बुधवार, 28 मार्च 2012

जिन्दगी तूने मुझे चाहा है

कभी -कभी हम इंसानों के साथ जब कुछ अनचाहा घट जाता है, हम बहुत उदास हो जाते है और लगता है अब क्या होगा? जब कोई राह नहीं दिखती अँधेरे से निकलने की, तो हम सोचते हैं बड़ी खराब किस्मत है मेरी। इस जीने से मरना अच्छा।

एक सवाल उठता है -

तुम कौन हो/ क्यों बाहें फैलाए मेरे पीछे चलती हो?
मुझे रुलाती/ आरोप लगाती/ डराती/ धमकाती।
मैं हूँ पीड़ा/ तेरा कर्ज हूँ, अँधेरे ने कहा। 

तब एक आवाज आती है -

तू मुझे पहचान मैं हूँ, मैं हूँ साथ तेरे।
मुझे पहचान, मैं हमेशा तेरे साथ रही हूँ।
तेरी रगों में- धीरज, आशा और ईश बनी हूँ।
घोर निशा में, हारी दशा में, व्यथा कथा में।
हर क्षण, हर साँस में, घोर तिमिर में।
हर निश्चय, हर राह में।
मैं ही तेरे साथ चली हूँ।
मैं ही तेरे साथ रही हूँ।
तू भटकती रही यहाँ से वहाँ,
मुझको कोसा नहीं कहाँ-कहाँ।
मैंने तुझको प्राण दिया,
तूने मुझे दी मरने की दुआ।
परन्तु मैंने तेरा साथ दिया,
देख! अपनों ने तुझे छोड़ दिया।
अपने मतलब से तेरे साथ रहे,
अपने मतलब से तुझसे दूर हुए।
मुझे पहचान! मैं हूँ ज़िन्दगी,
मुझसे ही कर तू बंदगी।

ज़िन्दगी ????
ज़िन्दगी  माफ़ कर दे तू मुझे,
तेरे ही साथ अब चलना मुझे।
कोई कर्म था पिछले जनम का,
कोई कर्ज था पिछले जनम का।
तू मुझे थोडा समय दे ठहर जा,
इस जनम को सुधारूँ, थोड़ा रुक जा।
देख! तूने की है मुझसे वफ़ा,
पर रही मैं तुझसे होकर बेवफ़ा।
तू मेरे दिल की बात पढ़ लेना,
अब मैं तेरी हूँ ये समझ लेना।
तू जरूरत है मेरी, तू इबादत है मेरी,
तू मेरी है, मैं रहूंगी तेरी।
जियूंगी तेरे साथ, मरूँगी तेरे साथ,
न कोई शर्त हैं न वादे हैं,
पर अब रहूंगी तेरे साथ।
तेरे उपकार याद रखूंगी,
मित्र !माफ़ी की आस रखूंगी।

तुझको शत -शत नमन है ज़िन्दगी!
सर झुका कर करूँ मैं बंदगी!