मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

भागवतांश - २


अगले कुछ ब्लॉग भागवत के कुछ उन अध्यायों का वर्णन करेंगे जो हमारी कामना को पूर्ण करते हैं।



स्कंध -१/अध्याय -११:




प्रथम स्कंध में वर्णन है- महाभारत युद्ध के बाद भगवान् ने धर्म का राज्य स्थापित किया। युधिष्ठिर को राजा बनाया, भगवान् अपने बांधवो का शोक मिटाने के लिए महीनों हस्तिनापुर में रहे। जब जाने की अनुमति मांगी, तो राजा ने ह्रदय से लगा कर स्वीकृति दे दी। भगवान् रथ पर सवार हो कर द्वारिका के लिए चले। हस्तिनापुर के नर नारी विरह से व्याकुल आपस में कह रहे है- ये ही वो सनातन पुरूष हैं जो प्रलय काल में भी स्थिर रहते हैं, इनका स्वरुप बना रहता है, इनकी भक्ति से अन्तःकर्ण पूर्ण शुद्ध हो जाता है, सारे नगर वासी भगवान् पर पुष्प वर्षा कर रहे थे। भगवान् की नगरी द्वारिका बहुत समृद्ध थी। नगर पहुँचते ही भगवान् ने पाञ्चजन्य शंख बजाया, लोग खुशी से भागे प्रभु के दर्शन को, भगवान् के होंठों से लाल हुआ श्वेत वर्ण का शंख बजते समय उनके कर कमलों में ऐसा लग रहा था जैसे लाल रंग के कमल पर बैठा कोई राजहंस मधुर गान कर रहा हो। भगवान् जब शंख बजाते तो पापियों को भय और भक्तों को अभय मिलता। नगर वासियों ने प्रसन्न मन से अनेक प्रकार से प्रभु का स्वागत किया । स्वामिन! हम आपके उन चरण कमलो को सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वंदना ब्रम्हा, शंकर और इन्द्र करते है, जो इस संसार में परम कल्याण चाहने वालों का एक मात्र व् सर्वोतम आश्रय है, भगवान् आपकी शरण में आने वालों का काल भी कुछ नही बिगाड़ सकता। हे विश्वभावन! आप हमारे स्वामी हैं, जब आप हस्तिनापुर या मथुरा चले जाते हैं तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण वर्षो के सामान हो जाता है । नगर वासियों की प्रेममयी वाणी सुन कर प्रभु कृपा दृष्टि बरसाते हुए द्वारिका में प्रविष्ट हुए। द्वारिका के वैभव की तुलना किसी से नही की जा सकती पवित्र वृक्षों, लताओं, कमल युक्त सरोवरों से घिरी द्वारिका का पराक्रम अतुलनीय था। भगवान् के स्वागत में हर द्वार पर मंगल कलश, दही, धूप, दीप और पताकाएँ लगी थीं। वासुदेव, अक्रूर, अग्रसेन, बलराम और जाम्बवती पुत्र साम्ब शुभ शकुन के साथ स्वागत को आगे आए। भगवान् ने योग्यता अनुसार सब का स्वागत किया। किसी को शीश झुकाकर, किसी से हाथ मिलाकर, किसी को गले लगा कर और किसी पर अमृत दृष्टि से। गुरु जनों का आशीर्वाद ले कर नगर में प्रभु ने प्रवेश किया ।


सूतजी शौनक जी से कहते हैं- कुल कामिनियाँ भगवान् के दर्शन को दौड़ी आईं, भगवान् के सुंदर वक्षस्थल में लक्ष्मी का निवास है, उनके नेत्र सुधामय हैं, भुजाएं शक्ति और चरण भक्ति का आश्रय स्थल है। जिसे नित्य, निहार कर भी तृप्ति नही मिलती। प्रभु का पीताम्बर और वनमाल ऐसे शोभायमान हो रहा है जैसे श्याम मेघ एक साथ सूर्य और चन्द्रमा से। भगवान् सबसे पहले माता और पिता के महल में गए, उन्हें प्रणाम किया, फिर अपने महल में गए। भगवान् के दर्शन पाकर रानियाँ भाव पूर्ण हो आनंदित हुई। पहले मन, फिर नेत्र और बाद में शरीर से प्रभु का आलिंगन किया। सूतजी शौनक जी से कहते है -लक्ष्मी जो स्वभाव से चंचल हैं, वे भी प्रभु को एक क्षण के लिए अकेला नही छोड़तीं तो अन्य कोई कैसे तृप्त हो सकता है। भगवान् ने युद्ध में इतनी बड़ी सेना को एक दूसरे से लड़वा कर ख़तम कर दिया और आप भी उपराम हो गए। जैसे वायु बांसों में घर्षण पैदा कर के दावा नल से जला देती है, उसी प्रकार भगवान् ने अधर्म को जला दिया और पृथ्वी को पवित्र कर दिया। वो ही साक्षात परमेश्वर का अवतार हैं, उनके अनुपम सौन्दर्य से बेसुध हो कर विश्व विजयी कामदेव ने अपना धनुष त्याग दिया। वे प्रकृति में स्थित हो कर भी उसके गुणों से लिप्त नही होते। यही तो है भगवत्सत्ता। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-२/अध्याय-२


श्री शुकदेव जी कहते है- जब सारी पृथ्वी जल में डूब गई थी, तब ब्रम्हा जी ने जगत को वैसे ही रचा जैसे प्रलय के पहले थी। वेद की वर्णन शैली बुद्धि को स्वर्ग के मायामय लोक में फंसा देती है, लेकिन मनुष्य को वहां भी सच्चे सुख की प्राप्ति नही होती । पुण्य समाप्त होते ही स्वर्ग का सुख छीन लिया जाता है, इसलिए विद्वान् परुष को इस माया से इतना ही प्रयोजन रखना चाहिए, जितना आवश्यक हो।


हमेशा याद रखो की स्वर्ग के उपार्जन का परिश्रम एक दिन व्यर्थ हो जायगा। संतोष बुद्धि रखना चाहिए। दृढ़ निश्चय से नारायण का भजन करो, अज्ञान का नाश हो जाता है। भगवान् का ध्यान करें-अपने ह्रदय के भीतर उनके स्वरुप की धारणा करें कि भगवान् की चार भुजाओं में शंख ,चक्र ,गदा और पद्म है। उनकी हँसी मोहक है, नेत्र कमल के समान विशाल, वे केसरिया वस्त्र धारण किए हुए है ,भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जड़ित सोने के बाजूबंद शोभायमान हैं। मस्तक पर सुंदर मुकुट और कानों में मकर कुंडल, उनके चरण कमलवत हैं, ह्रदय पर श्री वत्स का चिह्न -एक सुनहरी रेखा है। गले में कौस्तुभ मणि लटक रही है, घुटनों तक उनके बनमाल हैं, कमर में करधनी, उँगलियों में अंगूठी, हाथो में कंगन धारण किए हैं, उनकी लटें घुघराली हैं, चितवन मोहक है। भगवान् के इस रूप को मन में बार -बार बिठाओ, जब तक यह रूप स्थिर न हो जाए। धीरे -धीरे बुद्धि शुद्ध हो होकर चित्त स्थिर हो जाएगा। ये भगवान विश्वेश्वर दृश्य नहीं, द्रष्टा हैं। प्रभु से अनन्य प्रेम हो, यही भक्ति -योग है ।


परीक्षित कहते हैं- नित्य शुद्ध हो कर, सुखासन में बैठ कर इस रूप का ध्यान करो। संयम से मन व् बुद्धि को अंतरात्मा में लीन कर दो, अंतरात्मा को परमात्मा के इसी रूप में लगा दो, शान्ति मय अवस्था में मन स्थित हो जाए। जब ऐसा कर लें, तो कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रहता। इस अवस्था में काल की दाल भी नहीं गलती, फिर देवता और मानव की क्या? योगी इस रूप के आगे जगत के सब पदार्थ को त्याग देते हैं, इस रूप का आलिंगन करते हुए अनन्य प्रेम में परिपूर्ण रहते हैं, यही तो परमपद है। ऐसा समस्त शास्त्र कहते हैं। योगी जब इस अवस्था में आ जाता है तब उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता। वह तीनों लोकों में विचरण कर सकता है, अपने मन व् बुद्धि से वह सब कुछ जान सकता है, शोक, दुःख, बुढ़ापा, मृत्यु से वह अभय हो जाता है। महाप्रलय के वक्त भी वह आनंद में रहता है, आवागमन से मुक्त हो जाता है, परमात्म स्वरुप हो जाता है । ऐसा भगवान् वासुदेव ने ब्रम्हा से कहा है। संसार में सबसे कल्याणकारी मार्ग है- प्रभु का नाम। यह अमृत है, जीवन को पावन कर देता है। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-३/अध्याय- २


इस अध्याय में उद्धव जी ने भगवान् की बाल लीलाओं का वर्णन किया है। श्री शुकदेव जी कहते है -जब विदुर जी ने उद्धव से श्री कृष्ण जी की बात की तो उनका ह्रदय भर आया। वो कुछ देर तक प्रभु के ध्यान में सराबोर हो मौन हो गए, प्रेम से ह्रदय भर गया, वाणी रुद्ध हो गई। उद्धव जी बचपन से ही भगवान् की पूजा और भक्ति में इस तरह लीन हो जाया करते थे कि उन्हें भोजन की सुध भी न रहती थी, वो माता के बुलाने पर भी न जाते थे। अब तो विदुर जी बूढे हो चले थे। तीव्र भक्ति में डूबे उद्धव से जब कोई श्री कृष्ण की बात करता तो वो सुध खो देते थे, नेत्रों से प्रेम के आंसू बहने लगते थे।


उद्धव जी ने कहा -विदुर जी! जब से श्रीकृष्ण रुपी सूर्य छिप गया, तब से हमारे घरों को कालरूपी अजगर ने खा डाला है। मनुष्य लोक (पृथ्वी) बड़ा अभागा है क्या कुशल सुनाऊं, यादव वंश तो नितान्त भाग्यहीन है, श्री कृष्ण के साथ रह कर भी "कृष्ण" को नही पहचाना। यादव बड़े समझदार, कृष्ण के मन के भाव को समझने वाले, भगवान् के साथ क्रीडा करने वाले थे, तो भी उन्हों ने "श्री कृष्ण" को एक श्रेष्ठ यादव ही समझा। जिन्होंने कभी तप नही किया, भगवान् ने उनको भी दर्शन दिया। जब मानव के, समाज के, धर्म के कार्य पूरे हो गए तो भगवान् अपने त्रिभुवन मोहन रूप को छिपा कर अंतर्ध्यान हो गए। योगमाया के प्रभाव से प्रभु ने मानव लीला करने हेतु इतना सुंदर विग्रह पाया कि सारा जगत उस रूप को निहार कर ही जड़ हो जाता था। उनके सौंदर्य में सौभाग्य और सुन्दरता की पराकाष्ठा थी। गुणों को उनकी तलाश होती थी। धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब भगवान् के नयनाभिराम रूप पर लोगों की दृष्टि पड़ी तब सबने यह माना की विधाता ने अपनी सब चतुराई इसी रूप में लगा दी है, उनके प्रेम पूर्ण हास्य, विनोद और बांकी चितवन को देख लोग जड़ हो जाते, पुत्तलिका बन जाते, ब्रज-बालाएं तो घर के काम-काज को छोड़ उनको देखने के लिए आती। भगवान् ने अजन्मा हो कर मानव उद्धार हेतु अवतार लिया। श्री कृष्ण की याद जब आती है, तो आज भी मेरा मन व्याकुल हो जाता है। ऐसा कौन है जो उनको भूल सके। महाभारत युद्ध में अर्जुन के वाणों से बिधे भीष्म पितामह श्री कृष्ण के दर्शन पाते ही अर्चना करने लगे, खुश हो कर परम धाम को गए।


उद्धव कहते हैं-विदुर जी, "श्री कृष्ण" के समान भी कोई और नही है, वे स्वतः सिद्ध ऐश्वर्य से पूर्ण है। इन्द्र आदि देवता अपने मुकुट को उनके चरण रखने रखने की चौकी पर रख कर प्रणाम करते है । ब्रम्हा जी की प्रार्थना से पृथ्वी का भार उतारने के लिए कंस के कारागार में भगवान् ने जनम लिया । उस समय कंस के डर से उनके पिता वासुदेव उन्हें नन्द बाबा के घर पहुँचा दिया जहाँ भगवान् ११ वर्ष तक रहे ब्रज में सबको सुख दिया अपनी बल लीला से सबको महामोह में दाल दिया ,भगवान् ने ग्वालो के साथ ,बछडो के साथ, गोपियों के साथ यमुना के उपवन में विहार किया। बांसुरी की सुरीली तान पर पूरा भुवन मुग्ध हो जाता मनुष्य तो क्या पशु -पक्षी भी जड़ हो जाते, हिरन भागे आते, चिडियां चहचहाना भूल जाती, फूल खिल जाते, भ्रमर गुनगुनाना भूल जाता, ब्रज गोपियाँ जो जिस अवस्था में होती भाग आती बांसुरी की सुरीली तान सुन कर उन्हें अपनी देह का भान नही रहता था। ब्रज में भगवान् ने खेल-खेल में कई रक्षसो को मार डाला, कालिया को मार कर यमुना जी के जहरीले जल को पवित्र कर दिया। भगवान् ने गोवर्धन पूजा करायी इन्द्र ने क्रोध में अतिवृष्टि की। भगवान् ने गोवर्धन को उठाया और ब्रज वासियों की रक्षा की। भगवान् ब्रज की शोभा बने। ॐ तत्सत!!!

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