रविवार, 8 दिसंबर 2013

कैनवास

जी कर तो
 पार न  की  सरिता !
जीवन !
क्या मर कर जीतोगे !
तर कर भी ,
खुद से हार गए ,
डूबे तो ,
जाओगे कैसे ?
अब उठो लिखो ,
नवल लेखा !
आमरण 
मंगल  गीत आँगन !                                                                                                                                     
यश धवल ,सुवास उन्नत !!

एक दिया
जल रहा था !
अकेला !
किसी  राह तकता
मालूम  है ,वो नहीं आएगा
जल रहा हूँ
अपनी  संतुष्टि  के लिए !

रविवार, 18 अगस्त 2013

maa

फटे ,पुराने ,तुड़े ,मुड़े से वस्त्र में
एक सुंदर काया !
जैसे दही का एक टुकड़ा लेकर उससे बना हो तुम्हारा चेहरा
सुन्दर माथे पर लाल गोल बिंदी
जैसे गुलाब की  फूटती  कली !
ऐसी दिखती मेरी माँ !
सुडौल सुन्दर काया ,सुन्दरता की मूरत
उस रूप से थोडा सा चुराने को जी चाहे
सारे रिश्ते जैसे उसी में समाये हों
पत्नी ,वधु ,भाभी ,बहन ,माँ पड़ोसन
सारे रिश्तों के बीच जीवन भर नाचती रही माँ
रिश्तों रिवाजो के बीच आधी सोयी, आधी जागी
अलसाई सी ,थकी हुई दुपहरी जैसी माँ !
तमाम लहरों को खुद में समेटे
समंदर की मानिंद माँ !
जीवन की कामयाबी में
दुआओं जैसी माँ !



रविवार, 14 जुलाई 2013

yamini

मुखरित है प्रतिश्वास
मधुर है यामिनी की यह रात

शून्य नभ में गुंजन है आज
प्रकम्पित है सारे नक्षत्र

सुनाते युगों -युगों की बात
सजनी !अन्तर्हित पुलक है आज

विरह कल का बंदी है आज
भाव सब  रंगे रंगीले आज

तिमिर में दीवाली है आज
बनी बंदिनी भी स्वामिनी आज

नियति है कुशल चितेरा आज
भरा यह जीवन पात्र है आज !

बुद्ध पूर्णिमा पर ,भगवान् बुद्ध को समर्पितहै 





पी कहाँ

                                                               पी कहाँ 

बड़ी देर से पपीहा चीख रहा है -पी कहाँ ,पी कहाँ फिर कलम भी चली -
तृप्ति में जीवन न पाया 
प्यास ही तू है ' पपीहे' !
निज क्षितिज में 
नील नभ में 
नापता है रोज सागर 
 ढूढ़ता रहता है नित तू 
पी कहाँ -हैं पी कहाँ !
नाप  पाता यदि मेरी तू 
ह्रदय अंतर मेघमाला 
पी बसा उर है कहाँ ?
खोज मुझमे पी कहाँ 

बुधवार, 3 जुलाई 2013

Jan-gan-man (history)

                                          जन गन मन 

जय हिन्द -आज मैं अपने पाठको को इतिहास के एक ऐसे पन्ने पर ले जाना चाहती हूँ जिसे मैं बताये बिना रह नहीं पा रही ! तो चलतें है सन १९ ११  में 

१९११ में  भारत की राजधानी  बंगाल हुआ करती थी !सन्-१ ९ ० ५ में जब बंगाल विभाजन को लेकर अंग्रेजो के खिलाफ बंग भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजो ने अपने आपको बचाने के लिए कलकत्ता से हटाकर राजधानी को  दिल्ली ले गए और १९११ में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया !

पूरे भारत में उस समय लोग विद्रोह से भरे हुए थे तो अंग्रेजो ने अपने इंग्लैंड  के राजा को भारत में आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाय !

इंग्लैंड का  राजा  जार्ज पंचम १९११ में भारत  आया !

रविन्द्र नाथ टैगोर पर दबाव  बनाया गया की तुम्हे एक गीत 'जार्ज 'के स्वागत में लिखना होगा ! टैगोर का परिवार अंग्रेजो के करीब भी हुआ करता था ! टैगोर  परिवार के लोग ईस्ट इंडिया  कंपनी के लिए काम करता था ! उनके बड़े भाई अवनींद्र नाथ टैगोर कलकत्ता के  ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशक (डायरेक्टर )रहे  बहुत दिनों तक !उनके परिवार का बहुत पैसा कंपनी में लगा हुआ था ! रविन्द्र् नाथ की बहुत सहानु भूति  थी अंग्रेजो के लिए !

रवीन्द्र नाथ ने मन से या बेमन से जो गीत लिखे उसके बोल हैं _'जन गन मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता ' इस गीत के शब्दों में जार्ज पंचम का गुण गान है !यह गीत उनके स्वागत में गया गया ! गीत का अर्थ समझने पर पता चलेगा की इसमें अंग्रेजो की खुशामद है ! इस गीत का अर्थ है -भारत के नागरिक ,भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है !हे अधिनायक (सुपर हीरो )तुम्ही भारत के भाग्य विधाता हो !तुम्हारी जय हो !जय हो !जय हो !

तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध ,गुजरात ,मराठा  अर्थात  महाराष्ट्र ,द्रविड़ ,उडीसा और बंगाल तथा नदियाँ जैसे यमुना गंगा ये सभी हर्षित हैं ,खुश हैं !

तुम्हारा नाम लेकर हम जागतें हैं और तुम्हारे नाम का आशीष चाहतें हैं !तुम्हारी गाथा गातें हैं ,हे भारत भाग्य विधाता तुम्हारी जय हो ! जय हो !जय हो !

इस प्रकार जार्ज के स्वागत में  गाया गया ,जब वो इंग्लॅण्ड गये तो उन्होंने इस गीत का हिंदी में अनुवाद कराया क्यों की भारत में ,उनके  सम्मान में गाये गीत का वो अर्थ समझना चाहते थे जब जार्ज ने इंग्लिश में इसका अनुवाद सुना तो  बोला -इतना सम्मान तो मुझे मेरे देश में भी नहीं मिला !जार्ज बहुत खुश हुआ !

 उसने आदेश दिया की जिसने मेरे सम्मान में ये गीत लिखा है उसे यहाँ बुलाया जाय रवीन्द्र नाथ टैगोर इंग्लॅण्ड गए ,जार्ज पंचम उस समय नोबल पुरस्कार का अध्यक्ष था !

जार्ज ने रवीन्द्र को नोबल पुरस्कार देने का फिसला लिया !रवीन्द्र ने मना कर दिया क्योंकि गांघी जी ने उनको इस गीत के लिए बहुत फटकार  लगाई थी इसलिए !

टैगोर ने कहा आप मुझे पुरस्कार देना चाहतें हैं तो मेरी रचना  गीतांजलि पर दे ,इस गीत के नाम पर नहीं ! यही प्रचारित किया जाय की मुझे जो नोबल पुरस्कार दिया गया है वो गीतांजलि  नामक रचना के लिए दिया गया है !जार्ज पंचम मान गए और रवीन्द्र नाथ को  सन्-१९१३ में गीतांजलि के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया !

१९१९  में जब  जलियाँ वाला काण्ड हुआ तब रवीन्द्र नाथ की सहानुभूति ख़तम हुई गांघी जी ने गली की भाषा में उनको एक पात्र लिखा की -अब भी अगर तुम्हारी आँखों से अंग्रेजियत पर्दा न उतरा तो कब उतरेगा तुम इतने चाटुकार कैसे हो गए ,गांघी जी टैगोर से मिले और उनको  डांटा की -अंग्रेजो की अंध भक्त हो तब जाकर टैगोर ने  जलियाँ वाला बाग़ हत्याकांड की निंदा की !

१९१९ से पहले अंग्रेजी  हुकूमत के पक्ष में रबीन्द्र नाथ लेख लिखा करते थे अब वे विरोध में लिखने लगे ! टैगोर के  बहनोई   सुरेन्द्र नाथ लन्दन में रहते थे और  आई .सी .एस  आफिसर थे अपने बहनोई को टैगोर ने एक  पत्र लिखा की -'जन गन मन 'गीत अंग्रेजो के द्वारा मुझ पर दबाव डाल कर  लिखाया गया है ,इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है इस गीत को न गाया  जाय तो अच्छा हो !

चिट्ठी के अंत में लिखा -इस चट्ठी को किसी को न दिखाना इसे मैं अपने  तक ही रखना चाहता हूँ !जब मेरी  मृत्यु हो जाय तो सबको  बता देना 

७ अगस्त १९४१ को रवीन्द्र नाथ की मृत्यु के बाद सुरेन्द्र नाथ ने इस  पत्र को सार्वजनिक किया और कहा की इस गीत को न  गाया जाय !

१९४१  कांग्रेस पार्टी उभर रही थी लेकिन वह दो खेमो में   बट गई थी !एक खेमा बाल गंगा धर तिलक का और दूसरा खेमा मोती लाल नेहरु का समर्थक था ! सरकार  बनाने को लेकर मतभेद था दोनों में ! मोती लाल नेहरु चाहते थे की स्वतंत्र भारत की  सरकार  अंग्रेजो के साथ मिलकर बने बाल गंगा धर तिलक कहते थे ऐसा करना भारत के लोगों को धोखा देना है !
बालगंगा धर तिलक (कोएलिशन गवर्नमेंट )संयोजक  सरकार  के खिलाफ थे इस कारण लोकमान्य तिलक कांग्रेस से निकल गए और उन्होंने गरम दल बनाया !कांग्रेस के दो भाग हो गए  ! एक नरम दल, एक गरम दल ! गरम दल के नेता थे लोकमान्य तिलक जैसे  क्रांतिकारी वे हर जगह -वन्दे मातरम्  गाया  करते थे ! 

नरम दल वाले मोती लाल नेहरु अंग्रेजो के साथ रहा करते थे उनकी बैठकों में शामिल होते थे उनको सुनते थे  समझौते  करते थे उनको जन-गन-मन  गीत पसंद था ! इस समय  गांघी जी कांग्रेस की सदस्यता से स्तीफा दे चुके थे !

नरम दल अंग्रेजो का समर्थक था और अंग्रेजो को वन्दे मातरम् पसंद नहीं था तो अंग्रेजो के कहने पर नरम दल वालों ने यह हवा उड़ाई की -मुसलमानों को वन्देमातरम नहीं गाना चाहिए  क्योकि  इसमें बुतपरस्ती  है !  आप जानतें है की मुसलमान मूर्ती पूजा नहीं करते !

उस समय मुस्लिम लीग भी बन गयी थी जिसके प्रमुख थे मुहम्मद अली जिन्ना ! उन्होंने भी इसका विरोध करना शुरू कर दिया !जिन्ना देखने को भारतीय थे पर मन वचन और कर्म से अंग्रेज थे ! उन्होंने भी अंग्रेजो के इशारे पर ये कहना शुरू किया और मुसलमानों को वन्देमातरम गाने से मन किया ! 

१९४७  जब भारत स्वतंत्र हो गया तो जवाहर लाल नेहरु ने इसमें राजनीती कर डाली !संविधान सभा में ३ १ ९ सांसदों में से ३१८ ने वन्देमातरम को राष्ट्र गान स्वीकार करने की सहमती दी ! बस एक संसद ने नहीं दी वो थे जवाहरलाल जिन्होंने बंकिम चन्द्र की वन्देमातरम को राष्ट्रगान मानने से  इनकार किया !उनका तर्क था इस गान से मुसलमानों  के दिल को चोट पहुँचती है !

दरअसल इस गीत से मुसलमानों को नहीं अंग्रेजो  के दिल को चोट पहुँचती थी ! अब इस झगडे का  फैसला  कौन करे तो ये पहुंचे गांघी जी के पास  !  गाँधी  जी ने कहा -जन  गन  मन गीत के पक्ष में मैं भी नहीं हूँ और तुम (जवाहर लाल नेहरु )वन्दे मातरम् के पक्ष में नहीं हो तो कोई तीसरा गीत लिखा जाय !

तीसरा विकल्प बना-  विजयी विश्व तिरंगा प्यारा !झंडा ऊँचा रहे हमारा !

लेकिन नेहरु जी इस पर भी तैयार नहीं हुए !उनका तर्क था की यह गीत आर्केस्ट्रा पर नहीं बज सकता और जन गन मन आर्केस्ट्रा पर बज सकता है !

उस समय बात ताल गई गाँधी जी की  मृत्यु के बाद नेहरु ने जन गन मन को  राष्ट्र गीत घोषित   कर दिया ! नेहरु अंग्रजो के दिल को चोट पहुँचाना नहीं चाहते थे !अंग्रेजो की भक्ति में गया गया गीत राष्ट्र गान के रूप में  भारतवासियों पर थोप दिया गया !

वन्दे मातरम् पीछे हो गया  वी वी सी  ने एक सर्वे किया उसमे ९ ९ %लोगों ने वन्देमातरम को पसंद किया !दुनिया का दूसरा लोकप्रिय गीत है वन्देमातरम !लोग कहतें हैं इसके ले में एक जज्बा है !

मेरे देश वासी गाने के भाव को देखे इतिहास को जाने फिर यह तय करें की उनको क्या गाना है !अपने आत्म सम्मान की रक्षा खुद करें !

इतना लम्बा पात्र पढने के लिए मैं आपकी आभरी हूँ आप ओरों को भी यह बताएं जन गन मन का यह रोचक इतिहास !

जय हिन्द !

जय जवान !!
























रविवार, 16 जून 2013

सत्य

सत्य को ही  'सत्य' कहने के लिए  ,
मैं अदालत  में  लिए गीता खड़ा !

झूठ के तो हर तरफ ही पाँव हैं
सत्य बेचारा  बना 'तनहा 'खड़ा !

जुबान जिनको थी वो तो चली अपनी ही तरह
वो सत्य था की जो भौचक रहा पत्थर की तरह !

हे देव

हे देव !
मेरे आविल स्वप्न
अनंत पथ की बातें
मंडराती अभिलाषा
अमिट  बनेगी !
नभ के आँचल में
एक दिन तुम देखोगे
इश वचन का सत्य होना
मेरे संकल्प का निभना
तुम्हे देना होगा
असीम अमरता
मेरा मुक्ताकाश !

शनिवार, 15 जून 2013

मत करना

 कभी जख्मी परिंदे का
शिकार मत करना
पनाह मांगे जो उसका
शिकार मत करना
जगत की चोट का खुलकर
 प्रचार  मत  करना
कृपा की  चाह में कोई
गुनाह मत करना
बदल सकता है दुश्मन भी
प्रथम वार मत करना
अँधेरा भी बन सकता है साथी
निराशा  स्वीकार मत करना
बड़े ताप कर्म से  मिलता है ये मानव जीवन
इसे  यूँ  ही बेकार मत करना !

जंगल का दर्द

जंगल का  दर्द
तरल नयन के साथ
कहा यह -कटे पेड की शाखों ने
पत्ते झरे ,कटी नसे
दिखते घाव ,छिले वदन
दर्द से भरे !
फिर भी खड़ा हूँ
मौन तपसी हूँ
संरक्षक हूँ !
पंछी बेघर हुए
छाँव भी  छीने  गए
जीव  सारे रो रहे
शोक में डूबे हैं मौन
फूल ,बेल ,पेड़ ,पौधे
कहा पेड़ ने !
मैंने अपना आप लुटाया
ईधन ,औषध ,भोजन ,छाया
सब कुछ मैंने सबको बांटा
फिर भी कुछ निर्मम हाथों ने
घाव दिए ,आघात दिए !
विम्ब भी मुझसे अलग हुआ अब
अपने हाथ तू रोक ले मानव
मत मिटा मुझे फिर सोच ले मानव
मैं  शरण्य  हूँ ,मैं जीवन  हूँ
मैं न रहा तो तू न बचेगा




मंगलवार, 26 मार्च 2013

होली

खेलन को मन तरसे होली !
का पे यह रंग  डारू  आली !
अगर तगर केसर रंग भर के 
यामिनी दिवस निहारूं  मैं !
बाट  निहारूं  मैं ब्रज नर के 
नैन बने गोपी श्री यथा !
बंधन बंघी  स्वामिनी  सी मैं 
ब्यथित पुजारिन जैसी मैं !

गुरुवार, 21 मार्च 2013

व्रज

 ओ रे पथिक !
तू व्रज की ओर  मत जाना !
अगर व्रज में जाना तो 
यमुना की  ओर  न  जाना !
वहां एक   काला  कान्हा है !
उसे तू  न देखना !
जब वो वंशी अधरों पर धरे ,
तो वहां रुकना मत !
पथिक !जो तू वहां  ,गया
तो अपना सब कुछ हार जायेगा !
बावरा  बन के भटकेगा !
तू व्रज की ओर न  जाना !


मंगलवार, 19 मार्च 2013

आज


आज मन में ,
कविता बने तुम !
शब्द बन कागज पे उतरे !
चेतना के  पंख  फूटे !
बड़े सुन्दर  अर्थ   निकले !
आज जीवन जिया मैंने !
स्वागत तुम्हारा  किया  मैंने !
आज फिर आइना देखा मैंने !
आज का यह दिन तुम्हे ही दिया मैंने !


शुक्रवार, 8 मार्च 2013

तलाश

मंजिल की तलाश  है !
जीवन  पथ पर हूँ !
कभी अँधेरा  कभी  उजाला !
अभी  इम्तहान  बाकी  है !
स्वप्न  हकीकत  बने
सत्य  की  तलाश  में  हूँ !
विराट  तक  पहुँचने  को
साँसों  को संभाले  हूँ  !
दुखों  को  जलाकर
ख़ुशी  की  तलाश  में हूँ !
तुमको  पाने की  आस  में हूँ !
खुद  को खोने  की  चाह  में हूँ !

गुरुवार, 7 मार्च 2013

साँझ आई


तौल खुद को तू
प्रवासी !
सघन अंधेरा दूर कर तू !
ज्योति दे अपने हिये को !
कर सवेरा !
साँझ आई -कह रही है
जो थिरा ,जो जाय
अब्यक्त भी खो जाय
मारुत मरण जो आय
धीर रख अपने को
अवसाद के सब क्षण जल तू
निकल चल तू
अब अकेला !
बन के साथी
निज दिवस का !

विकल मन


आज फिर वंशी बजी है
फिर विकल मन ,
आएंगे वो आज फिर यह भ्रम हुआ है
है विकल मन
भीड़ में भी हम अकेले ही रहे हैं !
हादसा यह मेरे संग हरदम हुआ है !
आज फिर वंशी बजी है

सत्य


असत्य से सत्य की उत्पत्ति नही होती ।
 हमारा धर्म सत्य की राह दिखता है पर इस चलना बड़ा कठिन होता है ।
 कभी आदमी का अपना स्वार्थ ,कभी डर ,कभी कोई कमजोरी अथवा बुद्धि हीनता आदि आड़े आता है ।
 पर जो भी हो सत्य पर चलना एक दिन अपने आप को स्वच्छ कर देता है ,मन मे कोई ग्लानी नही छोड़ता और मन वो दर्पण है जो आपके न चाहते हुए भी आपका अपना निजी रूप दिखाता है जो और कोई नही देख सकता वो आपका मन आपको दिखाता है और मन के दर्पण में जब आप अपने को दोषी पाते है तो एक कैदी से या एक अपराधी से आप अधिक पीडा को भोगते है मन के स्तर की पीडा बहुत दुःख देती है ,दीमक की भाति अन्दर से खाली होना ही होता है ।
 इसलिए परम पिता सब को ज्ञान दे ,सब को शक्ति दे ,अच्छी शक्तियाँ मानव का कल्याण करे ,कोई दुखी न हो ।
 ॐ तत्सत

धर्म


धर्म -यह बड़ा सूक्ष्म बिषय है । इसकी व्याख्या थोडी कठिन होती है लेकिन हम अपनी बुद्धि अनुसार कोशिश करेंगे ।

धर्म अति सूक्ष्मऔर अति बिशाल है सत्य ,अहिंसा, दया ,क्षमा ,शील ,संयम ,नियम आदि इसकी शखाए है । धर्म को अगर हम एक ब्रिक्ष माने तो वो इन शाखाओ के बिना अधुरा है ।

सत्य -वो है जो कभी न मिटे ,नित्य प्रकाश दे
अहिंसा -जो वचन और कर्म से किसी को पीड़ित न करे ।
दया -जो किसी के दुःख में दुखी हो ,उसकी मदद करे ।
क्षमा -किसी की गलतियों को नजर अंदाज करना क्षमा है ।
शील -बडो की मर्यादा का ख्याल रखना ,अनुशासन में रहना ।
संयम -इन्द्रियों की गुलामी से छुटकारा पाना संयम है ।
नियम -जीवन को उचित रीति से जीना । हम बात करेंगे अहिंसा की । अहिंसा का पालन कैसे हो ,अहिंसा क्या
है ,किसे कहते है ,क्या अहिंसा का पालन करके धर्म का पूरा -पूरा पालन हो सकता है ?
जैसा की हमने जाना किसी को पीड़ित न करना अहिंसा है पर अगर हम अनावश्यक रूप से किसी के द्वारा सताये
जाय तो ?उसे सहते जाना कायरता होगी हमें यह जानने का हक़ है की हमने क्या किया है और अगर हम अपने ऊपर हो रही हिंसा को सहते जाय तो यह अपने ऊपर हिंसा है हमें इसको रोकने का धर्म तह पूरा प्रयास करना चाहिए । धर्म हमें अभय बनाता है ,आनंद देता है जीवन को उत्कृष्ट बनाता है ,धर्म हमे हमारी रक्षा करना बताता है।
जीवन में संतुलन हो तो जीना आसान होता है । "स्व "को जीतना बड़ा कठिन होता है यह तो कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है परन्तु प्रयास द्वारा किया जा सकता है । साधारण व्यक्ति तो संसार के प्रपंच और मन के बंधन में ही जीवन गुजर देता है । ईश्वर को ह्रदय में बिठाओ तो घृणा भाग जाती है । भगवन "श्री कृष्ण "ने भागवत में बचन दिया है की में धर्म की स्थापना के लिए ,मानवता की रक्षा के लिए ,पृथ्वी पर अनाचार का नाश करने हेतु ,भक्तो की रक्षा हेतु ,श्रेष्ठ कर्म की "गीता "का ज्ञान देता हूँ हे अर्जुन सुन । आगे हम अपनी मति अनुसार प्रभु के वचनों को कहेंगे । शकुन
भगवान् "श्री कृष्ण "ने अपने जीवन में हर जगह औचित्य का पालन किया है । अपने स्व को भूल कर अर्जुन के सारथी बने ।
मन की शुद्धता ,आत्मा की निरावरण ता भौतिक बन्धनों से मुक्त करती है इसी में विकास और सुख दोनों है । वर्षा का जल शुद्ध रूप में पृथ्वी पर आता है विभिन्न प्रकार के मल को बहा कर नदी में जाता है नदी अपने को भरा हुआ मानती है यही उसका धर्म है। पुनः वाष्प बन कर आकाश की ओर जाती है शुद्ध होने को यही स्थिति आत्मा की है। जहा न्याय है वहा धर्म है न्याय का अर्थ है प्रत्येक मनुष्य को अपने विकास के लिए अवसर प्राप्त होना बिना किसी के मार्ग को रोके । अपने लिए अन्य के मार्ग को रोकना अन्याय है ।
भगवान् कहते है -सहज जीवन जीना चाहिए शरीर को व्यर्थ मई कष्ट नही देना चाहिए । मन को अनासक्त कर लो ,न विषयों को जीतना है न त्याग करना है । अनेक संन्यासी तप करने के बाद भी भोगी और अहंकारी होते देखे गये है ।
अपने स्व को जानो अपनी प्रकृति को पहचानो यही स्व धर्म है । विषयों को तन से नही मन से निकालो । कर्म को करो पर हमने किया यह भाव न आने दो कुशलता पूर्वक कर्म को पूर्ण करो यही कर्मयोग है । विषयों से दूर रहने के लिए अगर संसार का त्याग करोगे तो यह कर्म से भागना कहा जायगा ,कर्म का त्याग माना जायगा जो अनिष्टकारी है । मान लो हमने एक भवन बनाया हम उसमे लिप्त हो कर सब छोड़ दे या किसी फल में इतने लिप्त हो जाए की सब भूल जाए ,यही है आसक्ति । भगवान् कहते है कर्म करो पर फल में आसक्त न हो बंधन में न जाओ निष्काम कर्म ही श्रेष्ठ कर्म है .घोर कर्म में अकर्म की स्थिति को अपनाओ यही है मुक्ति का मार्ग ।
प्रभु ने बताया है धन के स्थान पर धर्म को भोग के स्थान पर कर्म को उत्तम मानो .धर्म की स्थापना के लिए ही युद्ध में अर्जुन के सारथि बने । युधिष्ठिर में न राज्य की रूचि थी ,न वैर ,न अहंकार वे तो धरम राज थे भगवान् ने उन्हें राजा बनाया ताकि पृथ्वी पर धर्म -राज्य हो ।
धर्म स्वतंत्र रहना सिखाता है । धर्म का सच्चा अर्थ यही है । धर्म अनुशासन के साथ आजादी देता है .मन की आजादी चेतना और सृजन देती है । जब मन पर ग्रंथियों की पकड़ मजबूत हो जाती है तो विकास का रास्ता अवरुद्ध हो जाता है आदमी दुविधा में आकर अपनी रणनीति बनाता है फिर भय और भाग्य में फस कर ईश्वर से दूर हो जाता है अंध विश्स्वास के कारण विवेक का चिंतन नही करता । भाव को शुद्ध कर विचारों की कसौटी पर कस कर देखो तब मनुष्यता की ओ र कदम जायेंगे ,धर्म की ओर कदम जायेंगे ।
हरी शरणम् !!!

संतो और ऋषियों ने वर्षो तपस्स्या की तब जाना की आनंद ही महासुख है और वो ईश्वर है जब तक इसकी अनुभूति नही होती तब तक आदमी तड़पता रहता है उसे शान्ति नही मिलती । शाश्स्वत सुख की राह हमें ईश्वर की शरण में जाकर ही मिलती है । मन की एक इक्षा पूरी होते ही दूसरी जग जाती है लेकिन जब धर्म की राह में आते है तो आदमी अन्दर से साम्राट बन जाता है क्यों की वो पूर्ण से मिलता है जब संग परम से होगा तो उसका असर तो अवश्य होगा न ।
मृत्यु आएगी एक दिन सब छीन कर ले जायेगी यही असहायता मनुष्य को "अमृत "पाने को प्रेरित करता है धर्म इसी अमरत्व की खोज करता है ।
१/१०/२००८
भगवन "श्री कृष्ण "कहते हैं -मेरा न कोई व्यक्तिगत मित्र है न शत्रु जहा धर्म है वही मैं हूँ । मैं सौ भूल क्षमा करता हूँ तब दंड देता हूँ ,इतना विराट हूँ की कण -कण में व्याप्त हूँ मैं संतो का भक्त हूँ ।
धर्म स्थापना का प्रथम चरण है पापी को दंड देना जब दुष्ट का दलन होगा तभी धर्म की स्थापना होगी। आज्ञा पालन करना धर्म है -जो बड़े है उनकी आज्ञा का पालन होना चाहिए पर अगर धर्म की आड़ में कुटिलाई हो आज्ञा में कपट हो तो उसको न मानना ही धर्म है । क्या बड़े इस तरह की आज्ञा देते है जिसमे कोई अपना पीड़ित हो जान बूझ कर ऐसी आज्ञा को मानना मुर्खता है । जैसे भीष्म पितामह ने दास राज को वचन दिया की आजीवन विवाह नही करूँगा ,पितामह मछुआरे की कुटिलाई को धर्म मान बैठे । धर्म की गति अति सूक्ष्म है इसे कष्ट सह कर निबाहा जाना चाहिए पर अंत कल्याणकारी होना चाहिए वह धर्म नही जो छल से युक्त हो .
शुक्राचार्य के प्रमुख नीतिगत उपदेश -
महाभारत में वर्णित है की असुर गुरु शुक्राचार्य अपनी इकलौती पुत्री देवयानी को क्षमा और सहिष्णुता की महिमा को बताते हुए कहते है - की जो मनुष्य सदा दूसरों के कठोर वचन ,निंदा ,आलोचना को सह लेता है समझो उसने इस सम्पूर्ण जगत पर विजय प्राप्त कर ली । जिसमे क्षमा भाव है वही सबको जीत सकता है । वे कहते है -
दूरदर्शी बनो ,संकीर्ण न बनो ,विवेक से काम लो । आलस्य और अंहकार को त्याग दो । बिना सोचे -समझे किसी को मित्र न बनाओ । विश्वस्त का भी अति विश्वास न करो । अन्न का अनादर कभी न करो ये ब्रम्ह का स्वरूप है। आयु ,धन ,गृह के दोष ,मंत्र ,औषधि ,दान ,मान तथा अपमान को गुप्त रखना चाहिए । किसी के साथ कपट तथा आजीविका की हानि नही करना चाहिए .कभी किसी का अहित मन से भी नही सोचना चाहिए । शाशक को धर्म पारायण होना चाहिए । यौवन ,जीवन , मन ,लक्ष्मी ,प्रभुत्व चंचल होता है । दुर्जनों और दुष्टों की संगति का अति शीघ्र त्याग करना चाहिए । धर्म शास्वत सुख देता है । दुःख और सुख में तटस्थ रहो । उन्नति के मार्ग अपनाओ .व्यक्ति को अपने शुभ -अशुभ कर्मो का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
अर्यमा -यह नाम मुझे बहुत आकर्षक लगता है मैंने शास्त्रों में पढ़ा की अर्यमा पितरों के देव है । ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इन्द्रादि देवताओं के भाई । शास्त्रों के अनुसार उत्तरा -फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है । इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़ -चेतन मयी श्रृष्टि में ,शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं । इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है ,श्राद्ध इनके नाम से जल ,दान दिया जाता है । यग्य में मित्र सूर्य तथा वरुण (जल )देवता के साथ स्वाहा का "हव्य "और श्राद्ध में स्वधा का " कव्य "दोनों स्वीकार करते हैं ।
अर्यमा मित्रता के अधिष्ठाता हैं । मनुष्य को सच्चे मित्र की प्राप्ति इन्ही की कृपा से होती है । वंश -परम्परा की रक्षा भी इन्ही की कृपा से होती है । पुत्र प्राप्ति के लिए इनकी पूजा की जाती है । अपने परिवार का ही अगर कोई प्रेत बन गया हो और परेशान कर रहा हो तो अर्यमा की पूजा करने से छुटकारा मिल जाता है । इनकी पूजा में काले तिल मिला हुआ जल ले कर तीन इनको तर्पण करे इस मन्त्र के साथ -" ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः "
प्रणाम क्यों ?
आज हम चर्चा करेंगे की हम प्रणाम क्यू करते है ?,हमें प्रणाम क्यू करना चाहिए ?
हमें बचपन से सिखाया जाता है की बडो को प्रणाम करो ,जब हम किसी को प्रणाम करते हैं तो सामने वाला हम पर प्रसन्न हो जाता है । प्रणाम करना शिष्ट आचार है । हमारे देश में ,अलग -अलग प्रांत में प्रणाम करने के अलग -अलग तरीके हैं कही पर पैरों को छू कर ,कही पर पैरों को दबा कर ,कही पर झुक कर अपने गुरु को दंडवत प्रणाम किया जाता है भगवान् को मस्तक से प्रणाम करना चाहिए । प्रणाम करने में जरुरी यह होना चाहिए की प्रणाम ह्रदय से हो ।
जब हम प्रणाम करते हैं तो बडो की उदारता की पिटारी खुल जाती है । उनसे हमें विद्या ,यश ,शक्ति ,बल,उनकी कृपा और आशीर्वाद हमें मिलता है हमारे कष्ट कट जाते है । ऐसा शास्त्र कहता है महापुरुषों को किया गया प्रणाम हमारे विचारों को ओज पूर्ण बनाता है ,हमें उपदेश भी मिलता है । महाराज युधिष्ठिर हर उस जीव को प्रणाम करते थे जो पीत वस्त्र धारण किए हो । तुलसी बाबा कहते हैं -"सिया राम मय सब जग जानी ,करहू प्रणाम जोरी जूग पानी "अर्थात हर जीव में सिया राम को देखो और सब को प्रणाम करो ।
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् राम और कृष्ण अवतार रूप में जब इस पृथ्वी पर आए तो वे घूम -घूम कर संतों का संग करते ,उनकी पग धूलि को माथे पर लेते । भागवत जी में कथा है -जब सुदामा जी श्री कृष्ण से मिलने द्वारिका आए तो भगवान् ने उनका खूब सत्कार किया उनकी पूजा की ,नूतन वस्त्र दिए प्रभु ने सात दिन सुदामा जी द्वारिका रहे जब वे चलने लगे तो भगवान् ने उनसे सब ले लिया उनकी चरण पादुका भी ले ली । रुक्मिणी जी सब देख रही थी बोली भगवन ये आप क्या कर रहे हैं ?जब सुदामा जी आए थे तब आपने इनकी पूजा की और जब ये जा रहे हैं तो आप इनकी पादुका भी ले ले रहे हैं ,भगवान् बोले -रुक्मिणी सुदामा जी मेरे परम भक्त हैं इनकी चरण धूलि जब द्वारिका की भूमि पर पड़ेगी तो यहाँ की भूमि भी पावन हो जायगी इसलिए मैंने इनकी पादुका ले ली । भक्तों की पग धूलि जहाँ पड़ती है वह भूमि पावन हो जाती है । भगवान् संतो की सेवा करते थे और हमें सिखा गये की ऊपर उठना है तो झुकना सीखो ।
श्री कृष्ण पृथ्वी का वंदन करते ,वे भी पूजा करते और गुरुजनों का चरण वंदन करते ।
कृपा की न होती जो आदत तुम्हारी ,तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी !
प्राण
विश्व की सभी अभिव्यक्त शक्तियां ही 'प्राण 'हैं ,प्राण को ब्रम्ह कहा गया है । सारी भौतिक और मानसिक शक्तियां प्राण की श्रेणी में आता है ,जीवन के प्रत्येक क्षेत्र जहा किसी प्रकार की गति है किसी भी स्तर पर ,प्राण के बिना संभव नही है। हमारी शक्ति भी प्राण पर निर्भर है हम देखते हैं कुछ लोग जीवन में बहुत सफल होते हैं यह प्राण शक्ति के कारण ही होता है अपनी संकल्प शक्ति के द्वारा हर कोई इस शक्ति को बढ़ा सकता है कुछ लोग जन्म से ही इस शक्ति से भरे होते हैं । उनकी एक अलग पहचान हो जाती है ।

" हिंदू धर्म के मूल सिद्धांत "
हमारा धर्म मानव जीवन का दर्शन है । इस का सिद्धांत है दुखो को ,कष्टों को अथवा जीवन में आने वाले किसी भी प्रकार की बाधा से हम किस प्रकार मुक्त हो सकते है ?
भगवान् कृष्ण धर्म की स्थापना के लिए ही अवतार ग्रहण किया -श्री कृष्ण परम शक्ति शाली ,परम वीर पर प्रभु ने प्रतिशोध के लिए कभी अपने परम शत्रु को भी नही मारा । वे धर्म की बात सोचते हैं ,प्रजा के हित की बात सोचते हैं । धर्म की स्थापना के लिए एक निः स्पृह और धर्मप्राण राजा चाहिए उसके लिए उनको युधिष्ठिर उपयुक्त पात्र लगते है इसलिए भगवान् ने जीवन भर पांडवो का साथ दिया ।


हमारा शास्त्र कहता है प्रत्येक व्यक्ति का कर्तब्य है अपने अन्दर व्याप्त ब्रम्ह भाव को व्यक्त करना । कर्म ,उपासना ,मन का संयम और ज्ञान इनमे से एक ,एक से अधिक या सभी उपायों को अपना कर ब्रम्ह भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ ।
अनुष्ठान की विधि और अन्य बाहरी क्रिया कलाप तो मात्र व्योरा है । यह विवेक का साधन नही है ।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

महाकुम्भ


तीर्थराज प्रयाग 
अपार भीड़ 
परम शान्ति !
गंगा का धुंधला जल 
यमुना का नीला जल 
दोनों के मिलने का 
स्थल है संगम 
सरस्वती लुप्त हैं !
कुदरत की सशक्त उपस्थिति 
का प्रत्यक्ष दर्शन है 
प्रयाग में !
दो भागो में दो पवित्र नदियों 
के जल का दिखना 
अद्भुत !
मेल क्षेत्र का नजारा 
रात में अभूतपूर्व !
यहाँ रात नहीं आती 
55 दिनों तक !
 नागा साधुओं की 
नगाड़ों पर ताल 
शाही सवारी 
निकलती है 
अमृत पाने  को 
चारो  दिशाओं के 
लोग आतें हैं 
एक  बूँद  अमृत की पाने को 
2013 का  पूर्ण  कुम्भ 






मंगलवार, 1 जनवरी 2013

नए साल में


काश ! की ऐसा हो जाए 
मैं जिस मोहन की राधा हूँ 
इस साल मुझे वो मिल जाए !
मेरे जीवन की वंशी को 
उसकी मंजिल मिल जाए !
दिन भर आँखों में  खुशियाँ हों 
रातें नीदों से भारी हों !
हूँ भीगी , धुली  खड़ी  अब तक 
मैं कब तक पंथ निहारूं ?
मर के फिर मैं मरती हूँ 
मैं हारी हूँ तुम जीते हो !
पर इक आधार जरुरी है 
जीवन में प्यार जरुरी है !
प्रिये तुम मेरा  विश्वास  बनो 
अपनी  दासी के श्याम बनो !
पथरीले फैले सूने में 
मैं होती जब अपने मन में !
दो आँखे तकती हैं ऐसे 
अम्बर भी हँसता है मुझपे !
प्रिय तुम तो अन्तर्यामी हो 
सारी जगती के स्वामी हो 
इक बार दरश गर हो जाये 
अम्बर भी धरा पर आ जाये !
मेरे अनंत सूने मन में 
अंतर के हर इक रग -रग में 
तेरी ही ज्योति  समां जाये 
तू मैं और मैं तू हो जाये 
ये साल मेरा ही हो जाये !