मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली

खेलन को मन तरसे होली !
का पे यह रंग  डारू  आली !
अगर तगर केसर रंग भर के 
यामिनी दिवस निहारूं  मैं !
बाट  निहारूं  मैं ब्रज नर के 
नैन बने गोपी श्री यथा !
बंधन बंघी  स्वामिनी  सी मैं 
ब्यथित पुजारिन जैसी मैं !

गुरुवार, 21 मार्च 2013

व्रज

 ओ रे पथिक !
तू व्रज की ओर  मत जाना !
अगर व्रज में जाना तो 
यमुना की  ओर  न  जाना !
वहां एक   काला  कान्हा है !
उसे तू  न देखना !
जब वो वंशी अधरों पर धरे ,
तो वहां रुकना मत !
पथिक !जो तू वहां  ,गया
तो अपना सब कुछ हार जायेगा !
बावरा  बन के भटकेगा !
तू व्रज की ओर न  जाना !


मंगलवार, 19 मार्च 2013

आज


आज मन में ,
कविता बने तुम !
शब्द बन कागज पे उतरे !
चेतना के  पंख  फूटे !
बड़े सुन्दर  अर्थ   निकले !
आज जीवन जिया मैंने !
स्वागत तुम्हारा  किया  मैंने !
आज फिर आइना देखा मैंने !
आज का यह दिन तुम्हे ही दिया मैंने !


शुक्रवार, 8 मार्च 2013

तलाश

मंजिल की तलाश  है !
जीवन  पथ पर हूँ !
कभी अँधेरा  कभी  उजाला !
अभी  इम्तहान  बाकी  है !
स्वप्न  हकीकत  बने
सत्य  की  तलाश  में  हूँ !
विराट  तक  पहुँचने  को
साँसों  को संभाले  हूँ  !
दुखों  को  जलाकर
ख़ुशी  की  तलाश  में हूँ !
तुमको  पाने की  आस  में हूँ !
खुद  को खोने  की  चाह  में हूँ !

गुरुवार, 7 मार्च 2013

साँझ आई


तौल खुद को तू
प्रवासी !
सघन अंधेरा दूर कर तू !
ज्योति दे अपने हिये को !
कर सवेरा !
साँझ आई -कह रही है
जो थिरा ,जो जाय
अब्यक्त भी खो जाय
मारुत मरण जो आय
धीर रख अपने को
अवसाद के सब क्षण जल तू
निकल चल तू
अब अकेला !
बन के साथी
निज दिवस का !

विकल मन


आज फिर वंशी बजी है
फिर विकल मन ,
आएंगे वो आज फिर यह भ्रम हुआ है
है विकल मन
भीड़ में भी हम अकेले ही रहे हैं !
हादसा यह मेरे संग हरदम हुआ है !
आज फिर वंशी बजी है

सत्य


असत्य से सत्य की उत्पत्ति नही होती ।
 हमारा धर्म सत्य की राह दिखता है पर इस चलना बड़ा कठिन होता है ।
 कभी आदमी का अपना स्वार्थ ,कभी डर ,कभी कोई कमजोरी अथवा बुद्धि हीनता आदि आड़े आता है ।
 पर जो भी हो सत्य पर चलना एक दिन अपने आप को स्वच्छ कर देता है ,मन मे कोई ग्लानी नही छोड़ता और मन वो दर्पण है जो आपके न चाहते हुए भी आपका अपना निजी रूप दिखाता है जो और कोई नही देख सकता वो आपका मन आपको दिखाता है और मन के दर्पण में जब आप अपने को दोषी पाते है तो एक कैदी से या एक अपराधी से आप अधिक पीडा को भोगते है मन के स्तर की पीडा बहुत दुःख देती है ,दीमक की भाति अन्दर से खाली होना ही होता है ।
 इसलिए परम पिता सब को ज्ञान दे ,सब को शक्ति दे ,अच्छी शक्तियाँ मानव का कल्याण करे ,कोई दुखी न हो ।
 ॐ तत्सत

धर्म


धर्म -यह बड़ा सूक्ष्म बिषय है । इसकी व्याख्या थोडी कठिन होती है लेकिन हम अपनी बुद्धि अनुसार कोशिश करेंगे ।

धर्म अति सूक्ष्मऔर अति बिशाल है सत्य ,अहिंसा, दया ,क्षमा ,शील ,संयम ,नियम आदि इसकी शखाए है । धर्म को अगर हम एक ब्रिक्ष माने तो वो इन शाखाओ के बिना अधुरा है ।

सत्य -वो है जो कभी न मिटे ,नित्य प्रकाश दे
अहिंसा -जो वचन और कर्म से किसी को पीड़ित न करे ।
दया -जो किसी के दुःख में दुखी हो ,उसकी मदद करे ।
क्षमा -किसी की गलतियों को नजर अंदाज करना क्षमा है ।
शील -बडो की मर्यादा का ख्याल रखना ,अनुशासन में रहना ।
संयम -इन्द्रियों की गुलामी से छुटकारा पाना संयम है ।
नियम -जीवन को उचित रीति से जीना । हम बात करेंगे अहिंसा की । अहिंसा का पालन कैसे हो ,अहिंसा क्या
है ,किसे कहते है ,क्या अहिंसा का पालन करके धर्म का पूरा -पूरा पालन हो सकता है ?
जैसा की हमने जाना किसी को पीड़ित न करना अहिंसा है पर अगर हम अनावश्यक रूप से किसी के द्वारा सताये
जाय तो ?उसे सहते जाना कायरता होगी हमें यह जानने का हक़ है की हमने क्या किया है और अगर हम अपने ऊपर हो रही हिंसा को सहते जाय तो यह अपने ऊपर हिंसा है हमें इसको रोकने का धर्म तह पूरा प्रयास करना चाहिए । धर्म हमें अभय बनाता है ,आनंद देता है जीवन को उत्कृष्ट बनाता है ,धर्म हमे हमारी रक्षा करना बताता है।
जीवन में संतुलन हो तो जीना आसान होता है । "स्व "को जीतना बड़ा कठिन होता है यह तो कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है परन्तु प्रयास द्वारा किया जा सकता है । साधारण व्यक्ति तो संसार के प्रपंच और मन के बंधन में ही जीवन गुजर देता है । ईश्वर को ह्रदय में बिठाओ तो घृणा भाग जाती है । भगवन "श्री कृष्ण "ने भागवत में बचन दिया है की में धर्म की स्थापना के लिए ,मानवता की रक्षा के लिए ,पृथ्वी पर अनाचार का नाश करने हेतु ,भक्तो की रक्षा हेतु ,श्रेष्ठ कर्म की "गीता "का ज्ञान देता हूँ हे अर्जुन सुन । आगे हम अपनी मति अनुसार प्रभु के वचनों को कहेंगे । शकुन
भगवान् "श्री कृष्ण "ने अपने जीवन में हर जगह औचित्य का पालन किया है । अपने स्व को भूल कर अर्जुन के सारथी बने ।
मन की शुद्धता ,आत्मा की निरावरण ता भौतिक बन्धनों से मुक्त करती है इसी में विकास और सुख दोनों है । वर्षा का जल शुद्ध रूप में पृथ्वी पर आता है विभिन्न प्रकार के मल को बहा कर नदी में जाता है नदी अपने को भरा हुआ मानती है यही उसका धर्म है। पुनः वाष्प बन कर आकाश की ओर जाती है शुद्ध होने को यही स्थिति आत्मा की है। जहा न्याय है वहा धर्म है न्याय का अर्थ है प्रत्येक मनुष्य को अपने विकास के लिए अवसर प्राप्त होना बिना किसी के मार्ग को रोके । अपने लिए अन्य के मार्ग को रोकना अन्याय है ।
भगवान् कहते है -सहज जीवन जीना चाहिए शरीर को व्यर्थ मई कष्ट नही देना चाहिए । मन को अनासक्त कर लो ,न विषयों को जीतना है न त्याग करना है । अनेक संन्यासी तप करने के बाद भी भोगी और अहंकारी होते देखे गये है ।
अपने स्व को जानो अपनी प्रकृति को पहचानो यही स्व धर्म है । विषयों को तन से नही मन से निकालो । कर्म को करो पर हमने किया यह भाव न आने दो कुशलता पूर्वक कर्म को पूर्ण करो यही कर्मयोग है । विषयों से दूर रहने के लिए अगर संसार का त्याग करोगे तो यह कर्म से भागना कहा जायगा ,कर्म का त्याग माना जायगा जो अनिष्टकारी है । मान लो हमने एक भवन बनाया हम उसमे लिप्त हो कर सब छोड़ दे या किसी फल में इतने लिप्त हो जाए की सब भूल जाए ,यही है आसक्ति । भगवान् कहते है कर्म करो पर फल में आसक्त न हो बंधन में न जाओ निष्काम कर्म ही श्रेष्ठ कर्म है .घोर कर्म में अकर्म की स्थिति को अपनाओ यही है मुक्ति का मार्ग ।
प्रभु ने बताया है धन के स्थान पर धर्म को भोग के स्थान पर कर्म को उत्तम मानो .धर्म की स्थापना के लिए ही युद्ध में अर्जुन के सारथि बने । युधिष्ठिर में न राज्य की रूचि थी ,न वैर ,न अहंकार वे तो धरम राज थे भगवान् ने उन्हें राजा बनाया ताकि पृथ्वी पर धर्म -राज्य हो ।
धर्म स्वतंत्र रहना सिखाता है । धर्म का सच्चा अर्थ यही है । धर्म अनुशासन के साथ आजादी देता है .मन की आजादी चेतना और सृजन देती है । जब मन पर ग्रंथियों की पकड़ मजबूत हो जाती है तो विकास का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है आदमी दुविधा में आकर अपनी रणनीति बनाता है फिर भय और भाग्य में फस कर ईश्वर से दूर हो जाता है अंध विश्स्वास के कारण विवेक का चिंतन नही करता । भाव को शुद्ध कर विचारों की कसौटी पर कस कर देखो तब मनुष्यता की ओ र कदम जायेंगे ,धर्म की ओर कदम जायेंगे ।
हरी शरणम् !!!

संतो और ऋषियों ने वर्षो तपस्स्या की तब जाना की आनंद ही महासुख है और वो ईश्वर है जब तक इसकी अनुभूति नही होती तब तक आदमी तड़पता रहता है उसे शान्ति नही मिलती । शाश्स्वत सुख की राह हमें ईश्वर की शरण में जाकर ही मिलती है । मन की एक इक्षा पूरी होते ही दूसरी जग जाती है लेकिन जब धर्म की राह में आते है तो आदमी अन्दर से साम्राट बन जाता है क्यों की वो पूर्ण से मिलता है जब संग परम से होगा तो उसका असर तो अवश्य होगा न ।
मृत्यु आएगी एक दिन सब छीन कर ले जायेगी यही असहायता मनुष्य को "अमृत "पाने को प्रेरित करता है धर्म इसी अमरत्व की खोज करता है ।
१/१०/२००८
भगवन "श्री कृष्ण "कहते हैं -मेरा न कोई व्यक्तिगत मित्र है न शत्रु जहा धर्म है वही मैं हूँ । मैं सौ भूल क्षमा करता हूँ तब दंड देता हूँ ,इतना विराट हूँ की कण -कण में व्याप्त हूँ मैं संतो का भक्त हूँ ।
धर्म स्थापना का प्रथम चरण है पापी को दंड देना जब दुष्ट का दलन होगा तभी धर्म की स्थापना होगी। आज्ञा पालन करना धर्म है -जो बड़े है उनकी आज्ञा का पालन होना चाहिए पर अगर धर्म की आड़ में कुटिलाई हो आज्ञा में कपट हो तो उसको न मानना ही धर्म है । क्या बड़े इस तरह की आज्ञा देते है जिसमे कोई अपना पीड़ित हो जान बूझ कर ऐसी आज्ञा को मानना मुर्खता है । जैसे भीष्म पितामह ने दास राज को वचन दिया की आजीवन विवाह नही करूँगा ,पितामह मछुआरे की कुटिलाई को धर्म मान बैठे । धर्म की गति अति सूक्ष्म है इसे कष्ट सह कर निबाहा जाना चाहिए पर अंत कल्याणकारी होना चाहिए वह धर्म नही जो छल से युक्त हो .
शुक्राचार्य के प्रमुख नीतिगत उपदेश -
महाभारत में वर्णित है की असुर गुरु शुक्राचार्य अपनी इकलौती पुत्री देवयानी को क्षमा और सहिष्णुता की महिमा को बताते हुए कहते है - की जो मनुष्य सदा दूसरों के कठोर वचन ,निंदा ,आलोचना को सह लेता है समझो उसने इस सम्पूर्ण जगत पर विजय प्राप्त कर ली । जिसमे क्षमा भाव है वही सबको जीत सकता है । वे कहते है -
दूरदर्शी बनो ,संकीर्ण न बनो ,विवेक से काम लो । आलस्य और अंहकार को त्याग दो । बिना सोचे -समझे किसी को मित्र न बनाओ । विश्वस्त का भी अति विश्वास न करो । अन्न का अनादर कभी न करो ये ब्रम्ह का स्वरूप है। आयु ,धन ,गृह के दोष ,मंत्र ,औषधि ,दान ,मान तथा अपमान को गुप्त रखना चाहिए । किसी के साथ कपट तथा आजीविका की हानि नही करना चाहिए .कभी किसी का अहित मन से भी नही सोचना चाहिए । शाशक को धर्म पारायण होना चाहिए । यौवन ,जीवन , मन ,लक्ष्मी ,प्रभुत्व चंचल होता है । दुर्जनों और दुष्टों की संगति का अति शीघ्र त्याग करना चाहिए । धर्म शास्वत सुख देता है । दुःख और सुख में तटस्थ रहो । उन्नति के मार्ग अपनाओ .व्यक्ति को अपने शुभ -अशुभ कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
अर्यमा -यह नाम मुझे बहुत आकर्षक लगता है मैंने शास्त्रों में पढ़ा की अर्यमा पितरों के देव है । ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इन्द्रादि देवताओं के भाई । शास्त्रों के अनुसार उत्तरा -फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है । इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़ -चेतन मयी श्रृष्टि में ,शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं । इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है ,श्राद्ध इनके नाम से जल ,दान दिया जाता है । यग्य में मित्र सूर्य तथा वरुण (जल )देवता के साथ स्वाहा का "हव्य "और श्राद्ध में स्वधा का " कव्य "दोनों स्वीकार करते हैं ।
अर्यमा मित्रता के अधिष्ठाता हैं । मनुष्य को सच्चे मित्र की प्राप्ति इन्ही की कृपा से होती है । वंश -परम्परा की रक्षा भी इन्ही की कृपा से होती है । पुत्र प्राप्ति के लिए इनकी पूजा की जाती है । अपने परिवार का ही अगर कोई प्रेत बन गया हो और परेशान कर रहा हो तो अर्यमा की पूजा करने से छुटकारा मिल जाता है । इनकी पूजा में काले तिल मिला हुआ जल ले कर तीन इनको तर्पण करे इस मन्त्र के साथ -" ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः "
प्रणाम क्यों ?
आज हम चर्चा करेंगे की हम प्रणाम क्यू करते है ?,हमें प्रणाम क्यू करना चाहिए ?
हमें बचपन से सिखाया जाता है की बडो को प्रणाम करो ,जब हम किसी को प्रणाम करते हैं तो सामने वाला हम पर प्रसन्न हो जाता है । प्रणाम करना शिष्ट आचार है । हमारे देश में ,अलग -अलग प्रांत में प्रणाम करने के अलग -अलग तरीके हैं कही पर पैरों को छू कर ,कही पर पैरों को दबा कर ,कही पर झुक कर अपने गुरु को दंडवत प्रणाम किया जाता है भगवान् को मस्तक से प्रणाम करना चाहिए । प्रणाम करने में जरुरी यह होना चाहिए की प्रणाम ह्रदय से हो ।
जब हम प्रणाम करते हैं तो बडो की उदारता की पिटारी खुल जाती है । उनसे हमें विद्या ,यश ,शक्ति ,बल,उनकी कृपा और आशीर्वाद हमें मिलता है हमारे कष्ट कट जाते है । ऐसा शास्त्र कहता है महापुरुषों को किया गया प्रणाम हमारे विचारों को ओज पूर्ण बनाता है ,हमें उपदेश भी मिलता है । महाराज युधिष्ठिर हर उस जीव को प्रणाम करते थे जो पीत वस्त्र धारण किए हो । तुलसी बाबा कहते हैं -"सिया राम मय सब जग जानी ,करहू प्रणाम जोरी जूग पानी "अर्थात हर जीव में सिया राम को देखो और सब को प्रणाम करो ।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् राम और कृष्ण अवतार रूप में जब इस पृथ्वी पर आए तो वे घूम -घूम कर संतों का संग करते ,उनकी पग धूलि को माथे पर लेते । भागवत जी में कथा है -जब सुदामा जी श्री कृष्ण से मिलने द्वारिका आए तो भगवान् ने उनका खूब सत्कार किया उनकी पूजा की ,नूतन वस्त्र दिए प्रभु ने सात दिन सुदामा जी द्वारिका रहे जब वे चलने लगे तो भगवान् ने उनसे सब ले लिया उनकी चरण पादुका भी ले ली । रुक्मिणी जी सब देख रही थी बोली भगवन ये आप क्या कर रहे हैं ?जब सुदामा जी आए थे तब आपने इनकी पूजा की और जब ये जा रहे हैं तो आप इनकी पादुका भी ले ले रहे हैं ,भगवान् बोले -रुक्मिणी सुदामा जी मेरे परम भक्त हैं इनकी चरण धूलि जब द्वारिका की भूमि पर पड़ेगी तो यहाँ की भूमि भी पावन हो जायगी इसलिए मैंने इनकी पादुका ले ली । भक्तों की पग धूलि जहाँ पड़ती है वह भूमि पावन हो जाती है । भगवान् संतो की सेवा करते थे और हमें सिखा गये की ऊपर उठना है तो झुकना सीखो ।
श्री कृष्ण पृथ्वी का वंदन करते ,वे भी पूजा करते और गुरुजनों का चरण वंदन करते ।
कृपा की न होती जो आदत तुम्हारी ,तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी !
प्राण
विश्व की सभी अभिव्यक्त शक्तियां ही 'प्राण 'हैं ,प्राण को ब्रम्ह कहा गया है । सारी भौतिक और मानसिक शक्तियां प्राण की श्रेणी में आता है ,जीवन के प्रत्येक क्षेत्र जहा किसी प्रकार की गति है किसी भी स्तर पर ,प्राण के बिना संभव नही है। हमारी शक्ति भी प्राण पर निर्भर है हम देखते हैं कुछ लोग जीवन में बहुत सफल होते हैं यह प्राण शक्ति के कारण ही होता है अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा हर कोई इस शक्ति को बढ़ा सकता है कुछ लोग जन्म से ही इस शक्ति से भरे होते हैं । उनकी एक अलग पहचान हो जाती है ।

" हिंदू धर्म के मूल सिद्धांत "
हमारा धर्म मानव जीवन का दर्शन है । इस का सिद्धांत है दुखो को ,कष्टों को अथवा जीवन में आने वाले किसी भी प्रकार की बाधा से हम किस प्रकार मुक्त हो सकते है ?
भगवान् कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए ही अवतार ग्रहण किया -श्री कृष्ण परम शक्ति शाली ,परम वीर पर प्रभु ने प्रतिशोध के लिए कभी अपने परम शत्रु को भी नही मारा । वे धर्म की बात सोचते हैं ,प्रजा के हित की बात सोचते हैं । धर्म की स्थापना के लिए एक निः स्पृह और धर्मप्राण राजा चाहिए उसके लिए उनको युधिष्ठिर उपयुक्त पात्र लगते है इसलिए भगवान् ने जीवन भर पांडवो का साथ दिया ।


हमारा शास्त्र कहता है प्रत्येक व्यक्ति का कर्तब्य है अपने अन्दर व्याप्त ब्रम्ह भाव को व्यक्त करना । कर्म ,उपासना ,मन का संयम और ज्ञान इनमे से एक ,एक से अधिक या सभी उपायों को अपना कर ब्रम्ह भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ ।
अनुष्ठान की विधि और अन्य बाहरी क्रिया कलाप तो मात्र व्योरा है । यह विवेक का साधन नही है ।