो। हम सभी कश्यप जी के पुत्र हैं इस नाते सगे भाई हैं। हमने अमृत के लिए बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्याय के अनुसार इसे बाँट दो, हमारा झगड़ा ख़तम कर दो। असुरों ने जब इस प्रकार प्रार्थना की तब स्त्री वेश धारी नारायण ने हंसकर तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा- आप महर्षि कश्यप के पुत्र हैं और मैं कुलटा नारी, आप मुझ पर न्याय का भार क्यों दे रहे हैं? बुद्धिमान पुरूष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का विश्वास नही करते, इनकी मित्रता स्थायी नही होती।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मोहिनी की परिहास भरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी विश्वास हो गया। उन लोंगो ने अमृत का कलश मोहिनी के हाथो में दे दिया। भगवान् ने अमृत कलश लेकर हँसते हुए मीठी वाणी से कहा- मैं उचित, अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब तुम लोंगो को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ। मोहिनी की मीठी बात सुनकर सब ने एक स्वर से कहा "स्वीकार है"। इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया, हवन किया, गौ को चारा तथा , ब्राह्मणों को अन्न-धन का दान दिया। सबने रूचि के अनुसार नये वस्त्र धारण किए, सुंदर आभूषण पहने और कुशासन जिसका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था, उस पर बैठ गए। जब देव और दैत्य दोनों ही दीप, पुष्प और गंध से सजे भव्य भवन में पूर्व की और मुख करके बैठ गए, तब हाथ में अमृत कलश ले कर मोहिनी सभा मंडप में आई। वह बड़ी सुंदर रत्न जड़ी साड़ी पहने थी। वह गज-गामिनी अपूर्व सुंदरी, कलश के सामान स्तनों वाली, उसके स्वर्ण नुपुर अपनी झंकार से पूरे सभा मंडप को मुखरित कर रहे थे। उसके कपोल, नासिका, मुख बड़े ही सुंदर थे। भगवान् मोहिनी रूप में लक्ष्मी जी की श्रेष्ठ सखी लग रहे थे। उनकी मुस्कान भरी चितवन से सब मोहित हो गए। अब भगवन ने सोच इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिलाने से बड़ा अपराध है, अन्याय है। ये सब क्रूर स्वभाव वाले हैं। भगवान् कलश ले कर दैत्यों के पास गए। उसी समय उनका आँचल कुछ खिसक गया और वे कटाक्ष से मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाने लगे। असुरों को मोहिनी से स्नेह हो गया, वे स्त्री से लड़ने में अपनी निंदा समझते थे, इसलिए चुपचाप बैठे रहे। वे डर भी रहे थे की ये सुंदरी हमसे रूठ न जाए। जिस समय भगवन देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओं का वेश बना कर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया। उसने भी अमृत पी लिया,परन्तु सूर्य और चंद्रमा ने जान लिया और बता दिया। भगवन ने उसी वक्त चक्र से रहू का सर काट दिया। धड़ नीचे गिर गया लेकिन सिर अमर हो गया क्योंकि वह अमृत के संसर्ग में आ गया था। ब्रम्हा जी ने उसे ग्रह बना दिया। वही राहु पूर्णिमा और अमावस्या को बदला लेने के लिए चंद्रमा और सूर्य पर आक्रमण करता है। देवताओं ने अमृत पी लिया, दैत्यों के सामने ही भगवन ने मोहिनी रूप को त्याग कर अपने रूप को प्रकट किया।


श्री शुकदेव जी बोले- परीक्षित! देखो- देवता और दैत्य दोनों ने एक समय एक स्थान पर, एक प्रयोजन एक ही वस्तु के लिए किया, कर्म भी एक ही प्रकार का किया था, परन्तु फल में बहुत बड़ा भेद हो गया। देवताओं ने सुगमता से अपने परिश्रम का फल अमृत पा लिया और दैत्य देखते रहे। जानते हो क्यों? क्योंकि देवताओं ने भगवान् के शरणागत हो कर कर्म किया, उनकी चरणरज को नमन किया। और दैत्यों ने देव से विमुख हो कर कर्म किया, इसलिए परिश्रम करने पर भी वे फल नही पा सके। राजन, प्राणों में हरि को बिठा कर, उनको अर्पित करके जो कुछ किया जाता है, वह सब के लिए फलदायी होता है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से टहनियां, पत्ते, डालियाँ सब सिंच जाते हैं, और वृक्ष समय आने पर फल भी मिलता है। वैसे ही भगवन के लिए जो करोगे वह पूरे परिवार को सुखी बना देगा। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_4014.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_4751.html

भागवतांश - ५

स्कन्ध -५/अध्याय -१०



यह कथा श्री शुक देव जी सुना रहे हैं। राजा परीक्षित को श्री शुकदेव जी बोले- राजन! एक बार सिन्धुसौबीर देश के राजा "रहूगन" पालकी पर चढ़ कर जा रहे थे। जब वे इक्षुमती नदी के किनारे पहुंचे तो उनकी पालकी को उठाने के लिए एक और कहार की जरुरत पडी, देववश उन्हें एक ब्राम्हण मिल गए जो स्वयं में आत्म लीना थे और जवान थे। कहारों ने सोचा, ये बोझा ले कर चलने के लिए ठीक है और बलात पालकी में लगा दिया। वे चुप -चाप पालकी ले कर कहारों के साथ चलने लगे। ये थे महात्मा भरत जो हरि की भक्ति में डूबे रहते। इनको अपने देह का भान नही था। कोई जीव पैरों तले दब न जाए, इसलिए वे बच कर जमीन को देखते हुए चल रहे थे, इस कारण पालकी उंची नीची हो रही थी और राजा को तकलीफ हो रही थी। राजा ने ठीक से चलने को कहा तो कहारों ने कहा- ये जो नया आया है, वो ठीक नही चल रहा। राजा ने चाल मिला कर चलने को कहा, पर भरत वैसे ही चलते रहे। राजा ने फ़िर कहा मैं तुम्हे दंड दूँगा, तुमने राजाज्ञा का उलंघन किया है। तब भरत ने कहा- राजन आपने जो कहा इस शरीर को कहा। मुझे आप दंड दें, दंड इस शरीर को मिलेगा, और ऐसी बात एक देहाभिमानी ही कह सकता है, ज्ञानी नहीं। मुझे इसका कोई लेश नही। तुम्हे अभिमान है की तुम राजा हो- बताओ क्या सेवा करूँ, मैं तो जड़ के समान आत्म लीन रहता हूँ। ऐसा कह कर भरत जी चुप हो गए और पालकी ले कर चलने लगे। रहूगन की श्रद्धा जगी, ह्रदय को भेदने वाली भरत की बात सुन कर पालकी से उतर गए, चरणों में गिर गए बोले -देव, आप कौन हैं, आपने यज्ञोपवीत धारण किया है, किसके पुत्र हैं? यहाँ कैसे विचरण कर रहे हैं? कहीं आप कपिल देव तो नही? मैं यमराज से भी नही डरता पर ब्राम्हण देव से बहुत डरता हूँ। आप अपनी शक्ति को छुपा कर क्यों चल रहे हैं? मैं आत्मज्ञानी मुनि कपिल से यह पूछने जा रहा था की इस लोक में शरण लेने योग्य कौन है? राजा ने कहा -मैं घर में आसक्त रहने वाला योगेश्वरों की गति कसे जान सकता हूँ। मुनिवर आपने जो कहा -इस शरीर को कुछ भी हो मुझे लेश नही, तो मैंने अनुभव किया है- युद्ध में श्रम होने पर देह ,इन्द्रिय ,प्राण और मन सब पर असर होता है आत्मा को भी सुख-दुःख का अनुभव होता है। दीनबन्धो! अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप जैसे परम साधू की अवज्ञा की, मुझ पर कृपा कीजिये! आप देहाभिमान शून्य और श्री हरि के अनन्य भक्त हैं, समदृष्टि वाले हैं। आपके क्रोध से मुझे भगवान् शंकर भी नही बचा सकते, मुझे क्षमा कर दीजिये। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-५ /अध्याय-२०


हमारे भागवत में है- प्रियव्रत ने जब सात चक्कर पृथ्वी के लगाये तो उससे सात समुद्र और सात द्वीप बन गए। पहला है जम्बू द्वीप- जम्बू द्वीप अपने ही समान विस्तार और परिमाण वाले खारे जल से परिवेष्ठित है। जम्बू द्वीप में सात पर्वत और सात प्रसिद्ध नदियाँ हैं। इसके बाद कुश द्वीप है जो घृत के समुद्र से घिरा है। इसमें भगवान् का रचा हुआ कुशों का झाड़ है, इसीलिए इसका नाम कुश द्वीप हुआ। इसके आगे क्रोंच द्वीप है। यह अपने ही समान विस्तार वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है। इसे क्षीर समुद्र कहते है। पूर्व काल में स्वामी कार्तिकेय जी ने यहाँ देवों से युद्ध किया था। इसके बाद शाक द्वीप है जो अपने ही समान विस्तार वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा है। इसमे शाक नामक वृक्ष है, इस वृक्ष की सुगंध से द्वीप महकता रहता है। इसके आगे पुष्कर द्वीप है जो अपने ही सामान परिमाण वाले मीठे जल के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमे स्वर्ण पंखुडियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है। यहाँ ब्रम्हा जी का आसन है। यहाँ के निवासी इस स्थान पर ब्रम्हा जी की पूजा करते है।


इस समस्त द्वीपों पर प्रियव्रत के पुत्रों ने शासन किया। राजा प्रियव्रत के १३ पुत्र थे जिन्होंने पूरे विश्व में शासन किया। इसके आगे लोकालोक नामक पर्वत है, स्वर्णमयी भूमि है जो दर्पण के समान स्वच्छ है (आज का बर्फीला प्रदेश)। इसमे गिरी कोई वस्तु फ़िर नही मिलती, यहाँ देवताओं का निवास है। यही है सम्पूर्ण लोको का विस्तार। इसकी भूमि पचास करोड़ योजन है, जिसमे १२ करोड़ योजन विस्तार वाला लोकालोक पर्वत है।


शुकदेव जी परीक्षित जी से कहते हैं- राजन! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रम्हांड का केन्द्र है, वही सूर्य की स्थिति है। सूर्य ही इस भू भाग को चेतन करते हैं। ये हिरण्यमय ब्रम्हांड से प्रकट हुए हैं, इसलिए इन्हें हिरण्य गर्भ भी कहते हैं। सूर्य के द्बारा ही दिशा, आकाश, अन्तरिक्ष, भूलोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, रसातल तथा अन्य भागों का विभाग होता है। सूर्य ही समस्त जीवों की आत्मा और इन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं। ॐ तत्सत!!!


स्कन्ध -६/अध्याय -९
 श्री शुक देव जी कहते हैं- परीक्षित! आचार्य विश्वरूप के तीन मुख थे। हमने सुना है- एक मुख से वे सोम, दूसरे से सुरा और तीसरे से अन्न खाते थे। शतक्रतु इन्द्र ने उनसे वैष्णवी विद्या प्राप्त की थी और असुरों को जीत लिया था। वे ऊँचे स्वर में बोल कर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति दिया करते थे। वे छिप कर असुरों को भी आहुति देते थे। उनकी माता असुर कुल की थीं, इसलिए स्नेह वश वे असुरों को भी आहुति पहुँचाया करते थे। देवराज इन्द्र ने देखा कि यह तो धर्म की आड़ में कपट है और देवताओं का अपराध है। इन्द्र डर गए और क्रोध में भर कर उनके तीनों सिर काट लिए। विश्वरूप का अन्न खाने वाला मुख तीतर, सोम पीने वाला सिर पपीहा और सुरा पान करने वाला सिर गौरैया हो गया। इन्द्र चाहते तो आचार्य के वध से लगा पाप दूर कर सकते थे, पर उन्होंने इसे स्वीकार किया और छूटने का कोई उपाय नही किया। कुछ समय बाद सब के सामने अपनी ब्रम्ह हत्या को चार हिस्सों में बाँट कर शुद्धि के लिए पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री को दे दिया। बदले में पृथ्वी ने यह वरदान लिया कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह अपनेआप भर जायगा; वृक्षों ने माँगा- जो हिस्सा कट जाए, वो फ़िर जम जाए; स्त्रियों ने पुरूष संग माँगा; जल ने माँगा कि खर्चने पर भी बढ़ता रहूँ, इन्द्र ने स्वीकार किया। विश्वरूप की मृत्यु के बाद उसके पिता त्वष्टा ने इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिए एक मंत्र का जाप कर हवन प्रारम्भ किया- "हे इन्द्र शत्रु! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो"। हवन समाप्त होने पर दक्षिणाग्नि से एक बड़ा भयानक दैत्य प्रकट हुआ। वह रोज एक बाण के बराबर शरीर के चारों और से बढ़ता। वह पहाड़ के आकर का, काले रंग का, उसके बाल तपे हुए तांबे के रंग के और नेत्र लाल दहकते हुए, उसके वेग से पृथ्वी काँप जाती। जब वह मुख खोलता तो कन्दरा की तरह दिखाई देता। लोग डर जाते, उसके भयानक रूप को देखकर लोग भागने लगते।


शुकदेव जी बोले- परीक्षित! त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। उसका नाम पड़ा वृत्तासुर। सारे देवता एक साथ युद्ध में उससे हार गए, तब वे सब नारायण की शरण में आए। देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी- ये पांचो भूत और इनसे बंधे हुए तीनो लोक, उनके अधिपति ब्रम्हादि तथा हम सब देवता जिस काल से डर कर उसे पूजा सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है। इसलिए अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं। प्रभो! यह सब देखकर आप विस्मित नही होते। आप सरता पूर्णकाम, सम एवं शांत हैं। जो आपको छोड़ कर किसी और की शरण लेता है, वह मूर्ख है। पिछले कल्प में वैवस्त मनु, जिनके विशाल सींग में नौका को बाँध कर प्रलय के संकट से बच गए थे, वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को वृत्तासुर के भय से हमें अवश्य बचायेंगे। पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरंगों की गर्जना के कारण ब्रम्हा जी भगवान् के नाभि कमल से प्रलय कालीन जल में गिर गए थे, असहाय थे। जिसकी कृपा से वे उस विपत्ति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकट से पार करें। उन्होंने अपनी माया से हमारी रचना की। वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीडित हो रहे हैं, तब वे माया का आश्रय ले कर अवतार लेते हैं और हमारी रक्षा करते हैं। वे प्रकृति और पुरूष रूप से विश्व की रचना करते हैं। हम सब उन्ही शरणागत वत्सल भगवान् श्री हरि की शरण ग्रहण करते हैं। वे अपने निज जन, हम देवताओं का कल्याण करेंगे।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- महराज! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने प्रकट हुए। भगवन के नेत्र शरतकालीन कमल के समान खिले हुए थे, उनके १६ पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे। वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे, केवल उनके वक्षस्थल पर श्री वत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नही थी। भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनंद से विह्वल हो गए, धरती पर लोट कर साष्टांग दंडवत किया और फ़िर धीरे -धीरे उठ कर वे भगवान् की स्तुति करने लगे। देवताओं ने कहा -भगवन! यज्ञ में शक्ति तथा फल की सीमा निश्चित करने वाले काल आप हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों को आप छिन्न-भिन्न कर डालते हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं। विधाता! सत्व, रज और तम- इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियां प्राप्त होती हैं, उसके नियामक आप हैं। भगवान्! नारायण! वासुदेव! आप जगत के कारण हैं, जगत आपका रचा हुआ है, आप ही पुरुषोत्तम हैं, आपकी महिमा असीम है! आप परम मंगलमय, कल्याण स्वरुप और दयालु हैं, देवी लक्ष्मी के आप पति हैं। परमहंस जब आत्मलीन हो आपका चिंतन करते हैं, तो अज्ञान- चला जाता है। आप उनके ह्रदय में परमानन्द रूप में प्रकट हो जाते हैं। हम आपको बार -बार नमस्कार करते हैं। भगवन, आपको जानना असंभव है। आपकी महिमा का गान तो वेद भी नही कर पाया। माया का सहारा ले कर आप अपने को छिपा लेते हैं, उस समय आपमें सबकुछ हो सकता है। आप कर्ता और भोक्ता दोनों हो जाते हैं, पर आपका शुद्ध रूप अनिर्वचनीय है। भ्रान्ति बुद्धि से आप कर्ता और भोक्ता दोनों दिखते है, पर ज्ञानी को आप सच्चिदानन्द दिखते हैं। आप सबकी अंतरात्मा हैं मधुसूदन। आपकी अमृतमयी महिमा, रस का अनंत समुद्र है। जो इसकी एक बूंद पा जाता है उसमे आनंद की धारा बहने लगती है। आपको नमस्कार है!


स्तुति सुन कर भगवान् प्रसन्न हुए। बोले- श्रेष्ठ देवताओं, तुम्हारी उपासना से मैं प्रसन्न हूँ। मेरे प्रसन्न होने पर कोई वस्तु दुर्लभ नही रह जाती। तुम्हारा कल्याण हो। तुम ऋषि शिरोमणि दधीचि के पास जाओ। उनसे उनका शरीर- जो उपासना के कारण वज्र हो गया है, मांग लो। दधीचि ऋषि को शुद्ध ब्रम्ह ज्ञान है। उन्होंने अश्वनी कुमारों को घोड़े के सिर से उपदेश दिया था, इसलिए उनका नाम अश्वसिर भी है। अथर्व वेदी दधीचि ने पहले पहल "नारायण कवच" का त्वष्टा को उपदेश किया था, त्वष्टा ने विश्वरूप को दिया और उनसे तुम्हे मिला। दधीचि ऋषि धर्म के मर्मज्ञ हैं, वे तुम लोगों को अपने शरीर के अंग जरुर देंगे। तुम विश्वकर्मा से उनका श्रेष्ठ आयुध बनवा लेना। देवराज- उस शस्त्र के द्वारा तुम वृत्तासुर का सिर काट लोगे। उसके मर जाने के बाद तुम तेज, बल, अस्त्र, शस्त्र और संपत्ति से भरपूर हो जाओगे। तुम मेरे शरणागत हो, तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।


इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9016.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_25.html

भागवतांश - ४

स्कन्ध -४ /अध्याय -२०


महाराजा पृथु की यज्ञ शाला में श्री विष्णु का आगमन।



श्री मैत्रेय जी कहते हैं- राजा पृथु ने निन्यानवे यज्ञ किये। विदुर जी! उस यज्ञ से श्री भगवान् विष्णु प्रसन्न हुए और अपने साथ इन्द्र देव को लेकर पृथु महाराज के पास आए। श्री भगवान् ने कहा- सुनो राजन्! इन्द्र ने तुम्हारे सौ अश्वमेध यग्य के संकल्प में विघ्न डाला है, अब ये तुमसे क्षमा याचना करने आए हैं, इन्हे क्षमा कर दो। नरदेव तो श्रेष्ठ, साधू और बुद्धिमान होते हैं, वे किसी से क्रोध नही करते, क्योंकि यह नाशवान शरीर आत्मा नहीं है, यदि तुम जैसे लोग माया से मोहित हो जाएँ तो समझना चाहिए की केवल श्रम ही हाथ लगा, पुण्य नहीं, यद्यपि ज्ञानी पुरूष इस तरफ़ नही जाते। आत्मा का स्वरुप तो शुद्ध, स्वयं प्रकाश, गुणवान, सर्वव्यापक, साक्षी व शरीर से भिन्न है। जो ऐसा जानकार है, वह प्रकृति से परिचित होते हुए उनमें लिप्त नहीं होता। वो केवल मुझसे प्रेम करता है। राजन! जो निष्काम, श्रद्धा से, नित्य मुझे भजता है, उसकी बुद्धि धीरे-धीरे निर्मल हो जाती है। वह तत्व को जान लेता है और मुझे प्रिय हो जाता है। यही परम शान्ति है, ब्रम्ह है और कैवल्य ज्ञान भी यही है। वह पुरूष मोक्ष पड़ पा लेता है। मुझमे दृढ़ अनुराग रखने वाला हर्ष, शोक के वशीभूत नही होता। इसलिए हे वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम में समान भाव रख कर सुख-दुःख को समान समझो। मन और इन्द्रियों को जीत कर राजकीय पुरुषों की सहायता से सम्पूर्ण लोक की रक्षा करो। राजा का कल्याण प्रजा के पालन में है, अगर प्रजा सुखी रहती है, तो राजा को पुण्य और अगर प्रजा दुखी रहती है तो राजा को पाप का भागी होना पड़ता है। इसलिए राजन- श्रेष्ठ ब्राम्हणों की सम्मति लेकर धर्म और न्याय पूर्वक पृथ्वी का पालन करते रहो। तुम्हे सब प्रेम करेंगे,कुछ ही दिनों में सनकादी सिद्धों के दर्शन होंगे। राजन्! तुम्हारे गुणों ने मुझे वश में कर लिया है, जो चाहो मांग लो। चाहे जितना तप, योग, यज्ञ कोई कर ले, पर अगर उसमें क्षमा और दया नहीं है, तो मुझको पाना सरल नही है। अंतःचित्त में समता लाओ मैं तुम्हारे ह्रदय में रहूँगा।


श्री मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! सर्व लोक गुरु "श्री हरि" के इतना कहने पर जगत विजयी राजा पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की। इन्द्र अपने किए पर लज्जित हुए, पृथु के चरणों पर गिरना ही चाहते था कि राजा ने उन्हें ह्रदय से लगा लिया और मनो मालिन्य निकाल दिया। महराज पृथु ने प्रभु के चरण पकड़ लिए, पूजन किया। श्री हरि जाना चाहते थे पर जा न सके, वात्सल्य भाव से पृथु को देखते रहे, पृथु नेत्रों में जल भरे, हाथ जोड़े खड़े रहे। बोले- मोक्षापति प्रभु! आप सबकुछ देते हैं पर ज्ञानी पुरूष विषयों को नही मांगता। आप मुझे हजारों कान दे दीजिये जिससे मैं आपकी गुणों की कथा सुनता रहूँ। उत्तम कीर्ति को आप से ही यश मिलता है, यश को भी आपकी तलाश रहती है। जिसने एक बार भी आपके गुणों को सुन लिया, उसका तो मंगल ही मंगल है। लक्ष्मी जी इसी कारण आपको नही छोड़तीं। जगदीश्वर, हो सकता है लक्ष्मी जी मेरे विरुद्ध हों क्योंकि जिस सेवा में उनका अनुराग है, मैं उसे मांग रहा हूँ । प्रभु! आप मुझ पर दया करें, आप तो दीनानाथ हैं। प्रभु, आप तो अपने स्वरूप में ही रमते हैं, आपने कहा- वर मांग! प्रभु, आपकी यह वाणी ही मोह में बाँध देती है, आप मेरा कल्याण करें तथा जो मेरे हित में हो, वर दें।


श्री मैत्रेय जी कहते है -पृथु की स्तुति सुन कर सर्व साक्षी श्री हरि ने कहा- राजन! मेरी भक्ति करके तुम सहज ही उस माया से छूट जाओगे जो बड़ा कठिन है, तुम्हारा सर्व मंगल होगा। इस प्रकार भगवन ने पृथु के वचनों को आदर दिया। पृथु ने प्रभु की पूजा की। श्री हरि निज लोक को गए, पृथु ने वहां आए सभी देवता, ऋषि, पित्र, गन्धर्व, चारण, नाग, किन्नर, अप्सरा, मनुष्य, पक्षी व अनेक प्राणियों की पूजा की, प्रणाम किया। भगवान् सब का चित्त चुराते हुए अपने धाम को गए। ॐ तत्सत!!!


स्कंध -४/अध्याय -२२


श्री मैत्रेय जी कहते हैं- पृथु के राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। उनके राज्य में सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आए। उन्हें देखते ही राजा पहचान गए कि ये सम्पूर्ण लोकों को पापनिर्मुक्त करते हुए आकाश से उतर कर आए हैं। राजा ने विधिवत उनकी पूजा की, चरणोदक सर पर लिया। ये सनकादी मुनीश्वर शंकर के अग्रज थे, वे सोने के सिंहासन पर ऐसे शोभित हुए जैसे अपने स्थानों पर अग्नि देवता। पृथु जी ने कहा- हे मंगलमूर्ति! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं, मेरा क्या पुण्य बना कि स्वतः आपके दर्शन हुए। अवश्य मुझ पर ब्राम्हण, शंकर और श्री विष्णु प्रसन्न हैं, जिनके घरों में आप जैसे पूज्य मुनि जल, तृण, पृथ्वी अथवा घर के किसी प्राणी की सेवा स्वीकार कर लें, वे धन्य हो जाते हैं, आपके चरण जहाँ पड़े, वहां सब प्रकार की सिद्धियाँ आती हैं। मुनीश्वरों आपका स्वागत है। आपलोग बाल्यावस्था से ही महान धर्म का पालन कर रहे हैं। नारायण अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए ही आप जैसे पुरुषों को पृथ्वी पर भेजते हैं।


राजा के वचन सुन कर श्री सनतकुमार जी बड़े प्रसन्न हुए । सनतकुमार जी बोले- महाराज! आपने सब के कल्याण के लिए बड़ी अच्छी बात पूछी, साधू बुद्धि ऐसी ही होती है। राजन - श्री मधुसूदन के चरणों में आपकी अविचल प्रीति है, इसका प्राप्त होना बड़ा कठिन है। श्री कृष्ण के चरणों में निश्चय प्रेम, गुरु और शास्त्र में विश्वास रखना पुनीत आचरण है, और कल्याण का साधन भी। निष्काम भाव से यम् नियमों का पालन, निंदा से दूर, सेवा भाव से कर्म करना, प्रपंच से दूर रहना, ह्रदय में श्री हरि को बसाना वैराग्य की प्रथम प्राथमिकता है। (आज ऐसा समय नहीं है कि घर छोड़ कर जीवन जिया जा सके, पर हम घर में रह कर भी सुख-दुःख में सम रहना, सब का भला करना, अंहकार से दूर रहना, द्वेष न रखना, मन को निर्मल रखना तथा विवेक से विचार कर कोई निर्णय लेना -यह सब कर सकते हैं, यह भी वैराग्य है।) सनकादी मुनियों ने कहा- जो हरदम इन्द्रियों के चिंतन में रहता है, वो जड़ हो जाता है, उसका कोई पुरुषार्थ सिद्ध नही होता। वह स्थावर योनियों में जन्म लेता है, और कभी मोक्ष को नहीं पाता। राजा पृथु ने कहा -भगवान् दीनदयाल श्री हरि ने मुझपर कृपा की जो आपलोग यहाँ पधारे हैं। आपने आत्मतत्व का ज्ञान दिया, मैं आपको क्या दूँ? मेरे पास जो कुछ है, सब महापुरुषों का प्रसाद है। यह राज्य, स्त्री, पुत्र,धन, महल, सेना सब आपके श्री चरणों में अर्पित है। शासन का अधिकार केवल ब्राम्हणों को है, ब्राम्हण अपना खाता है, पहनता है और दान देता है। यह पूरी पृथ्वी ब्राम्हणों की है, आपने मुझे बताया कि अभेद भक्ति ही भगवान् को पाने का प्रधान साधन है।


राजा पृथु ने श्रेष्ठ आत्मज्ञानियों का पूजन किया, सनकादी मुनियों ने राजा के शील की प्रशंसा की और आकाश मार्ग से चले गए। पृथु ने अपने को उपकृत माना, सब प्रकार की लक्ष्मी से परिपूर्ण राजा विषयों में नही पड़े। उदार, सौम्य, मुक्त भाव से प्रजा की सेवा करते थे। उनके पाँच पुत्र उनके अनुरूप थे। उनकी प्रजा उनका यशोगान करती, उनकी तुलना इन्द्र से की जाती, उनकी शक्ति वायु के समान, धैर्य सुमेरु के समान, समृद्धि कुबेर के समान, तेज शंकर के समान, विचार बृहस्पति के समान, और कीर्ति श्री राम के समान थी। वे सब के ह्रदय में बसते थे। ॐ तत्सत् !!!




स्कंध-५ / अध्याय -१


प्रियव्रत का चरित्र राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा- मुने! प्रियव्रत, जिनको गृहस्थ आश्रम में रहते हुए सिद्धि प्राप्त हो गई और श्री कृष्ण के चरणों में उनकी अविचल भक्ति; यह कैसे हुआ ? शुकदेव जी ने कहा- राजन! प्रियव्रत ने नारद ऋषि की चरण सेवा की थी, इसलिए सहज ही उनको परमात्मा का बोध हो गया। वे हरि कथा के मार्ग का अनुसरण करने लगे और अखंड समाधि द्बारा समस्त इन्द्रियों को वासुदेव के चरणों में अर्पित कर दिया। भगवान् ब्रम्हा जी ने जब प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी तो चारों वेदों के साथ मूर्तिमान हो कर प्रियव्रत के घर आए। वहां नारद जी भी आए। नारद जी ने अपने पिता ब्रम्हा का पूजन किया। श्री ब्रम्हा जी ने कहा- प्रियव्रत! मैं तुमसे सत्य सिद्धांत की बात कहता हूँ, सुनो! श्री हरि के दिए हुए देह को सब जीव अपने कर्मों का भोग करने के लिए धारण करते है, उनका विधान शिव, मनु, नारद और मैं भी नही बदल सकता। हम सब उनकी इच्छा अनुसार कर्म में लगे रहते हैं, हमारे कर्मों के अनुसार हमें योनिया मिलती हैं, और हम उसी अनुसार कर्म करते हैं, सुख -दुख भोगते हैं। मुक्त पुरूष भी प्रारब्ध का भोग करता है, पर जो इन्द्रियों के आधीन है उसमे भय बना रहता है। ज्ञानी कष्ट को सहज सहन कर लेता है। वह कष्ट आने पर घुटने नही टेकता, सहर्ष आगे बढ़ता जाता है। इसी तरह गृहस्थ भी ईश्वर को पा लेता है। प्रियव्रत तुम चरणकमल रूपी किले में रहो, सबको जीत लोगे। भोगों को भोगते हुए बाद में आत्म स्वरूप में स्थित हो जाओगे। ब्रम्हा जी की बातों को सुन कर प्रियव्रत ने विनम्रता से कहा 'जो आज्ञा'।


अब पृथ्वीपति प्रियव्रत महराज ने भगवान की इच्छा से सुशासन किया। शुद्ध ह्रदय प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री से विवाह किया, महाराज की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र हुए- उत्तम, तामस और रैवत जो अपने नाम वाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए। एक बार प्रियव्रत ने देखा कि सूर्य देव जब सुमेरु की परिक्रमा करते हैं, तो पृथ्वी के एक भाग में अँधेरा रहता है। उन्होंने संकल्प लिया कि वे इस अन्धकार को दूर करेंगे। वे अपना ज्योतिर्मय रथ ले कर द्वितीय सूर्य की भांति सूर्य के पीछे -पीछे चले, उनके रथ के पहियों के निशान से सात समुद्र बन गए और उससे सात द्वीप बन गए । प्रियव्रत ने सूर्य की सात परिक्रमा की, भगवान् के भक्तों में ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्य की बात नही। शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को बताया- महा पराक्रमी राजा प्रियव्रत ने अंत में राज्य को अपने सुयोग्य पुत्रों को सौप कर स्वयं नारद के बताये मार्ग का अनुसरण किया। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।



इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_4751.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_7560.html

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

भागवतांश - २


अगले कुछ ब्लॉग भागवत के कुछ उन अध्यायों का वर्णन करेंगे जो हमारी कामना को पूर्ण करते हैं।



स्कंध -१/अध्याय -११:




प्रथम स्कंध में वर्णन है- महाभारत युद्ध के बाद भगवान् ने धर्म का राज्य स्थापित किया। युधिष्ठिर को राजा बनाया, भगवान् अपने बांधवो का शोक मिटाने के लिए महीनों हस्तिनापुर में रहे। जब जाने की अनुमति मांगी, तो राजा ने ह्रदय से लगा कर स्वीकृति दे दी। भगवान् रथ पर सवार हो कर द्वारिका के लिए चले। हस्तिनापुर के नर नारी विरह से व्याकुल आपस में कह रहे है- ये ही वो सनातन पुरूष हैं जो प्रलय काल में भी स्थिर रहते हैं, इनका स्वरुप बना रहता है, इनकी भक्ति से अन्तःकर्ण पूर्ण शुद्ध हो जाता है, सारे नगर वासी भगवान् पर पुष्प वर्षा कर रहे थे। भगवान् की नगरी द्वारिका बहुत समृद्ध थी। नगर पहुँचते ही भगवान् ने पाञ्चजन्य शंख बजाया, लोग खुशी से भागे प्रभु के दर्शन को, भगवान् के होंठों से लाल हुआ श्वेत वर्ण का शंख बजते समय उनके कर कमलों में ऐसा लग रहा था जैसे लाल रंग के कमल पर बैठा कोई राजहंस मधुर गान कर रहा हो। भगवान् जब शंख बजाते तो पापियों को भय और भक्तों को अभय मिलता। नगर वासियों ने प्रसन्न मन से अनेक प्रकार से प्रभु का स्वागत किया । स्वामिन! हम आपके उन चरण कमलो को सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वंदना ब्रम्हा, शंकर और इन्द्र करते है, जो इस संसार में परम कल्याण चाहने वालों का एक मात्र व् सर्वोतम आश्रय है, भगवान् आपकी शरण में आने वालों का काल भी कुछ नही बिगाड़ सकता। हे विश्वभावन! आप हमारे स्वामी हैं, जब आप हस्तिनापुर या मथुरा चले जाते हैं तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण वर्षो के सामान हो जाता है । नगर वासियों की प्रेममयी वाणी सुन कर प्रभु कृपा दृष्टि बरसाते हुए द्वारिका में प्रविष्ट हुए। द्वारिका के वैभव की तुलना किसी से नही की जा सकती पवित्र वृक्षों, लताओं, कमल युक्त सरोवरों से घिरी द्वारिका का पराक्रम अतुलनीय था। भगवान् के स्वागत में हर द्वार पर मंगल कलश, दही, धूप, दीप और पताकाएँ लगी थीं। वासुदेव, अक्रूर, अग्रसेन, बलराम और जाम्बवती पुत्र साम्ब शुभ शकुन के साथ स्वागत को आगे आए। भगवान् ने योग्यता अनुसार सब का स्वागत किया। किसी को शीश झुकाकर, किसी से हाथ मिलाकर, किसी को गले लगा कर और किसी पर अमृत दृष्टि से। गुरु जनों का आशीर्वाद ले कर नगर में प्रभु ने प्रवेश किया ।


सूतजी शौनक जी से कहते हैं- कुल कामिनियाँ भगवान् के दर्शन को दौड़ी आईं, भगवान् के सुंदर वक्षस्थल में लक्ष्मी का निवास है, उनके नेत्र सुधामय हैं, भुजाएं शक्ति और चरण भक्ति का आश्रय स्थल है। जिसे नित्य, निहार कर भी तृप्ति नही मिलती। प्रभु का पीताम्बर और वनमाल ऐसे शोभायमान हो रहा है जैसे श्याम मेघ एक साथ सूर्य और चन्द्रमा से। भगवान् सबसे पहले माता और पिता के महल में गए, उन्हें प्रणाम किया, फिर अपने महल में गए। भगवान् के दर्शन पाकर रानियाँ भाव पूर्ण हो आनंदित हुई। पहले मन, फिर नेत्र और बाद में शरीर से प्रभु का आलिंगन किया। सूतजी शौनक जी से कहते है -लक्ष्मी जो स्वभाव से चंचल हैं, वे भी प्रभु को एक क्षण के लिए अकेला नही छोड़तीं तो अन्य कोई कैसे तृप्त हो सकता है। भगवान् ने युद्ध में इतनी बड़ी सेना को एक दूसरे से लड़वा कर ख़तम कर दिया और आप भी उपराम हो गए। जैसे वायु बांसों में घर्षण पैदा कर के दावा नल से जला देती है, उसी प्रकार भगवान् ने अधर्म को जला दिया और पृथ्वी को पवित्र कर दिया। वो ही साक्षात परमेश्वर का अवतार हैं, उनके अनुपम सौन्दर्य से बेसुध हो कर विश्व विजयी कामदेव ने अपना धनुष त्याग दिया। वे प्रकृति में स्थित हो कर भी उसके गुणों से लिप्त नही होते। यही तो है भगवत्सत्ता। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-२/अध्याय-२


श्री शुकदेव जी कहते है- जब सारी पृथ्वी जल में डूब गई थी, तब ब्रम्हा जी ने जगत को वैसे ही रचा जैसे प्रलय के पहले थी। वेद की वर्णन शैली बुद्धि को स्वर्ग के मायामय लोक में फंसा देती है, लेकिन मनुष्य को वहां भी सच्चे सुख की प्राप्ति नही होती । पुण्य समाप्त होते ही स्वर्ग का सुख छीन लिया जाता है, इसलिए विद्वान् परुष को इस माया से इतना ही प्रयोजन रखना चाहिए, जितना आवश्यक हो।


हमेशा याद रखो की स्वर्ग के उपार्जन का परिश्रम एक दिन व्यर्थ हो जायगा। संतोष बुद्धि रखना चाहिए। दृढ़ निश्चय से नारायण का भजन करो, अज्ञान का नाश हो जाता है। भगवान् का ध्यान करें-अपने ह्रदय के भीतर उनके स्वरुप की धारणा करें कि भगवान् की चार भुजाओं में शंख ,चक्र ,गदा और पद्म है। उनकी हँसी मोहक है, नेत्र कमल के समान विशाल, वे केसरिया वस्त्र धारण किए हुए है ,भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जड़ित सोने के बाजूबंद शोभायमान हैं। मस्तक पर सुंदर मुकुट और कानों में मकर कुंडल, उनके चरण कमलवत हैं, ह्रदय पर श्री वत्स का चिह्न -एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभ मणि लटक रही है, घुटनों तक उनके बनमाल हैं, कमर में करधनी, उँगलियों में अंगूठी, हाथो में कंगन धारण किए हैं, उनकी लटें घुघराली हैं, चितवन मोहक है। भगवान् के इस रूप को मन में बार -बार बिठाओ, जब तक यह रूप स्थिर न हो जाए। धीरे -धीरे बुद्धि शुद्ध हो होकर चित्त स्थिर हो जाएगा। ये भगवान विश्वेश्वर दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। प्रभु से अनन्य प्रेम हो, यही भक्ति -योग है ।


परीक्षित कहते हैं- नित्य शुद्ध हो कर, सुखासन में बैठ कर इस रूप का ध्यान करो। संयम से मन व् बुद्धि को अंतरात्मा में लीन कर दो, अंतरात्मा को परमात्मा के इसी रूप में लगा दो, शान्ति मय अवस्था में मन स्थित हो जाए। जब ऐसा कर लें, तो कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रहता। इस अवस्था में काल की दाल भी नहीं गलती, फिर देवता और मानव की क्या? योगी इस रूप के आगे जगत के सब पदार्थ को त्याग देते हैं, इस रूप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम में परिपूर्ण रहते हैं, यही तो परमपद है। ऐसा समस्त शास्त्र कहते हैं। योगी जब इस अवस्था में आ जाता है तब उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता। वह तीनों लोकों में विचरण कर सकता है, अपने मन व् बुद्धि से वह सब कुछ जान सकता है, शोक, दुःख, बुढ़ापा, मृत्यु से वह अभय हो जाता है। महाप्रलय के वक्त भी वह आनंद में रहता है, आवागमन से मुक्त हो जाता है, परमात्म स्वरुप हो जाता है । ऐसा भगवान् वासुदेव ने ब्रम्हा से कहा है। संसार में सबसे कल्याणकारी मार्ग है- प्रभु का नाम। यह अमृत है, जीवन को पावन कर देता है। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-३/अध्याय- २


इस अध्याय में उद्धव जी ने भगवान् की बाल लीलाओं का वर्णन किया है। श्री शुकदेव जी कहते है -जब विदुर जी ने उद्धव से श्री कृष्ण जी की बात की तो उनका ह्रदय भर आया। वो कुछ देर तक प्रभु के ध्यान में सराबोर हो मौन हो गए, प्रेम से ह्रदय भर गया, वाणी रुद्ध हो गई। उद्धव जी बचपन से ही भगवान् की पूजा और भक्ति में इस तरह लीन हो जाया करते थे कि उन्हें भोजन की सुध भी न रहती थी, वो माता के बुलाने पर भी न जाते थे। अब तो विदुर जी बूढे हो चले थे। तीव्र भक्ति में डूबे उद्धव से जब कोई श्री कृष्ण की बात करता तो वो सुध खो देते थे, नेत्रों से प्रेम के आंसू बहने लगते थे।


उद्धव जी ने कहा -विदुर जी! जब से श्रीकृष्ण रुपी सूर्य छिप गया, तब से हमारे घरों को कालरूपी अजगर ने खा डाला है। मनुष्य लोक (पृथ्वी) बड़ा अभागा है क्या कुशल सुनाऊं, यादव वंश तो नितान्त भाग्यहीन है, श्री कृष्ण के साथ रह कर भी "कृष्ण" को नही पहचाना। यादव बड़े समझदार, कृष्ण के मन के भाव को समझने वाले, भगवान् के साथ क्रीडा करने वाले थे, तो भी उन्हों ने "श्री कृष्ण" को एक श्रेष्ठ यादव ही समझा। जिन्होंने कभी तप नही किया, भगवान् ने उनको भी दर्शन दिया। जब मानव के, समाज के, धर्म के कार्य पूरे हो गए तो भगवान् अपने त्रिभुवन मोहन रूप को छिपा कर अंतर्ध्यान हो गए। योगमाया के प्रभाव से प्रभु ने मानव लीला करने हेतु इतना सुंदर विग्रह पाया कि सारा जगत उस रूप को निहार कर ही जड़ हो जाता था। उनके सौंदर्य में सौभाग्य और सुन्दरता की पराकाष्ठा थी। गुणों को उनकी तलाश होती थी। धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब भगवान् के नयनाभिराम रूप पर लोगों की दृष्टि पड़ी तब सबने यह माना की विधाता ने अपनी सब चतुराई इसी रूप में लगा दी है, उनके प्रेम पूर्ण हास्य, विनोद और बांकी चितवन को देख लोग जड़ हो जाते, पुत्तलिका बन जाते, ब्रज-बालाएं तो घर के काम-काज को छोड़ उनको देखने के लिए आती। भगवान् ने अजन्मा हो कर मानव उद्धार हेतु अवतार लिया। श्री कृष्ण की याद जब आती है, तो आज भी मेरा मन व्याकुल हो जाता है। ऐसा कौन है जो उनको भूल सके। महाभारत युद्ध में अर्जुन के वाणों से बिधे भीष्म पितामह श्री कृष्ण के दर्शन पाते ही अर्चना करने लगे, खुश हो कर परम धाम को गए।


उद्धव कहते हैं-विदुर जी, "श्री कृष्ण" के समान भी कोई और नही है, वे स्वतः सिद्ध ऐश्वर्य से पूर्ण है। इन्द्र आदि देवता अपने मुकुट को उनके चरण रखने रखने की चौकी पर रख कर प्रणाम करते है । ब्रम्हा जी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारने के लिए कंस के कारागार में भगवान् ने जनम लिया । उस समय कंस के डर से उनके पिता वासुदेव उन्हें नन्द बाबा के घर पहुँचा दिया जहाँ भगवान् ११ वर्ष तक रहे ब्रज में सबको सुख दिया अपनी बल लीला से सबको महामोह में दाल दिया ,भगवान् ने ग्वालो के साथ ,बछडो के साथ, गोपियों के साथ यमुना के उपवन में विहार किया। बांसुरी की सुरीली तान पर पूरा भुवन मुग्ध हो जाता मनुष्य तो क्या पशु -पक्षी भी जड़ हो जाते, हिरन भागे आते, चिडियां चहचहाना भूल जाती, फूल खिल जाते, भ्रमर गुनगुनाना भूल जाता, ब्रज गोपियाँ जो जिस अवस्था में होती भाग आती बांसुरी की सुरीली तान सुन कर उन्हें अपनी देह का भान नही रहता था। ब्रज में भगवान् ने खेल-खेल में कई रक्षसो को मार डाला, कालिया को मार कर यमुना जी के जहरीले जल को पवित्र कर दिया। भगवान् ने गोवर्धन पूजा करायी इन्द्र ने क्रोध में अतिवृष्टि की। भगवान् ने गोवर्धन को उठाया और ब्रज वासियों की रक्षा की। भगवान् ब्रज की शोभा बने। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।


इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_7560.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/bhagwataansh.html