शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

आत्म गुंजन (हाइकू)

यहाँ मैं 17 अक्षरी कविता लिखूंगी  यह कविता लिखने की जापानी  विधा है !
आज से 50 वर्ष पहले इस तरह की कवितायें  जापान में लिखी गयी थी !
हमारे देश में सबसे पहले  इस  तरह की कविता  गुरु देव रबीन्द्र नाथ  टैगोर  ने  लिखी !
जापान में इसे   हाईकू कहतें  हैं !

मान सको तो ,                                                      
मानो सबसे कठिन
है सहजता !

हाथों का श्रम
इंसान की प्रेरणा
बना अजंता !

आंसू  की रात
जीवन  जीत गया
रो पड़ा गम !

जीवट  को भी
बनाती  है कायर
नातों की   बेड़ी !

कर्म  कर तू
कर्तब्य के लिए
धर्म  के  लिए !

हठ  करके
जी भर  भोग  ख़ुशी
भागेगी  बाधा !

पेट  का लेख
है आदमी  को गा रही
इस दौर  में !

साँसे हैं  तान
धड़कन  है  ताल
मन  है  गीत !

श्रेष्ठ  रचना
तप  से  ही बनी है
जैसे  मानव !


फिर सुनी है
व्याकुल सी  बांसुरी
मनहर  की !


घने मेघों  में
चमका  पीताम्बर
वो !देखो सखी !

मैंने  माना है
बड़ा  सुखद   पथ
तेरे द्वार का !

जीवन  यह
दृष्टांत  बना अब
दुर्गम यात्रा !

जूही की माला
करुण  निवेदन
सजल  नेत्र !

कौन सँवारे
सतरंगी  सपने
दृष्टि संजोई !

क्या पाया है
तब जानोगे जब
यह खो दोगे !

भटका पंछी
घोसले की  चाह में
तमाम  उम्र !

घर की राह
बिसरा  दे  जो वह
कैसी  तरक्की ?

मुझे बचाओ
तुमको  दूँगी  प्राण
मैं  हूँ  प्रकृति !

कटते  वन
हाँफती   है  धरती
रहोगे कहाँ !

वृक्ष लगाओ
समारोह पूर्वक
सुखी रहोगे !

रो रही नदी
खो गया तरु विम्ब
सूखे है ताल !

पीड़ित मन
बनती है कविता
बोले है शब्द !

आज है लगा
गूंगे  की कलम को
मिली  आवाज !

कलम कार !
है शब्द उपासक
मौन तपस्वी !

अब टूटेंगी
सौ साल की बेड़ियाँ
जगा  है युआ !

समंदर हूँ
लहरों का पग है
मुड़ती   नहीं !


सदानीरा  हूँ !
प्राणित हर कण
धरती माँ हूँ !

वरसा  मेघ !
अप्रतिहत  स्वर
गीत गा  गया !


विदग्ध स्वर
धूसरित साँसों में
उमड़ने दो !

कोसो दूर हो
रहते हो मन में
क्या कहोगे ?

बरसने दो
स्नेह की बौछार
बहकने दो !

कह न सके
यौ बीत गया सब
सह न सके !

चिर मंगल
मानसिक क्षितिज
हो मेरा साथी !

कृष्ण  कली हूँ
तपसी वनचरी
हूँ शकुन्तला !

जीवन खुद
अधूरा पथिक है
पूर्ण है मन !

हे ! चिर पुराण
जग जीवन तुम
हो चिर नवी!

मैं  श्रम कर
दोनों को मिलाता हूँ
जो है जो होगा !

अलिखित हूँ
मुझे विश्राम नहीं
मैं संघर्ष  हूँ !

मशाल बनी
अखंड आस्था का
मैं शक्ति हूँ !

बादल चीर
धरा पे आया नीर
जीवन जगा !

असीमित है
युवा  मन की उड़ान
छोटा है नभ !

मोह लेती है
पशु- पक्षी- लता को
तेरी बांसुरी !

ऐसा है प्रेम
न तो कैद में रखा
न दी आजादी !

मर्म !सीप का
स्वाति की बूँद को
मोती बनाया !

विषमताएं
ठिलती चलती है
पहाड़ो पर !

निकल चल !
प्रवासी तू दूर का
चल अकेला !

खिला गुलाब
खुशबू  उड़ चली
क्या करे फूल !















रविवार, 1 जुलाई 2012

मूक बंधन

जूली देखने में बहुत सुन्दर थी.. एक दम सफ़ेद ! झबरे बाल, उसके गुलाबी होंठ और काली कजरारी आँखें जो उसके श्वेत चेहरे को अधिक खूबसूरत बना देती थीं। उसकी पूँछ एकदम गोल लपेटी हुई छल्ले के आकर में उसकी पीठ पर गजब की दिखती थी। अगर कभी खोल दे कि लम्बी दिखे तो फिर कुछ ही मिनटों में गोल हो जाती। मैंने अब तक किसी की ऐसी पूंछ नहीं देखी।

विभु और विकास दोनों उसके साथ खेलते, विकास उसे बहुत प्यार करते थे। वह भी उनको देखकर खूब उछलती कुछ देर उछल कूद करके उनके पैरों के पास बैठ जाया करती थी। जूली हम सबसे इस तरह का व्यव्हार करती जैसे सब समझ रही हो। जब उससे कोई गलती हो जाती तो चुपचाप बैठ जाती थी। जब डांट पड़ती तो धीरे -धीरे आकर पैरों के पास बैठ जाती थी। उसे चूहों से नफरत थी देखते ही झपट पड़ती और मार देती थी।

उसे हरिद्वार से लाये थे ! वह नौ साल से कुछ महीने अधिक हमारे साथ रही। जूली के आखिरी साल में एक विदेशी नस्ल का कुत्ता आया जो केवल 15 दिन का था जब उसे विभु घर ले आये । हमने उसे जैकी कहा। जूली ने उस पर अपनी पूरी ममता लुटाई। जूली जैकी की माँ नहीं थी पर उसे अपने साथ रखती, जैकी उसका दूध (स्तन पान ) पीता और जूली उसे यह सब करने देती । जूली पहले उसको खाना खाने देती और मैं इनके मुक्त मूक -बंधन को देखती रहती।

जैकी जब 9-10 माह का था तब जुली चल बसी। जिस दिन वह प्राण हीन हुई उस दिन मैं बहुत रोई.. बच्चे स्कूल में थे ,उनके पिता मेरठ गए थे। दो दिन कुछ सुस्त रही, मेरे सामने ही निढाल हो गई। मैंने एक श्वेत वस्त्र में उसे अपने एक नौकर के द्वारा सीता कुंड भिजवा दिया ।

अब जैकी बड़ा हो रहा था। उसका रंग और आकार बिलकुल अलग था.. वह German Shephard नस्ल का था। उसके पेट का रंग अलग और पीठ का अलग था। उसकी आधी पूंछ, आधा मुख और पंजा गहरे भूरे रंग था जो उसके पेट से मिलता था और पीठ एकदम काली चमकीली। उसकी पूँछ हमेशा खड़ी रहती झंडे की तरह, जब वह उसे हिलाता तो बड़ा शानदार लगता था.. जैसे बड़े अदब के साथ सलाम कर रहा है ! मैं उसकी इस अदा पर खुश होती।

विकास उसके साथ बहुत खेलते, उसे नहलाते...उनके साथ वह आराम से नहाता भी था। एक बार विकास ने उसके मुख में rubber band लपेट दिया, उसका मुख लम्बा था rubber band भी ठीक से लग गया, उसने बहुत मुख को इधर -उधर घुमाया पर वह नहीं खुला अब वह इनके पीछे -पीछे चलता रहा मुख उठाये जैसे कह रहा हो मुझे खोलो। हम सब हँसते रहे।

जैकी हम सब के अलावा किसी बाहर के आदमी को बिलकुल बर्दाश्त नहीं करता था। जब तक कोई घर के बाहर के लोग बैठे रहते थे, वह निरंतर भौंकता रहता था। उसकी यह आदत हमें परेशान कर देती थी। उसको यदि कभी कभी मार भी देती कि चुप हो जा, वह तभी शांत होता जब अतिथि चले जाते थे।

वह हम सब पर कभी आक्रामक नहीं हुआ, मार खाता तो मुख अपने पंजों में छिपा कर बैठ जाता था ,एक शरणागत भाव को दर्शाता था। उसके उग्र स्वभाव के कारण लोग हमारे घर आने में डरते थे। पर वही जैकी जब मालिक के सामने इस तरह पेश आता तो ताज्जुब होता था।

कभी जब मैं घर के अन्दर होती और कोई आ जाता तो वह आकर एक ख़ास आवाज निकालता और फिर दौड़ कर बाहर जा कर भौंकने लगता, फिर मेरे पास आता, फिर बाहर जाता यह उसका अपना तरीका था यह कहने का कि चलो... बाहर कोई आया है।

शाम को जब विभु और विकास स्कूल से आते तो जैकी अपनी ख़ुशी को संभाल नहीं पाता था। खूब उछलता, तरह तरह की आवाज निकालता। विभु तो नहीं, पर विकास उसके साथ कुछ मिनट रुक कर ही अपने कपडे बदलते और फिर बाकी काम करते।

जैकी की वफादारी ही थी की वह हम सब पर कभी नही गुर्राया और किसी अन्य को कभी बर्दाश्त नहीं किया। इसी वजह से उसको अगर मैं कभी मार भी देती थी तो वह सर झुकाकर मार खा लेता। फिर जब कोई आता तो तब तक भौंकता जब तक वह चला न जाता। उसको बाँध कर रखना पड़ता था, नहीं तो मौका देखकर वह आगंतुक को काट लेता था।

कौवा जब आता तो जैकी अपनी रोटी को पेट के नीचे रखकर बैठ जाता। जब बड़ा हो गया तो कौवे को आते ही भगाता और अपने कटोरे का खाना तुरत ख़त्म कर देता। जब मैंने यह देखा तो मैंने कौवे के लिए मुंडेर पर रोटी रखनी शुरू कर दी... वह दोपहर में आता, 1 से 2 के बीच उसकी कांव -कांव सुनकर रोटी रख देती और वह लेकर चला जाता।

एक बार की बात है, दोपहर में सिर्फ चावल ही बना था वह आया और बुलाने लगा उसकी कांव कांव सुनकर मैं सोच में थी क्या करू फिर उसके लिए एक रोटी बनायी जब तक रोटी उसे नहीं मिली वो भी काँव काँव करता रहा रोटी पाकर उड़ गया। इस प्रकार जैकी और कौवे में भी एक रिश्ता बना, उसे देखकर जैकी तुरत खा लेता ताकि उसका खाना कौवा न ले सके। मैं भी खुश होती।

जैकी करीब नौ साल तक हमारे साथ रहा। मुझे जैकी और जूली दोनों बहुत याद आते हैं। मैं इनको न तो कुत्ता कहना चाहती हूँ न ही पशु, पर समाज में ये इसी नाम से जाने जाते हैं। मेरे जैकी ने हम चारो के अलावा किसी से दोस्ती नहीं की नौ सालों में... क्या कोई इंसानी रिश्ता इस तरह हो सकता है ?