गुरुवार, 13 नवंबर 2014

सोच कर देखो

सोच कर देखो -
१ -सत्य की राह थोड़ी मुश्किल है पर भीड़ कम है !
इस राह पर चलकर देखो जल्दी नंबर आएगा !
२ - मैं अपेक्षा करती हूँ अपनों से -
अगर कोई बात खराब लगे मेरी ,कोई कमी दिखे मुझमे 
तो औरों  से कहने से पहले मुझे कहना ,मेरी कमी पहले मुझे 
बताना !
३ - जीवन में जो मैंने खोया अपनी अज्ञानता से खोया ,
     पर जो कुछ मैंने पाया वो तेरी कृपा से !
४ - कभी रूठ कर देखो कौन तुम्हे मनाता है -वही तुम्हारा अपना है !
५ - मेरा  मानना  हैं दर्द हमें बहुत कुछ देता है ,सिखाता है। 
     दर्द में भी एक नाम  और यश छिपा है !
६ -ज्ञान और विज्ञानं हम सब जानते हैं पर एक जो आत्मज्ञान होता है उसे कहतें हैं -
    प्रज्ञान ! यह विद्या और अविद्या से परे  है यह सम्पूर्ण समर्पित भक्ति से प्राप्त होता है !
    इसकी एक मिसाल है -महाकवि कालीदास ने  बादलों पर प्रेमिका का जो चित्र खींचा !
    

बुधवार, 17 सितंबर 2014

हिन्द-वीं

 मैं आर्यावर्त  की हिन्दी हू ँ
इक मीठी ,सरल ज़ुबान हुँ!
भारत के कण-कण में हूँ-मैं
देशज भाषा की नानी हूँ-मैं
हर भाषाओं की दादी -मैं
ब्याकरण से पहले जन्मी मैं
हर शब्दकोश हैं बाद  मेरे
अब हर बन्दा बोले  हिन्दी
कम्प्यूटर  भी लिखे हिन्दी
उर्दू ,फ़ारसी ,संस्कृत से
ख़ुद को मैंने समृद्ध किया
आन्चलिक बोलियाँ मुझमें हैं
सबकी ज़ुबान पर मैं ही हूँ
मैं हिन्दुस्तान की "तूती "हूँ
मैं थी ,मैं हूँ और मैं ही हूँ 

बुधवार, 30 जुलाई 2014

एक साँझ ........

साँझ समय !

पीताभ अम्बर ,
दुर्जय सा दृश्य  दिखाता है !
निरभ्र ,शांत 
दिगंत प्रसार 
ज्यों अनंत को निगल जाता है !
पंक्षियों की कतार 
अनुशाषित उड़ान 
शांत निर्धूम निज नीड़ों को जाता है !
आती निशा 
निद्रित दिशा 
ज्यों ब्रम्हलीन हुआ जाता है !
अधीर मन 
आकुल क्षण 
रात भर को विश्राम को जाता है !

शकुंतला 

सोमवार, 21 जुलाई 2014

बोगन बेलिया

  मुझे सुन्दर वास्तु फूल ,पौधे ,घर ,बात ,बात, तहजीब ,कलम ,किताब पूरी प्रकृति में कही भी दिखे सुंदरता मैं उसे देखकर खुश होती हूँ !मुझे सुबह और शाम भी कभी कभी अद्भुत सुन्दर लगती है !
मगन मन निहारती हूँ !
हम कही जा रहे थे सड़क के किनारे एक चारदीवारी से लगा बोगन बेलिया सुन्दर  फूलों के गुच्छों से भरा हुआ था !हरी पत्तियों के बीच सुन्दर रानी रंग के गुच्छे ,ताजा फूलों से लदे देखा तो मन वही अटक गया ,लगा जैसे जीवन ही रूप बदल कर खिला है !
मन वही अटक गया !
मई सोचने लगी मैंने भी बोगनबेलिया लगाया है उसको रोज पानी देती हूँ ,साफ़ रखती हूँ समय पर खाद  भी देती हूँ पर वह अब तक नहीं खिला ,शायद इसलिए कि वह गमले लगा है ,पर फिर भी खिलता तो छोटे गुच्छे ही सही ,पर वो तो यूँ ही खड़ा है !केवल हरी पत्तियों को लादे हुए !
काश !की मेरे घर में ये पेड़ होता तो मैं कितना खुश होती ,सुबह शाम बस इसको ही निहारती !आदि -आदि विचारों में पड़ी थी !पर तभी खुद से एक प्रश्न पूछा -मैं हरदम इस चक्कर में क्यों रहती  हूँ की हर अच्छी व्
सुन्दर वस्तु मेरे घर में हो ,मेरे पास हो ?
हम इतने  स्वार्थी कैसे हो जातें हैं हम मनुष्य जीवन भर इसी प्रयास में रहतें हैं की सारी अच्छाई ,समृद्धि ,सुंदरता मेरे ही पास हो !
आज जो वस्तु हमें बहुत सुन्दर लगती है हम उसे पा लेते हैं कुछ दिन बाद वही पुरानी लगती है मन भर जाता है फिर हमें कोई दूसरी चीज अच्छी लगती है ,हम उसे ले आतें हैं !
हमारा चंचल और स्वार्थी मन  नई  सुंदरता की तलाश में होता है !और ये हम बड़ो में तो होता ही है बच्चों में भी होता है ,और कभी -कभी यह झगडे का कारण भी बनती हैं !
देश के स्तर पर भी ये सब होता है यही कारण है की हमारा कश्मीर जो हमारा स्वर्ग है वो हमारे पड़ोसी की जलन का कारण है !
मैं बोगनबेलिया से चल कर कश्मीर आ गई खैर मैं अपनी सोच से बाहर आई !
मैंने अपनी लालसा पर काबू किया कि ये गुच्छे मेरी चारदीवारी पर नहीं है तो क्या ये जहां खिले है वहां भी बहुत सुन्दर है अाखिर इनकी सुंदरता पर केवल मेरा ही हक़ तो नहीं है, इसे देखकर खुश होना केवल मेरा हक़ नहीं हो सकता !कभी नहीं !इसकी  सुंदरता ,इसका रूप सबका है ये यहाँ रहकर हर आने -जाने वालों को ख़ुशी बाँट रहा है !और खुश रहना ही इंसान का सहज स्वभाव है !
इसलिए तुम यही खिलो और अधिक अच्छे से खिलो ताकि सब सब खुश हो तुम्हे निहार कर !

शकुंतला मिश्रा -३०/७/२०१४







chlo aaj ....

चलो आज बारिश से बूंदे चुरा ले ,
ज़माने के ग़म  सारे उसमे डूबा दें !
अम्बर की छतरी को मंडप बना के
नवल राग ,रंगों की धरती से चुन के
चलो आज जीवन में खुशिया मना  लें !
बहा देंगे अबके बरस ,सारे गम को
नदी ज्यों चले है समंदर मिलन को
पपीहे ने छेड़ा तरंगित सुरों को ,
चलो आज हम इक नए सुर में गए ले !
चलो आज बारिश से बूंदें चुरा ले !
२१/७ /१९१४ 

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

वैभव-बिन्दु

पड़ा था मूक यह जीवन तार
किया फिर अश्रु भरी मनुहार

पड़े तब स्वप्न नीड़ में प्राण 
मुझे दिखता था स्वर्ण विहान

प्राण वन तुम आए इक रोज
सिखाने मुझको जीवन तान

हृदय ने गाए मधुमय गान 
रंग रही थी जीवन के चित्र 

तुम्ही से खुले नवल उर द्वार
"विभू"बन सहा ब्यथा का बान

निमिष में आया फिर इक आन
मधुर सा विकसित हुआ वितान 

नई स्वर लहरी गुँजें कान 
हुआ जग से बेसुध ,यह भान 

रहे नित नर्तन में यह मान 
मुझे अब उस दिन की है चाह 

विकास की जननी -
कहें सब वाह ! 


शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

swapna

स्वप्न में गई क्षितिज के पार 

दिखा एक सुन्दर सा संसार 
सुरभि खुशबू  से भरी बयार 
सुरों से सजा हुआ दरबार !
सब्ज सा रंगा - रंगीला भान 
हुआ मुखरित धड़कन का गान 
धरा पर पुष्प ,पुष्प पर मैं 
पुनीता हुई खिली थी मैं !
महानंद से मिली थी मैं 
सोम मई किरण बनी थी मैं !
मिल गया अमृत से जीवन 
लहर -दर -लहर बना सोपान 
चली मैं सात समंदर पार 
अमरता मिली सवप्न में आन 

शकुन 

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

vasant aaya

कण -कण सुंदरता विहरी 
शीतल निर्मल विभावरी 
नवल चुम्बित निर्जन वन 
कली -कली  उभरा मन 
आया वसंत सजन !
प्रियतम परिणय बेला 
धरती अम्बर डोला 
लगा सुमिलन मेला 
निर्जन न हो अकेला 
मुक्त नव प्रसंग सजन !
नस -नस उमंग भरा 
पूरित हुई है धरा 
पुलकित अम्बर ने वरा 
चपला सुरभि से भरा
सजल सकल अंग सजन !
युवा है वसंत काल 
पहने कलियों कि माल 
भरी है रंगों से थाल 
ता ता थई थई कि तान 
परिमल हर साज सजन !
स्वर्ग तो यही है सजन !