स्कन्ध-१२/अध्याय-१३
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब पृथ्वी देखती है कि ये राजा लोग मुझे जीतना चाहते हैं, मुझ पर राज करना चाहते हैं, तो वह हँसती है। राजा जब एक द्वीप पर विजय पा लेता है तो वह दूसरे द्वीप पर विजय पाने के लिए अधिक शक्ति और उत्साह के साथ आक्रमण करता है। सोचता है, धीरे-धीरे क्रम से यह सारी पृथ्वी मेरे हो जाएगी, मैं उस पर राज करूँगा। उन्हें यह ध्यान नही रहता कि सिर पर काल सवार है। परीक्षित, पृथ्वी कहती है कि ये बड़े-बड़े वीर मुझे ज्यों की त्यों छोड़ कर, जहाँ से आए थे, खाली हाथ वहीँ लौट गए, मुझे साथ न ले जा सके। ये मूर्ख राजा जब यह जान लेते हैं की यह पृथ्वी मेरी है, तो उनके राज में "मेरे लिए" उनके भाई, बंधु, पिता, पुत्र सब आपस में लड़ने लगते हैं और कहते हैं- मेरी है, मेरी है। लड़ते हुए मर जाते हैं।
परीक्षित, अधिकाँश लोग होते तो निर्धन हैं, पर खाते बहुत हैं। भाग्य बहुत मंद होता है, पर बातें और कामनाएं बहुत बड़ी-बड़ी होती हैं। कलियुग की स्त्रियाँ कलह प्रिय होंगी, कुलटा और मर्यादा को भंग करने वाली होंगी, उनके संतानें बहुत होंगी, कद में छोटी होंगी पर भूख ज्यादा होगी, दुस्साहसी होंगी। कलियुग में लुटेरों की संख्या अधिक होगी, पाखंडी लोग वेदों का तात्पर्य मनमाने ढंग से करेंगे। गृहस्थ संन्यासी का अपमान करेगा, संन्यासी लोभी और धन संग्रह में रहेगा। सेवक अपने स्वामी को धोखा देगा। प्रेम का अर्थ केवल वासना तृप्ति तक होगा। प्रिय परीक्षित, कलियुग में तो वस्त्र, रोटी और दो हाथ जमीं से भी वंचित होंगे लोग। रिश्तों की उपेक्षा होगी। पाखंडियों के कारण लोग धर्म से भी विमुख हो जाएंगे क्योंकि ये लोग चित्त को भ्रमित कर देते हैं और लोग धर्म का मजाक बना लेते हैं। पाखंडियों के कारण ही धर्म अशुद्ध होगा।
परीक्षित, कलियुग में अनेक दोष हैं पर एक बड़ा गुण भी है। इस युग में जाने-अनजाने जो भी प्रभु नाम जप करेगा वो प्रभु का प्रिय होगा। सब दोषों का मूल स्रोत, अन्तःकरण में जब भगवान् विराजते हैं, तो नष्ट हो जाता है। हजारों जन्मों के पाप क्षण में भस्म हो जाते हैं, ह्रदय में स्थित भगवान् विष्णु अशुभ संस्कारों को सदा के लिए मिटा देते हैं। हर प्रकार की शुद्धि का एक ही उपाय है- भगवान् की सेवा।
- त्रिभुवनसुंदर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते ह्रदय में प्रवेश करके एक -एक अंग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप सौंदर्य को, जो नेत्र वाले जीवों के नेत्रों के लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थों का फल एवं स्वार्थ-परमार्थ सब कुछ है, श्रवण करके, प्यारे अच्युत, मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़ कर आपमें ही प्रवेश कर रहा है।
- प्रेमस्वरूप श्यामसुंदर! चाहे जिस दृष्टि से देखें, कुल, शील, स्वभाव, सौंदर्य, विद्या, अवस्था, धन-धान्य, सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्य लोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देख कर शान्ति का अनुभव करता है, आनंदित होता है। अब पुरूष भूषण, आप ही बताइये- ऐसी कौन सी कुलवती, महागुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी।
- इसलिए प्रियतम! मैंने आपको पति रूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे ह्रदय की बात आपसे छिपी नहीं है। आप यहाँ पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये। कमल नयन! प्राण वल्लभ! मैं आप सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाए, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाए।
- मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआ, वावली), इष्ट दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राम्हण और गुरु आदि की पूजा के द्बारा भगवान् परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान् श्री कृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें। शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरूष मेरा स्पर्श न कर सके।
- प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइये और फ़िर बड़े -बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासंध की सेनाओं को मथ डालिए, तहस-नहस कर दीजिये और बल पूर्वक राक्षस विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये।
- यदि आप यह सोचते हैं कि- तुम तो अन्तःपुर में भीतर के महलों में पहरे के अन्दर रहती हो, तुम्हारे भाई-बंधुओं को मारे बिना मैं तुम्हे कैसे ले जा सकता हूँ। तो इसका उपाय मैं आपको बतला देती हूँ। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिए एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जलूस निकलता है, जिसमें विवाही जाने वाली कन्या को, दुल्हन को, नगर के बाहर गिरिजा देवी के मन्दिर में जाना पड़ता है।
- कमलनयन! उमापति भगवान् शंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्मशुद्धि के लिए आपके चरण कमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी चरण धूल नही प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूंगी। चाहे उसके लिए सैकड़ों जन्म क्यों न लेना पड़े, कभी न कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य मिलेगा।
आपकी कोई समस्या ऐसी हो जो सुलझ न रही हो और आप अपने को असमर्थ पा रहे हों, तो आप श्री विष्णु जी को घी का दीपक दे, पीत वस्त्र और पुष्प से पूजन करें, उत्तम भोग अर्पित करें, पूर्ण समर्पण के साथ। आचमन दे कर नवीन वस्त्र का आसन दें। अब तुलसी या रुद्राक्ष की माला से एक माला निम्न मन्त्र का जप करें जब तक समस्या ख़तम न हो। आपकी कामना जरुर पूरी होगे। यह गजेन्द्र मोक्ष से लिया गया मन्त्र है, इसका शीघ्र प्रभाव होता है।
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम, पुरुषायादिवीजाय परेशायाभीधीमहि।
यस्मिन्निद यत्श्चेदं येनेदं य इदं स्वयम, योस्मात परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयं भुवम्।। अर्थ- जो जगत के मूल कारण हैं और जो सबके ह्रदय में पुरूष के रूप में विराजमान हैं, एवं समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं। जिनके कारण इस संसार में चेतनता का विस्तार होता है, उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ। यह संसार उन्ही में स्थित है, उन्ही की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमे व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण प्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान् की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
आशा है कि भागवत रुपी मधु को आप तक पहुचाने का मेरा यह प्रयास आपको अच्छा लगा।
नारायण को नमन।
इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।
इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html