किया फिर अश्रु भरी मनुहार
पड़े तब स्वप्न नीड़ में प्राण
मुझे दिखता था स्वर्ण विहान
प्राण वन तुम आए इक रोज
सिखाने मुझको जीवन तान
हृदय ने गाए मधुमय गान
रंग रही थी जीवन के चित्र
तुम्ही से खुले नवल उर द्वार
"विभू"बन सहा ब्यथा का बान
निमिष में आया फिर इक आन
मधुर सा विकसित हुआ वितान
नई स्वर लहरी गुँजें कान
हुआ जग से बेसुध ,यह भान
रहे नित नर्तन में यह मान
मुझे अब उस दिन की है चाह
विकास की जननी -
कहें सब वाह !