यहाँ मैं 17 अक्षरी कविता लिखूंगी यह कविता लिखने की जापानी विधा है !
आज से 50 वर्ष पहले इस तरह की कवितायें जापान में लिखी गयी थी !
हमारे देश में सबसे पहले इस तरह की कविता गुरु देव रबीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखी !
जापान में इसे हाईकू कहतें हैं !
मान सको तो ,
मानो सबसे कठिन
है सहजता !
हाथों का श्रम
इंसान की प्रेरणा
बना अजंता !
आंसू की रात
जीवन जीत गया
रो पड़ा गम !
जीवट को भी
बनाती है कायर
नातों की बेड़ी !
कर्म कर तू
कर्तब्य के लिए
धर्म के लिए !
हठ करके
जी भर भोग ख़ुशी
भागेगी बाधा !
पेट का लेख
है आदमी को गा रही
इस दौर में !
साँसे हैं तान
धड़कन है ताल
मन है गीत !
श्रेष्ठ रचना
तप से ही बनी है
जैसे मानव !
फिर सुनी है
व्याकुल सी बांसुरी
मनहर की !
घने मेघों में
चमका पीताम्बर
वो !देखो सखी !
मैंने माना है
बड़ा सुखद पथ
तेरे द्वार का !
जीवन यह
दृष्टांत बना अब
दुर्गम यात्रा !
जूही की माला
करुण निवेदन
सजल नेत्र !
कौन सँवारे
सतरंगी सपने
दृष्टि संजोई !
क्या पाया है
तब जानोगे जब
यह खो दोगे !
भटका पंछी
घोसले की चाह में
तमाम उम्र !
घर की राह
बिसरा दे जो वह
कैसी तरक्की ?
मुझे बचाओ
तुमको दूँगी प्राण
मैं हूँ प्रकृति !
कटते वन
हाँफती है धरती
रहोगे कहाँ !
वृक्ष लगाओ
समारोह पूर्वक
सुखी रहोगे !
रो रही नदी
खो गया तरु विम्ब
सूखे है ताल !
पीड़ित मन
बनती है कविता
बोले है शब्द !
आज है लगा
गूंगे की कलम को
मिली आवाज !
कलम कार !
है शब्द उपासक
मौन तपस्वी !
अब टूटेंगी
सौ साल की बेड़ियाँ
जगा है युआ !
समंदर हूँ
लहरों का पग है
मुड़ती नहीं !
सदानीरा हूँ !
प्राणित हर कण
धरती माँ हूँ !
वरसा मेघ !
अप्रतिहत स्वर
गीत गा गया !
विदग्ध स्वर
धूसरित साँसों में
उमड़ने दो !
कोसो दूर हो
रहते हो मन में
क्या कहोगे ?
बरसने दो
स्नेह की बौछार
बहकने दो !
कह न सके
यौ बीत गया सब
सह न सके !
चिर मंगल
मानसिक क्षितिज
हो मेरा साथी !
कृष्ण कली हूँ
तपसी वनचरी
हूँ शकुन्तला !
जीवन खुद
अधूरा पथिक है
पूर्ण है मन !
हे ! चिर पुराण
जग जीवन तुम
हो चिर नवी!
मैं श्रम कर
दोनों को मिलाता हूँ
जो है जो होगा !
अलिखित हूँ
मुझे विश्राम नहीं
मैं संघर्ष हूँ !
मशाल बनी
अखंड आस्था का
मैं शक्ति हूँ !
बादल चीर
धरा पे आया नीर
जीवन जगा !
असीमित है
युवा मन की उड़ान
छोटा है नभ !
मोह लेती है
पशु- पक्षी- लता को
तेरी बांसुरी !
ऐसा है प्रेम
न तो कैद में रखा
न दी आजादी !
मर्म !सीप का
स्वाति की बूँद को
मोती बनाया !
विषमताएं
ठिलती चलती है
पहाड़ो पर !
निकल चल !
प्रवासी तू दूर का
चल अकेला !
खिला गुलाब
खुशबू उड़ चली
क्या करे फूल !
आज से 50 वर्ष पहले इस तरह की कवितायें जापान में लिखी गयी थी !
हमारे देश में सबसे पहले इस तरह की कविता गुरु देव रबीन्द्र नाथ टैगोर ने लिखी !
जापान में इसे हाईकू कहतें हैं !
मान सको तो ,
मानो सबसे कठिन
है सहजता !
हाथों का श्रम
इंसान की प्रेरणा
बना अजंता !
आंसू की रात
जीवन जीत गया
रो पड़ा गम !
जीवट को भी
बनाती है कायर
नातों की बेड़ी !
कर्म कर तू
कर्तब्य के लिए
धर्म के लिए !
हठ करके
जी भर भोग ख़ुशी
भागेगी बाधा !
पेट का लेख
है आदमी को गा रही
इस दौर में !
साँसे हैं तान
धड़कन है ताल
मन है गीत !
श्रेष्ठ रचना
तप से ही बनी है
जैसे मानव !
फिर सुनी है
व्याकुल सी बांसुरी
मनहर की !
घने मेघों में
चमका पीताम्बर
वो !देखो सखी !
मैंने माना है
बड़ा सुखद पथ
तेरे द्वार का !
जीवन यह
दृष्टांत बना अब
दुर्गम यात्रा !
जूही की माला
करुण निवेदन
सजल नेत्र !
कौन सँवारे
सतरंगी सपने
दृष्टि संजोई !
क्या पाया है
तब जानोगे जब
यह खो दोगे !
भटका पंछी
घोसले की चाह में
तमाम उम्र !
घर की राह
बिसरा दे जो वह
कैसी तरक्की ?
मुझे बचाओ
तुमको दूँगी प्राण
मैं हूँ प्रकृति !
कटते वन
हाँफती है धरती
रहोगे कहाँ !
वृक्ष लगाओ
समारोह पूर्वक
सुखी रहोगे !
रो रही नदी
खो गया तरु विम्ब
सूखे है ताल !
पीड़ित मन
बनती है कविता
बोले है शब्द !
आज है लगा
गूंगे की कलम को
मिली आवाज !
कलम कार !
है शब्द उपासक
मौन तपस्वी !
अब टूटेंगी
सौ साल की बेड़ियाँ
जगा है युआ !
समंदर हूँ
लहरों का पग है
मुड़ती नहीं !
सदानीरा हूँ !
प्राणित हर कण
धरती माँ हूँ !
वरसा मेघ !
अप्रतिहत स्वर
गीत गा गया !
विदग्ध स्वर
धूसरित साँसों में
उमड़ने दो !
कोसो दूर हो
रहते हो मन में
क्या कहोगे ?
बरसने दो
स्नेह की बौछार
बहकने दो !
कह न सके
यौ बीत गया सब
सह न सके !
चिर मंगल
मानसिक क्षितिज
हो मेरा साथी !
कृष्ण कली हूँ
तपसी वनचरी
हूँ शकुन्तला !
जीवन खुद
अधूरा पथिक है
पूर्ण है मन !
हे ! चिर पुराण
जग जीवन तुम
हो चिर नवी!
मैं श्रम कर
दोनों को मिलाता हूँ
जो है जो होगा !
अलिखित हूँ
मुझे विश्राम नहीं
मैं संघर्ष हूँ !
मशाल बनी
अखंड आस्था का
मैं शक्ति हूँ !
बादल चीर
धरा पे आया नीर
जीवन जगा !
असीमित है
युवा मन की उड़ान
छोटा है नभ !
मोह लेती है
पशु- पक्षी- लता को
तेरी बांसुरी !
ऐसा है प्रेम
न तो कैद में रखा
न दी आजादी !
मर्म !सीप का
स्वाति की बूँद को
मोती बनाया !
विषमताएं
ठिलती चलती है
पहाड़ो पर !
निकल चल !
प्रवासी तू दूर का
चल अकेला !
खिला गुलाब
खुशबू उड़ चली
क्या करे फूल !