शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - ८

स्कंध-१०/अध्याय-६


शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! नन्द ने मथुरा को छोड़ दिया क्योंकि वहाँ बहुत प्रकार के उत्पात हो रहे थे। वे अब ग्वाल बालो के साथ गोकुल में रहने लगे। कंस के द्बारा भेजी गई पूतना, जो बच्चों को खोज-खोज कर मार डालती थी, एक दिन वह सुंदर नारी का वेश बना कर गोकुल में आई। गोपियों ने उसके रूप और वेश को देख कर उसे कुलीन मान कर आदर किया। वह अनायास नन्द महल में चली आई। सोये हुए बाल कृष्ण को गोद में उठा लिया। माता देखती रही, रोक न सकी। पूतना भगवान् को दूध पिलाने लगी। वह अपने स्तन में विष लगा कर आई थी। भगवान् को क्रोध आया, वे दूध के साथ उसके प्राण भी पीने लगे। वह छटपटाने लगी, उसके प्राण निकल गए। उसका राक्षसी वेश प्रकट हो गया। एक भयंकर गर्जना के साथ वह भूमि पर गिर पड़ी। उसका रूप डरावना था, बाल कृष्ण उसकी छाती पर खेल रहे थे। ब्रजवासी घबराए हुए आए। माता ने दौड़ कर श्री कृष्ण को ले लिया। अनिष्ट से बचाने के लिए गाय की पूँछ का स्पर्श कराया, गो-धूलि लगया और बोलीं- अजन्मा भगवान् पैरों की, मणिमान घुटनों की, यज्ञ पुरूष जांघों की, अच्युत कमर की, हयग्रीव पेट की, केशव ह्रदय की, ईश वक्षस्थल की, सूर्य कंठ की, विष्णु भुजा की, इश्वर सिर की, भगवान् परम पुरूष तेरी सब ओर से रक्षा करें। ऋषिकेश भगवान् इन्द्रियों की और नारायण तेरे प्राणों की रक्षा करे। योगेश्वर मन की, परमात्मा अहंकार की रक्षा करें।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सब भगवान् के प्रेम पाश में बंधे हैं। माता ने दूध पिलाया, भगवान् को पालने में सुला दिया। इधर नन्द बाबा मथुरा से लौटे तो सब कुछ जाना। पूतना के भयंकर शरीर को देख कर चकित रह गए। उसे नगर से बाहर ले जाकर जला दिया। ब्रजवासियों को जलने पर उसके शरीर से खुशबू आ रही थी क्योंकि उसे भगवान् का स्पर्श मिल गया था। वह भगवान् को दूध पिलाने आई थी, इसलिए परम दयालु प्रभु ने उसे परम गति दी। मृत्यु के मुख से बचे अपने लाला को पाकर नन्द और यशोदा बहुत आनंद मना रहे थे। गोपियाँ मंगल गा रही थीं और गोप नाच रहे थे। ॐ तत्सत!!!




स्कन्ध-१०/अध्याय-१७



यह "कालिय"नाम के विषधर की कथा है। कालिय नाग की माँ कद्रू और गरुण जी की माँ विनता में परस्पर वैर था। इसके कारण गरुण जी को जो सर्प मिलता वे खा जाते। व्याकुल हो सब सर्प ब्रम्हा जी के पास गए। ब्रम्हा जी ने कहा- प्रत्येक अमावस्या को बारी बारी से एक सर्प परिवार गरुण जी को एक सर्प की बलि देगा। एक निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुण जी को अमावस्या के दिन बलि दी जाती। कद्रू पुत्र कालिय को विष के बल का घमंड था। वह गरुण का तिरस्कार करके बलि देने के बजाय दूसरे सर्प जो बलि देते उसे भी खा जाता।


परीक्षित जी बोले- परीक्षित! भगवान् के प्यारे पार्षद, शक्तिशाली गरुण जी को जब यह बात पता चली तो वे कालिय को मारने के लिए टूट पड़े। कालिय ने गरुण जी को दंश लिया और यमुना जी में छिप गया। एक दिन भूख से व्याकुल गरुण जी ने मत्स्यराज को खा लिया, मछलियाँ बहुत दुखी हुईं। मुनि सौभारी ने गरुण जी को शाप दिया कि- "फ़िर कभी मछलियों को खाओगे तो प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा" यह बात कालिय जान गया, वह निर्भय हो कर यमुना में रहने लगा। यमुना जी के तट पर भगवान् गायों को चराते और ग्वालों के साथ अनेक क्रीड़ाएं करते। यमुना जी में एक स्थान, जहाँ नाग का विष हरदम उबलता रहता था, भगवान् ने देखा कि वहाँ यमुना जी का जल विषैला हो रहा है। तब भगवान् यमुना जी में कूद गए। कालिय ने देखा कि एक सुंदर, कोमल, सलोना बालक विषैले जलकुंड में क्रीड़ा कर रहा है। वह चकित रह गया। उसने भगवान् को नाथ लिया, भगवान् ने अपना आकर बढाया और कूद कर कालिय के फन पर चढ़ गए और तांडव करने लगे। उसके फनों को कुचल दिया, रक्त की धारा बह चली, उसका अंग अंग चूर हो गया, मूर्छा आ गई। अब उसे नारायण की याद आई, विनीत हुआ- मुझ पर कृपा करें। नाग पत्नियाँ भी स्तुति करने लगी। श्री कृष्ण ने कहा- सर्प, तू यहाँ से चला जा। तू गरुण के डर से यहाँ रह रहा है, वे अब तुझे नही मारेंगे क्योंकि अब तुम्हारे शरीर पर मेरे चरण चिन्ह पड़ गये हैं। नाग ने भगवान् की पूजा की और रमणीक द्वीप पर चला गया। यमुना जी का जल निर्मल हो गया,k ब्रजवासी आनंदित हुए। उस रात सब लोग यमुना के तट पर सोये। अर्ध रात्री को अचानक वन में आग लग गयी। ब्रजवासी आग में घिरे प्रार्थना कर रहे थे- हे भगवान् मुझे बचाओ। भगवान् उस आग को पी गये। नन्द-यशोदा, सब कुशल है, देख कर हर्षित हुए। सबने प्रार्थना की- हे अनंत, हम आपकी शरण में हैं। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय-३०


यमुना के किनारे कुमुदनी की सुवासित वायु आनंद को बढ़ा रही थी। शीतल चांदनी पूर्णिमा की छटा, भगवान् वैजन्ती की माला पहने गोपियों को प्रेम की सीमा तक ले गये। सबको मान हो गया कि भगवान् तो केवल मेरे हैं। इसी बीच प्रभु अंतर्धान हो गये।


शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! गोपियों का ह्रदय विरह ज्वाला से जलने लगा। वे वृक्षों, लताओं, हिरनों और पक्षियों से कृष्ण का पता पूछ रही हैं। उनकी गजराज की चाल, तिरछी चितवन, प्रेम भरी मुस्कान, वल्गुवाक्य जो गोपियों के मन को हर लेते हैं। गोपियों के संग बीते पलों के साक्षी कुंजो से, पीपल, पाकर, बरगद से पूछती हैं- तुमने मेरे श्याम को देखा? अशोक, नागकेसर, पुन्नाग और चम्पा, क्या तुमने श्याम सुंदर को देखा जिनकी मुस्कान मुनियों के मन को हर लेती है? तुलसी, तुम तो सबका कल्याण करती हो, भगवान् तुमसे और तुम उनसे बहुत प्रेम करती हो, तुम्हारी माला वे कभी नही उतारते, क्या तुमने देखा? प्यारी मालती, जूही. मल्लिके क्या कृष्ण इधर आए थे?


रसाल, प्रियाल, कटहल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसरी, आम, कदम्ब और नीम, तुम तो उपकार करते हो, बताओ हमारे प्रियतम किधर गये? उनके बिना हमारा जीवन सूना हो गया है। लताओं, तुमने देखा है? उनके अंग अंग से सौन्दर्य की धारा बहती है। इस प्रकार कातर हो कर गोपियाँ कृष्ण को खोज रही हैं। उनकी एक एक लीला को याद कर रही हैं। कोई गोपी कृष्ण का वेश बनाती है, कोई उनकी तरह चलती है, कोई कालिय नाग बनती है तो दूसरी सिर पर चढ़ कर कहती है- रे सर्प, तू यहाँ से चला जा। भगवान् को खोजते हुए एक स्थान पर गोपियों ने चरण चिन्ह देखा। बोली, ये चरण नन्द-नंदन के हैं। इसमें ध्वजा, कमल, वज्र, अंकुश और यव के चिन्ह हैं। आगे गईं तो एक गोपी के चरण चिन्ह भी दिखे, व्याकुल हो गईं की ये किस के चिन्ह है जिसे भगवान् का संग मिल गया। वह अवश्य श्री कृष्ण की आराधिका होगी। खोजते हुए आगे बढ़ी तो राधा विलाप करती हुई मिली। बताया -भगवान् मुझे यहाँ ले आए, मैंने समझा मैं ही श्रेष्ठ हूँ। मतवाली हो गई, कुछ देर में बोली, भगवान् मुझसे अब नही चला जा रहा। मुझे अपने कंधे पर बिठा लो, जहाँ चाहे ले चलो, श्याम सुंदर ने कहा मेरे कंधे पर चढ़ जाओ। ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने चली- अंतर्धान हो गये, अब पछता रही हूँ। हे नाथ, मैं तुम्हारी दीन हीन दासी हूँ, मुझे दर्शन दो। मैंने आप का अपमान किया है। गोपियाँ खोजती हुई घोर जगल में गई, भगवान् को न पाकर लौट आई। यमुना की रमन रेती पर सब मिलकर कृष्ण के गुणों का गान करने लगीं, पुकारने लगीं। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय-४२


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! श्री कृष्ण मथुरा पुरी में आए हैं। बलराम के साथ नगर भ्रमण कर रहे हैं। जो उनको देख लेता है, वो उनके पीछे लग जाता है, उनकी रूप माधुरी में लिपटा चला आता है। मथुरा वासियों का एक झुंड पीछे चल रहा है। मार्ग में एक कुबरी स्त्री मिली, चंदन लेकर जा रही थी। भगवान् ने कहा यह चन्दन मुझे दो, तुम्हारा कल्याण होगा (प्रभु उसका भाग्य सवारने के लिए उस पर कृपा की)। कुब्जा बोली- हे परम सुंदर !मैं कंस की दासी हूँ त्रिवक्रा (कुब्जा)। यह चन्दन और अंगराग उसके लिए ले जा रही थी पर इसके उत्तम पात्र आप हैं, कुब्जा ने अपना ह्रदय न्योछावर कर दिया। भगवान् का मंद हास्य, चारु चितवन देख कर वह अपनी सुध खो गई। उसने भगवान् को चंदन लगाया। श्री कृष्ण उस पर प्रसन्न हो गए। तीन जगह से टेढ़ी कुब्जा के पंजों पर भगवान् ने अपना चरण रखा और हाथ उठा कर दो उँगलियों को गले पर लगा कर उसके शरीर को थोड़ा सा उठा दिया। इतना करते ही उसके सारे अंग सीधे हो गए, वो रूपवती बन गई। अब उसके मन में भगवान् को पाने की कामना जगी। बोली- वीर शिरोमणि! हमारे घर चलिए, मुझपर प्रसन्न होइए। पुरुषोत्तम, मैं आपको नही छोड़ सकती। भगवान् आने का वादा करके चले।


अब वे मथुरा की रंग शाला में पहुंचे। वहाँ एक अद्भुत धनुष देखा। उसमें कई धनुष लगे थे। वह बहुमूल्य अलंकारों से सजा था, उसकी पूजा हुई थी और सैनिक उसकी रखवाली कर रहे थे। सैनिकों के रोकने पर भी उस धनुष को भगवान् ने उठा लिया। डोरी चढ़ा कर खीचा, एक भयंकर आवाज़ के साथ धनुष टूट गया। सैनिकों ने भगवान् को घेरने व पकड़ने की कोशिश की। भगवान् ने सब का संहार किया। यह बात जब कंस को पता चली तो वह डर गया। इधर श्री कृष्ण अपने छकड़े पर, जो नगर के बाहर था, वहाँ रात को विश्राम किया। नगरवासियों ने उनके रूप और पराक्रम को देख कर निश्चय किया कि ये दोनों वीर श्रेष्ठ देवता हैं। अब कंस को मृत्यु सूचक अपशकुन होने लगे। प्रात: उसने रंग शाला का आयोजन किया, उसमे बड़े-बड़े वीर अखाडे में बुलवाए और कंस एक मंच पर
बैठा था। वह बहुत डरा हुआ था। ॐ तत्सत्!!!

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