सोमवार, 23 नवंबर 2009

मेरा परिचय, मेरा ध्येय

मेरा जन्म कलकत्ता में हुआ । बचपन से जीवन के १८ बसंत वही देखे। मेरे पिता बैंक ऑफ़ बड़ोदा में कैशियर थे । हम सब कलकत्ता में १०७ कॉटन स्ट्रीट में रहते थे । माता -पिता, मैं और मेरा छोटा भाई। हम जिस मकान में रहते थे वह तीन तलों का था । किराये के उस मकान में लोग भरे रहते थे । सुबह -शाम भीड़ सी रहती थी । सुबह १० बजे से शाम के ५ बजे तक मकान खाली रहता था । वह समय स्त्रियों का होता था । मकान के मालिक सबसे ऊपर रहते थे। वहीं से सबकी निगरानी करते थे। यदि कोई किरायेदार अपने कमरे में एक कील भी ठोंकना चाहे तो बिना उनकी अनुमति के नहीं ठोंक सकता था । उनकी धौंस से सभी परेशान रहते कि पता नही किस बात पर कह दें कि मकान खाली कर दो। कलकत्ते की वह जगह अनमोल थी, जीवन की सारी जरुरत की चीजें मकान के नीचे ही उपलब्ध थीं। हमारा स्कूल भी दस फर्लांग पर ही था। उस समय के किराये दार भी आज की तरह नही थे । सब अदब से रहते थे । वह मकान पूरा भारत था, वहाँ हर जाति और धर्म के लोग रहते थे । मुझे राजस्थान का जायका बहुत पसंद था । यह लोग मुझे प्रिय थे । उनके घर के रहन -सहन भी अपने से लगते, सबसे बड़ी बात थी कि ये लोग शुद्ध शाकाहारी थे। एक परिवार था जिनसे हम जुड़े थे अब वे नही रहीं। जब कभी माँ कहीं बाहर जाती तो हम उनके पास रहते । आज मैंने जब अतीत में झाँका तो सबसे पहले मुझे अपनी मासी माँ का चेहरा दिखा । मैं आज वर्षों बाद इस ब्लॉग में उनको याद कर सकी -आपको नमन है मासी माँ !

वहां बंगालियों की जो बात मुझे अच्छी लगी वो था उनका संगीत प्रेम और पढने -लिखने की रूचि ,बंगालियों को भ्रमण का शौक भी बहुत होता है । बहुत साधारण से दिखने वाले भी छुट्टियों में किसी जगह घूमने जाया करते थे। मुझे उनके कमरे में जाने पर लगता कि मछली की बू आ रही है जबकि यह मेरा भ्रम था, मछली उनका मुख्य भोजन है। यह लोग देवी दुर्गा की उपासना करते जो देखने लायक होता, राधा -कृष्ण की भक्ति भी करते थे।

सन १९७२ में जब वहां नक्सलियों का उपद्रव बढ़ा तो हमारा स्कूल जाना बंद करा दिया गया । पिता ने कहा स्कूल बहुत दूर पड़ता है पता नही कब क्या हो जाए। पूरे बंगाल में दहशत का माहौल था जगह -जगह से दिल को दहला देने वाली खबरें मिलती थी । उस समय मैं दसवी की छात्रा थी । आया, जो हमें स्कूल ले कर जाती थी उसने कहा मुझे डर लगता है । अब तक हमलोग कलकत्ते के किराये के कमरे को छोड़ कर "लिलुआ" नामक स्थान पर आ गये थे और अब हमारा बड़ा सा घर था। हमारे घर से स्कूल चार मील पड़ता था, उस समय पैदल या रिक्शा ही स्कूल तक पहुँचने का साधन था । स्कूल जाना बंद हो गया । शादी कर दी गई उस समय १७-१८ की उम्र थी । पढ़ने का बहुत शौक था जीवन में कुछ बनना चाहती थी पर रो धो कर भी कुछ न हुआ । १९७२ /५ जून को शादी भी हो गई । सुलतान पुर के एक गाँव महमूदपुर आई, सारा बदला हुआ परिवेश मिला, बड़ा सा परिवार मिला।

आगे उलझन भरी जिन्दगी थी पर किसी तरह एम्.ए. किया । ६ साल का कांटो भरा जीवन, मानसिक प्रताड़ना हद तक मिली पर जीवन फ़िर भी जी लिया । १९७९/२२ अगस्त को माँ बनी विभूति की और २ साल बाद २६ मार्च को विकास की माँ बनी। जीवन में पर्याप्त खुशी आई कोई कुछ भी कहता पर मैं अन्दर इतनी पूर्ण थी की कोई गम नही होता था । जब विभूति ३ साल के हुए तब चिंता हुई की बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी । हमने एक झगड़े वाला छोटा सा घर लिया । जगह अच्छी थी, सस्ती थी और हम किसी तरह उसे ले सके। सोचा किराये दार एक दिन खाली कर देगा ।पिता जी ने १० हजार की मदद की थी लड़ -झगड़ कर ये काम भी हुआ, मेरा घर मेरा हो गया। किराये दार ने पैसे लेकर घर खाली किया ।


१९८४ में हम सुलतान पुर में अपने घर में आ गये, बच्चे पढने जाने लगे । दोनों बच्चों की पढ़ाई ,घर में रहने की छत ,जीवन यापन का खर्च और व्यापर में संघर्ष - सब एक चुनौती भरी राह से चलना था। पर संघर्ष की राह तो ऐसी ही होती है । अर्थाभाव था, यह बात ध्यान में रख कर मैंने किसी तरह बी.एड. किया । कर तो लिया पर मेरा पहला लक्ष्य था - मेरे बच्चें पढ़ें। इनपर अगर ध्यान न दे पाई तो सब बेकार है और सामने एक लक्ष्य था - ये दो चेहरे जिनके सामने हर दुःख छोटे हो जाते थे। मेरे पास केवल ईश्वर की दी हुई आशा और शक्ति थी, यही मेरा बल था और मेरे दो सुंदर बच्चे मेरी जीवन डोर को मजबूत बनाये रखने के साधन थे ।

समय अपनी गति से चलता रहा, बच्चों की पढ़ाई पूरी हुई, विभूति अधिवक्ता हैं, और साथ ही अपने पिता के साथ व्यापार भी संभालते हैं। विकास इंजिनियर हैं, इस समय वो लन्दन में हैं । अब मैं अपने पढने लिखने का शौक जो दबा हुआ था उसे पूरा करने के लिए सोचती हूँ। समय तो बहुत आगे चला गया है पर मन की उम्र नही होती एक आस अभी बाकी है ,अभी साँस भी बाकी है ,एक मुट्ठी आसमान की चाह, जो निजी हो, अभी बाकी है। काश की एक बार इन हाथों से कुछ ऐसा हो जाता की ईश्वर को अर्पित कर सकती और वो स्वीकार करते तो विश्राम मिलता ।

विकास जब पहली बार इंग्लैंड से आए तो एक लैपटॉप लेकर दिए । मैंने ब्लॉग के बारे में समाचार पत्र में पढ़ा था, सोचा कि ये मेरी इच्छा पूर्ति का अच्छा साधन बन सकता है, मैंने लिखना चाहा । विकास ने ब्लॉग बना दिया, मैंने लिखना शुरू किया।

मेरे लेख -

धर्म में मैंने बहुत कुछ अपने प्रमुख ग्रंथों से लिया है । मनुष्य के जीवन का उजला पक्ष कैसे उभरे यह उसमे है धर्म केवल शब्दों और कर्मकांडो तक ही नही हैं । हमारा धर्म सम्पूर्ण जीवन को धारण करता है ।

भागवातांश में मैंने भागवत के ३० अध्याय लिखे हैं । भागवत में वर्णित ये ३० अध्याय विशेष हैं, जो भी किसी कामना को लेकर इसका श्रद्धा से पाठ करेगा, उसकी कामना पूर्ण होगी । मैंने इन ३० अध्याओं का वर्णन इसलिए किया की अधिक से अधिक लोग इसका लाभ उठा सकें । इसे पढ़े और उन्नति के भागी बने ।

चेतना मेरा तीसरा लेख है । यह मैंने युवाओं और किशोरों को ध्यान में रख कर लिखा है । आज का युवा धैर्य खो चुका है ,कर्मठता में पीछे होता जा रहा है । एक बार जीवन में निराशा मिलने पर हार जाता है । असफल होने पर हताशा का शिकार हो कर बैठ जाता है । मनुष्य अपना सर्वांगीण विकास कैसे करे, मैंने इस लेख में यह बताने का भरपूर प्रयास किया है । किशोरों के लिए यह लेख उपयोगी है। इसमे अनुभव की अधिकता है। मेरा पाठक इसे जरुर पढ़े ।

आने वाले दिनों में मैं बच्चों के लिए कुछ लिखना चाहती हूँ । मुझे बच्चे बहुत प्रिय हैं, साथ ही वे हमारा कल सुनहरा बना सकते है अगर उनका पालन पोषण बेहतर हो । बेहतर पालन पोषण के लिए पैसे से अधिक जरूरत है स्वयं को मानक के अनुरूप ढालना । इसके लिए माता पिता को पहले से तैयारी करनी होगी। यह सब हमारे शास्त्रों में है मैं इसे खोज कर आप तक पहुँचाउंगी । मैं गोपी गीत के माध्यम से अपने पाठकों को प्रेम की उच्चा अवस्था क्या है इसका वर्णन करुँगी।

यह सब मैं कर सकूँ, लिखना मेरा पाथेय बने यही इच्छा है ।

-शकुन