शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - ६

स्कन्ध-६/अध्याय-१६



राजा चित्रकेतु का पाँच वर्षीय पुत्र जिसे अन्य रानियों ने विष दे दिया, वह मर गया। राजा-रानी शोकाकुल विलाप कर रहे हैं, महर्षि नारद ने उन्हें समझाया। श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवर्षि नारद ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को स्वजनों के सामने बुलाकर कहा- जीवात्मन! तुम्हारा कल्याण हो। देखो तुम्हारे माता पिता और स्वजन वियोग से शोकाकुल हो रहे हैं, इसलिए तुम अपने शरीर में आ जाओ और शेष जीवन इनके साथ रहो और सिंहासन को संभालो। जीवात्मा ने कहा- देवर्षि! मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मो से भटक रहा हूँ। हर जन्म में नए-नए माता-पिता बने, सम्बन्ध बदलते रहे। जैसे क्रय-विक्रय की वस्तुएं एक व्यापारी से दूसरे के पास जाती रहती हैं, वैसे ही जीव भी विभिन्न योनियों और संबंधो में उत्पन्न होता रहता है। जब तक सम्बन्ध रहता है, ममता रहती है, उसके बाद नही। जीव नित्य. अंहकार रहित, समरूप होता है, यह ईश लीला के कारण अपने को प्रकट करता है। आत्मा तो साक्षी और स्वतंत्र है।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- वह जीवात्मा इस प्रकार कह कर चला गया। उसके माता-पिता यह बात सुनकर विस्मित रह गए, उनका बंधन कट गया, शोक जाता रहा। मृत देह का संस्कार किया गया। जिन रानियों ने बच्चे को विष दिया था, उन्होंने बाल हत्या से मुक्त होने के लिए यमुना जी के तट पर प्रायश्चित किया। राजा चित्रकेतु की विवेक बुद्धि जागृत हुई। नारद जी के उपदेश से राजा ने यमुना जी में स्नान किया और देवमुनि की पूजा की। वंदना से प्रसन्न हो कर नारद जी ने उपदेश किया- ॐकार स्वरुप भगवान! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण के रूप में मन, बुद्धि, चित्त और अंहकार के अधिष्ठाता हैं। मैं आपके इस चतुर्भुज रूप को बार-बार प्रणाम करता हूँ। आप विशुद्ध विज्ञान स्वरुप हैं, आपकी मूर्ति परमानन्द देने वाली है। आप अपने स्वरूप में परम शांत और पावन हैं। आप को बारम्बार प्रणाम है। मायापति हो कर भी माया जनित द्वेष आप को छू भी नही पाया है। यह जगत आपसे उत्पन्न हुआ और आप में ही विलीन होता है। आप को मन, बुद्धि, वाणी और ज्ञान से नही जाना जा सकता। ॐकार स्वरुप, महाप्रभावशाली, महाविभूतिपति भगवन्- आपको बार-बार नमन!


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवर्षि नारद अपने भक्त चित्रकेतु को इस विद्या का उपदेश देकर अपने लोक को चले गए। चित्रकेतु ने देवर्षि की उपदिष्ट विद्या का उनके आज्ञा अनुसार सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया। सात दिनों के पश्चात् राजा को "विद्याधरों" का आधिपत्य प्राप्त हुआ। इस विद्या के प्रभाव से इनका मन निर्मल हो गया, अब वे शेष जी के चरणों के पास पहुँच गए। देखा कि शेष जी सिद्धेश्वरों के मंडल में विराजमान हैं, उनके प्रत्येक अंग में सुंदर आभूषण शोभित हैं, नेत्र रत्नारे हैं। भगवान् शेष जी के दर्शन से उनके सारे पाप जल गए। उनका रोम-रोम खिल गया, नेत्रों में अश्रु आ गये, ह्रदय भर गया, मुख से बोल नही निकल पा रहे थे। फ़िर विवेक से मन को समाहित किया और स्तुति की- अजित! जितेन्द्रिय संतो ने आपको पा लिया है, आपने अपने गुणों से उनको वशीभूत कर लिया है। प्रभु, जो आपका भजन करता है वो सबकुछ पा लेता है। आप ही आदि अंत और मध्य हैं, आप अनंत हैं। भगवत धर्म इतना महान और शुद्ध है कि जो इसे धारण करता है, उसमे विषय विकार नही आता, दृष्टि सम हो जाती है, पाप जल जाते हैं। हे सम्पूर्ण जगत की आत्मा, हे सहस्त्रशीर्ष भगवान्, मैं आपको नमन करता हूँ। इस प्रकार चित्रकेतु ने अनंत भगवान् की स्तुति की।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! चित्रकेतु की भक्ति से श्री शेष जी प्रसन्न होकर बोले- चित्रकेतु, तुम मेरे दर्शन से सिद्ध हो चुके हो। मैं ही शब्द ब्रम्ह (वेद) और परब्रम्ह हूँ। जागृत अवस्था में यह जगत परमेश्वर की माया है। जब जीव मुझे भूल कर माया में खो जाता है, तो संसार चक्र में फंस जाता है। यह मनुष्य की योनि, ज्ञान और विज्ञान का स्रोत है। जो इसे पाकर परमात्मा को भूल जाता है, उसका क्लेश नही मिटता। राजन! मानव तन का पाना तभी सार्थक है जब ब्रम्ह और आत्मा की एकता का अनुभव कर सको। श्रद्धा भाव से शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे। इस प्रकार कहकर श्री शेष जी अंतर्ध्यान हो गए। ॐ तत्सत्!!!


स्कंध-७/अध्याय-७


भक्त प्रह्लाद की कथा नारद जी ने युधिष्ठिर को सुनायी है। नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब दैत्य बालकों ने प्रह्लाद जी से पूछा- तुम अभी इतने छोटे हो, जब से जन्म लिए हो, माँ के पास महल में हो, तुम कैसे कहते हो की नारद जी से मिले हो? प्रह्लाद जी ने कहा- सुनो, एक बार हमारे पिता हिरण्यकश्यपु तपस्या करने मंदराचल गए, तब इन्द्रादि देवों ने दानवों से युद्ध की तैयारी की। उस युद्ध में दैत्य सेनापति अपने प्राण बचने को भाग गए। देवताओं ने राज महल को लूटा और मेरी माँ राजरानी कयाधू को इन्द्र बंदी बना कर लिए जा रहे थे। मार्ग में देवर्षि नारद ने देखा और इन्द्र से कहा- यह अपराध है इसके गर्भ में नारायण का भक्त पल रहा है। देवराज, यह सती-साध्वी परनारी है, इसका तिरस्कार न करो। इन्द्र ने कहा- यह हिरण्यकश्यपु के संतान की माँ बनेगी जो देव द्रोही है। मैं इसके बालक को मार कर इसे छोड़ दूँगा। नारद ने कहा- तू यह नही कर सकेगा। इसका बालक भगवत भक्त,प्रेमी, शुद्ध और महात्मा है। तब इन्द्र इस भाव से कि यह भागवत भक्त की माँ है, मेरी माँ की प्रदक्षिणा कर के चले गए। इसके बाद नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम में ले आए। बोले- जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहाँ निर्भय होकर रहो। मेरी माँ आश्रम पर रहने लगी, भक्ति पूर्वक देवर्षि की सेवा करती। नारद जी ने मेरी माँ को भगवत धर्म का रहस्य बताया, शुद्ध ज्ञान का उपदेश दिया। मुझे सब याद है, नारद जी की कृपा से बुद्धि शुद्ध हो गई है। मेरी बात पर श्रद्धा करो दैत्य बालकों, यह ज्ञान तुम भी पा सकते हो। शरीर के छ विकार होते हैं -जन्मलेना, अस्तित्व की अनुभूति, बृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश। पर आत्मा अविनाशी, नित्य, शुद्ध, असंग और आवरण रहित है। अध्यात्म तत्व को जानने वाला पुरूष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्म पद का साक्षातकार कर लेता है।


प्रह्लाद बोले- आचार्यों ने प्रकृति के तीन गुण बताए हैं -सत्व, रज और तम्। उनके विकार हैं- दस इन्द्रियां, एक मन और पञ्च महाभूत। इन सब का समुदाय है शरीर। आत्मा जड़ और चेतन दोनों में है पर वह सबसे पृथक है। बुद्धि की भी तीन वृत्तियाँ हैं- जागृत, स्वप्न और सुसुप्ति। इन सबको निरर्थक कर्म से हटकर परमात्मा से जुड़ने का कर्म करना चाहिए। निष्काम प्रेम श्रेष्ठ है, यह बात स्वयं भगवान् ने कही है। दास भाव से सेवा, गुणों का गान, भजन और मूर्ति दर्शन से प्रेम हो जाता है। इतना करते रहो, एक दिन अनन्य प्रेम हो जाता है। तब असीम आनंद से मन खिल उठता है, फ़िर मन उसकी परम मनोहर छवि को नही भूलना चाहता और पुकारता है- नारायण! तन्मय होकर, आँखों में अश्रु लेकर वह भगवनमय हो जाता है। तब उसके सारे बंधन कट जाते हैं, इसी अवस्था को निर्वाण कहते हैं। जीवन शुभ मय हो जाता है। सुनो असुर बालकों- तुम भी अपने ह्रदय में नारायण को बिठाओ। इसमें कोई विशेष परिश्रम भी नहीं है। भोगों को पाने के लिए संसार में दौड़ भाग करना, किसी को दुःख देना मूर्खता है। स्वर्ग के सुख में भी दोष है। निर्दोष केवल परमात्मा है, उसमें मन लगाओ। वो आनंद का समुद्र है ,उसे किसी वस्तु की आवश्यकता भी नही, केवल श्रद्धा चाहिए। धर्म, अर्थ, काम सब उसके आधीन हैं। जो उन चरण कमलों की सेवा करता है, वह हमारे समान कल्याण का भाजन होता है। दैत्य बालकों! भगवान् को प्रसन्न करने के लिए ब्राम्हण होना, ज्ञानी होना, दानी होना, यज्ञ या बड़े -बड़े अनुष्ठान करना जरुरी नही, भगवान् तो केवल निष्काम भक्ति से मिल जाता है। सब से प्रेम करो, भगवान् की भक्ति के प्रभाव से कई दानव, क्षुद्र, और पापी उनकी कृपा को पा गए। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-८/अध्याय-९


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! समुद्र मंथन से जब अमृत निकला तब सब असुर आपस में लड़ने लगे, डाकू की तरह एक दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे। इसी बीच उन्होंने देखा की एक बड़ी सुंदर स्त्री उनकी ओर चली आ रही है। उसके अनुपम सौन्दर्य को, उसकी अद्भुत छटा को देख कर सारे असुर लड़ना भूलकर उसके पास दौड़ आए, सब काम मोहित हो गए। पूछा- हे कमलनयनी! तुम कौन हो? कहाँ से आ रही हो? क्या करना चाहती हो? सुंदरी, तुम किसकी कन्या हो? तुम्हे देखकर हमारे मन में खलबली मच गई है। हम समझते हैं- देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालों ने भी अब तक तुम्हें नही छुआ होगा। सुंदरी, विधाता ने अवश्य दया करके शरीर धारियों की इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिए तुम्हे यहाँ भेजा है। मानिनी, हमलोग एक ही जाति के हैं और एक ही वस्तु हम सब चाह रहे हैं, इसलिए हम में वैर हो गया है। सुंदरी, तुम हमारा मिटा दो। हम सभी कश्यप जी के पुत्र हैं इस नाते सगे भाई हैं। हमने अमृत के लिए बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्याय के अनुसार इसे बाँट दो, हमारा झगड़ा ख़तम कर दो। असुरों ने जब इस प्रकार प्रार्थना की तब स्त्री वेश धारी नारायण ने हंसकर तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा- आप महर्षि कश्यप के पुत्र हैं और मैं कुलटा नारी, आप मुझ पर न्याय का भार क्यों दे रहे हैं? बुद्धिमान पुरूष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का विश्वास नही करते, इनकी मित्रता स्थायी नही होती।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मोहिनी की परिहास भरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी विश्वास हो गया। उन लोंगो ने अमृत का कलश मोहिनी के हाथो में दे दिया। भगवान् ने अमृत कलश लेकर हँसते हुए मीठी वाणी से कहा- मैं उचित, अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब तुम लोंगो को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ। मोहिनी की मीठी बात सुनकर सब ने एक स्वर से कहा "स्वीकार है"। इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया, हवन किया, गौ को चारा तथा , ब्राह्मणों को अन्न-धन का दान दिया। सबने रूचि के अनुसार नये वस्त्र धारण किए, सुंदर आभूषण पहने और कुशासन जिसका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था, उस पर बैठ गए। जब देव और दैत्य दोनों ही दीप, पुष्प और गंध से सजे भव्य भवन में पूर्व की और मुख करके बैठ गए, तब हाथ में अमृत कलश ले कर मोहिनी सभा मंडप में आई। वह बड़ी सुंदर रत्न जड़ी साड़ी पहने थी। वह गज-गामिनी अपूर्व सुंदरी, कलश के सामान स्तनों वाली, उसके स्वर्ण नुपुर अपनी झंकार से पूरे सभा मंडप को मुखरित कर रहे थे। उसके कपोल, नासिका, मुख बड़े ही सुंदर थे। भगवान् मोहिनी रूप में लक्ष्मी जी की श्रेष्ठ सखी लग रहे थे। उनकी मुस्कान भरी चितवन से सब मोहित हो गए। अब भगवन ने सोच इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिलाने से बड़ा अपराध है, अन्याय है। ये सब क्रूर स्वभाव वाले हैं। भगवान् कलश ले कर दैत्यों के पास गए। उसी समय उनका आँचल कुछ खिसक गया और वे कटाक्ष से मोहित करके देवताओं को अमृत पिलाने लगे। असुरों को मोहिनी से स्नेह हो गया, वे स्त्री से लड़ने में अपनी निंदा समझते थे, इसलिए चुपचाप बैठे रहे। वे डर भी रहे थे की ये सुंदरी हमसे रूठ न जाए। जिस समय भगवन देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओं का वेश बना कर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया। उसने भी अमृत पी लिया,परन्तु सूर्य और चंद्रमा ने जान लिया और बता दिया। भगवन ने उसी वक्त चक्र से रहू का सर काट दिया। धड़ नीचे गिर गया लेकिन सिर अमर हो गया क्योंकि वह अमृत के संसर्ग में आ गया था। ब्रम्हा जी ने उसे ग्रह बना दिया। वही राहु पूर्णिमा और अमावस्या को बदला लेने के लिए चंद्रमा और सूर्य पर आक्रमण करता है। देवताओं ने अमृत पी लिया, दैत्यों के सामने ही भगवन ने मोहिनी रूप को त्याग कर अपने रूप को प्रकट किया।


श्री शुकदेव जी बोले- परीक्षित! देखो- देवता और दैत्य दोनों ने एक समय एक स्थान पर, एक प्रयोजन एक ही वस्तु के लिए किया, कर्म भी एक ही प्रकार का किया था, परन्तु फल में बहुत बड़ा भेद हो गया। देवताओं ने सुगमता से अपने परिश्रम का फल अमृत पा लिया और दैत्य देखते रहे। जानते हो क्यों? क्योंकि देवताओं ने भगवान् के शरणागत हो कर कर्म किया, उनकी चरणरज को नमन किया। और दैत्यों ने देव से विमुख हो कर कर्म किया, इसलिए परिश्रम करने पर भी वे फल नही पा सके। राजन, प्राणों में हरि को बिठा कर, उनको अर्पित करके जो कुछ किया जाता है, वह सब के लिए फलदायी होता है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से टहनियां, पत्ते, डालियाँ सब सिंच जाते हैं, और वृक्ष समय आने पर फल भी मिलता है। वैसे ही भगवन के लिए जो करोगे वह पूरे परिवार को सुखी बना देगा। ॐ तत्सत!!!

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