शनिवार, 15 जून 2013

जंगल का दर्द

जंगल का  दर्द
तरल नयन के साथ
कहा यह -कटे पेड की शाखों ने
पत्ते झरे ,कटी नसे
दिखते घाव ,छिले वदन
दर्द से भरे !
फिर भी खड़ा हूँ
मौन तपसी हूँ
संरक्षक हूँ !
पंछी बेघर हुए
छाँव भी  छीने  गए
जीव  सारे रो रहे
शोक में डूबे हैं मौन
फूल ,बेल ,पेड़ ,पौधे
कहा पेड़ ने !
मैंने अपना आप लुटाया
ईधन ,औषध ,भोजन ,छाया
सब कुछ मैंने सबको बांटा
फिर भी कुछ निर्मम हाथों ने
घाव दिए ,आघात दिए !
विम्ब भी मुझसे अलग हुआ अब
अपने हाथ तू रोक ले मानव
मत मिटा मुझे फिर सोच ले मानव
मैं  शरण्य  हूँ ,मैं जीवन  हूँ
मैं न रहा तो तू न बचेगा




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