शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - ९

स्कन्ध -१०/अध्याय-५४


शिशुपाल के साथी राजाओं और रुक्मी की हार तथा श्री कृष्ण-रुक्मणी विवाह।



श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवन की माया के समान ही मोहित कर देने वाली रुक्मणी जी के अपूर्व सौंदर्य को देख बड़े-बड़े यशस्वी वीर मोहित हो गए। रुक्मणी जी उत्सव यात्रा के बहाने मंद-मंद गति से चलकर भगवान् श्री कृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा करती हुई बहुत धीरे धीरे आगे बढ़ रही थीं, तभी उन्हें श्री कृष्ण के दर्शन हुए। भगवान् ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते रुक्मणी जी को रथ पर बैठा लिया, जिस पर गरुण जी का ध्वज लगा था। भगवान् रुक्मणी जी को ले कर यदुवंशियों के साथ चले, सारे राजा देखते रहे। "हमें धिक्कार है", यह कहते हुए क्रोध से आग बबूला होकर सेना सहित राजा लोग धनुष लेकर भगवान् के पीछे दौड़े।


परीक्षित कहते हैं- राजन! जब यदुवंशियों ने देखा की शत्रु दल हम पर चढ़ा आ रहा है, तो उन लोगों ने पलट कर युद्ध किया और देखते -देखते जरासंध की सारी सेना को भगवान् ने तहस-नहस कर दिया। उनके वाणों से रथ, घोड़े, हाथी, गदा और शत्रुओं के सिर कट कट कर गिरने लगे। जरा संध और बचे हुए राजा पीठ दिखा कर भागे। शिशुपाल भी अपनी भावी पत्नी के छीन लिए जाने के कारण बहुत दुखी था। जरासंध ने उसे समझाया- शिशुपाल उदासी छोड़ दो, अनुकूलता और प्रतिकूलता स्थिर नही रहती। यह जीवन भगवान् की इच्छा के अनुसार चलता है। मुझे देखो- श्री कृष्ण ने मुझे सत्रह बार हराया है, मैं केवल एक बार उनको हरा पाया- अठारहवी बार। फ़िर भी मैं शोक नही करता। मैं जानता हूँ- काल ही इस जगत को चलने वाला है आज यदुवंशियों की थोडी सी सेना ने हमें हरा दिया। आज काल उनके अनुकूल है। इस प्रकार सांत्वना पाकर बचे हुए राजा अपने-अपने नगर को चले गए। पर रुक्मणी जी का भाई रुक्मी, जो श्री कृष्ण से बहुत द्वेष रखता था, वह नही चाहता था कि श्री कृष्ण इस प्रकार उसकी बहन को हरण कर ले जाएँ।


शुकदेव जी कहते हैं- रुक्मी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई वह भगवान् को नही जानता था। बोला- आज मैं तुझे यही सुला दूंगा। अगर मैं तुझे न मार सका तो लौट कर अपने राज्य कुन्दीनपुर नही जाऊँगा। भगवान् मुस्कराए और उसके सारे अस्त्र-शस्त्र, रथ, शूल आदि को तिल-तिल काट डाला। फिर भी वह नही माना। जब रुक्मणी जी ने देखा कि अब तो श्री कृष्ण उनके भाई को मार ही डालना चाहते हैं, तो वे श्री कृष्ण जी के चरणों में गिर कर बोली- हे देवताओं के आराध्य! जगत्पते योगेश्वर! आप परम बलवान हैं और कल्याण स्वरूप भी, प्रभो मेरे भाई को मारना आपके योग्य काम नही है।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- रुक्मणी जी भय के कारण थर-थर काँप रही थी, उनको देख कर भगवान् करुणा से द्रवित हो गए, रुक्मी को छोड़ दिया। पर रुक्मी अब भी अनिष्ट की चेष्टा करता रहा। भगवान् ने उसी के दुपट्टे से उसे बाँध कर उसकी दाढ़ी-मूंछ और केशों को मुंड कर छोड़ दिया, पर बलराम जी ने उसका बंधन खोल दिया और श्री कृष्ण से बोले यह व्यवहार उचित नही है। रुक्मी का तेज नष्ट हो चुका था, वह अपनी प्रतिज्ञा अनुसार अपनी राजधानी भी नही गया। वहीँ पर "भोज कट" नाम की एक बहुत बड़ी नगरी बसाई और क्रोध वश वहीँ रहने लगा। भगवान् रुक्मणी जी को लेकर बलराम और सेना के साथ द्वारिका आए। विधि पूर्वक रुक्मणी जी के साथ भगवान् का विवाह हुआ। घर घर उत्सव मनाया जाने लगा। अनेक नर पति आमंत्रित किए गए। द्वरिका नगरी को दुल्हन की तरह सजाया गया। केले और सुपारी के पौधे रोपे गए। कुरु, कैकेय, विदर्भ, यदु और कुंती के वंशो के लोग आनंद मना रहे थे। रुक्मणी हरण और विवाह की गाथा के गीत गाए गए। नगर वासी परमानन्द में डूबे थे। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय-६५


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! श्री बलराम जी के मन में नन्द-यशोदा और ब्रजवासियों से मिलने की बड़ी इच्छा थी। वे ब्रज आए, माँ बाबा से मिले, नन्द ने प्रेमाश्रुओं से भिगो दिया। गोप-गोपियों से मिले, खूब हँस कर मीठी बातें की। इन ग्वालों ने कृष्ण के वियोग में समस्त भोगों को त्याग दिया था। वे बार-बार बलराम से कृष्ण के बारे में पूछते- अब तो वे बाल बच्चे वाले हो गए हैं, क्या उनको हमारी याद आती है? आप दोनों ने पापी कंस को मार डाला, यह बड़े सौभाग्य की बात है। हमारे सखा तो अब किले में रहते हैं। बलराम जी के दर्शन कर गोपियाँ निहाल हो गईं।


वे पूछ रहीं हैं- हमारे प्राण सखा कुशल से हैं न? क्या वे अपनी माँ के दर्शन को आयेंगे? उनको कभी हमारी याद आती है? हम चाहतीं तो उनको रोक लेतीं, पर जब वे कहते हम तो तुम्हारे हैं, तुम्हारे उपकार का बदला हम नही चुका सकते। तब ऐसी कौन स्त्री है जो उनको रोकती, पर वे हमें छोड़ गए। एक गोपी बोली- हम तो गाँव की गँवार हैं जो उनकी मीठी बातों में आ गईं, पर नगर की स्रियाँ भी उनकी मोहक मुस्कान और प्रेम भरी चितवन पर अपने प्राण न्योछावर करती होंगी। दूसरी गोपी बोली- अरे सखी, वह बड़ा निष्ठुर है, हमारा जीवन अब विरह में ही कटेगा। इस प्रकार श्री कृष्ण के ध्यान में गोपियाँ तन्मय हो कर रोने लगी। बलराम भी बातें करने में निपूर्ण थे। वे गोपियों को मन भावन लुभावना संदेश श्री कृष्ण की तरफ से दे रहे थे और कृष्ण प्रेम में वृद्धि कर रहे थे। वे दो मास ब्रज में रहे। यमुना का तट, शीतल और सुगंध भरी वायु, पूर्णिमा की रात्रि,a बलराम गोपियों संग विहार कर रहे हैं, आनंदित हैं। गले में वैजयंती की माला, कानों में कुंडल चमक रहा है। बलराम जी ने जल क्रीड़ा करने के लिए यमुना जी को पुकारा, वे नहीं आईं, तब बलराम जी ने क्रोध से अपने हल की नोक से उनको खींचा। बोले, तू मेरा तिरस्कार कर रही है, मैं तेरे सौ टुकड़े कर देता हूँ। यमुना जी भयभीत हो कर बलराम के चरणों में गिर पडीं। बोलीं- हे महाबाहो! मैं आपके पराक्रम को जान गई, आप शेष जी के अंश से सारे जगत को धारण करते हैं। भगवन्! आप परम ऐश्वार्यशाली हैं। अनजाने में मुझसे अपराध हुआ, मुझे क्षमा कर दें, मैं आपकी शरण में हूँ। यमुना जी की प्रार्थना से बलराम खुश हो गये। गोपियों के साथ जल विहार करके जब वे बाहर आए तो लक्ष्मी जी ने उनको सुंदर आभूषण उपहार में दिया। यमुना जी आज भी बलराम जी के खींचे हुए मार्ग से बहती हैं। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१०/अध्याय- ७८


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! श्री कृष्ण ने बहुत से अत्त्याचारी राजाओं का वध किया जो किसी और से नही हो सकता। शिशुपाल, शाल्व,पौन्द्र को मारा तो दन्तवक्त्र युद्ध भूमि में आया। बोला- कृष्ण, मैं तुम्हे मारना नहीं चाहता, तुम मेरे मामा के लड़के हो। पर तुम मुझे मारना चाहते हो, इसलिए मैं तुमको मारूँगा। उसने घमंड में चूर भगवान् पर गदा से वार किया। प्रभु तनिक न हिले, अपनी कौमोदकी गदा से उसके वक्षस्थल पर प्रहार किया, दन्तवक्त्र खून की उल्टियाँ करता गिरा, मर गया। अब उसका भाई विदुरथ आया। भगवान् ने किरीट सहित उसका सिर चक्र से काट दिया। तब भगवान् ने द्वारिका में प्रवेश किया।


भगवान् के स्वागत में द्वारिका खूब सजी थी। देवता पुष्पवर्षा कर रहे थे। सिद्ध, गंधर्व, यक्ष, किन्नर उनका जय गान कर रहे थे। चहुँ ओर आनंद छाया था। एकबार बलराम जी ने सुना कि कौरव और पांडव युद्ध की तैयारी कर रहे हैं, तो वे तीर्थ के बहाने द्वारिका से चले गए। वे किसी का पक्ष लेना नहीं चाहते थे। पहले वे प्रभास क्षेत्र में गए, स्नान, दान और तर्पण किया। फिर वे पृथूदक, विन्दुसर सुदर्शन, विशाल, ब्रम्हा तीर्थ, चक्र तीर्थ से नैमिषारण्य गये। वहाँ दीर्घ कालिक सत्संग चल रहा था, बलराम जी के पहुँचने पर संतों ने उनका स्वागत किया, पर व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यास पीठ से नही उठे। यह देख कर बलराम को क्रोध आया बोले यह सूत जाति का है, इसलिए यह व्यास पीठ पर नही बैठ सकता। दूसरे यह विनयी नहीं है, यह धर्म का स्वांग रचता है, संयमी नही है, यह मृत्यु का पात्र है। इतना कह कर कुश की नोक से उन पर प्रहार किया, वे तुंरत मर गए। अब ऋषियों में हाहाकार मच गया। बोले-हमने ही सूत जी को व्यास गद्दी पर बिठाया था, प्रभु आपने अधर्म किया। बलराम जी बोले -मैं लोक शिक्षा के लिए इस ब्रम्ह हत्या का प्रायश्चित करूँगा, आप विधान बताएं। रोमहर्षण के स्थान पर उनके पुत्र को व्यास गद्दी पर नियुक्त किया। बलराम जी ने अपनी शक्ति से उसे दीर्घ आयु और बल दिया। ऋषियों से कहा- आपकी कोई कामना हो तो बताइये। ऋषियों ने कहा- वल्वल नाम का एक राक्षस जो यज्ञ शाला को दूषित कर देता है; मांस, मदिरा, विष्ठा और खून की वर्ष करता है, हम सब उससे दुखी हैं। बलराम जी ने वल्वल को मार डाला, ऋषि प्रसन्न हुए। वहाँ से चलकर बलराम जी ने भारत वर्ष के सभी तीर्थ क्षेत्रों का भ्रमण किया। ॐ तत्सत्!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_26.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9737.html

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें