शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - १०

स्कन्ध-१०/अध्याय-८७


राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा- भगवान्! जिसे ब्रम्ह कहते हैं,जो कार्य और कारण से परे है, मन और वाणी से परे है, निर्गुण है, तो श्रुतियां उसका गुणगान कैसे करतीं हैं? क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप नही होता।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सर्वशक्तिमान भगवान् जो गुणों की खान हैं, विचार करने पर तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है। मन, बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण- इनका कोई स्वरुप नहीं है, पर इनके द्बारा हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। एक बार यही प्रश्न देवर्षि नारद ने भगवान् नारायण से पूछा था जब वे मानव कल्याण के लिए बदरिका आश्रम में तपस्या कर रहे थे। ऋषियों की सभा में नारायण ने कहा- प्राचीन काल की बात है, ब्रम्हा के मानस पुत्र सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार ने उस ब्रम्ह की चर्चा की जिसका वर्णन श्रुतियां भी नही कर पातीं, उसी में सो जाती हैं। नारद, उस समय तुम श्वेत द्वीप गये थे मेरी अनिरुद्ध मूर्ति का दर्शन करने। उस ब्रम्ह चर्चा में सनक, सनातन और सनत्कुमार श्रोता बने, सनंदन वक्ता। सनंदन जी बोले -जिस प्रकार प्रात:काल सोते हुए सम्राट को जगाने के लिए बंदीजन उनके सुयश का गान करते हैं, उसी प्रकार श्रुतियां उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से प्रभु को जगाती हैं। श्रुतियां कहती हैं- हे अजित! आप सर्व श्रेष्ठ हैं, अजेय हैं, आप पूर्ण ऐश्वर्य शाली हैं। हम प्राणियों को फँसाने वाली माया का आप नाश कर दीजिये। प्रभु, इसे केवल आप ही मिटा सकते हैं। भगवान्, जब आप स्वरुप में होते हैं, तभी हम आपके गुणों का रंच मात्र वर्णन करने में समर्थ होते हैं। प्रभु, जब सबकुछ विलीन हो जाता है, तब भी आप होते हैं साक्षी रूप में, और आपसे ही फ़िर जगत की रचना होती है। हे अनंत, हम कहीं भी पैर रखें, ईंट पर, काठ पर... होगा तो पृथ्वी पर ही, क्योंकि वह पृथ्वी का ही रूप है। विवेकी पुरूष आपके गुणों के सागर में गोता लगा कर अपने पाप-ताप, राग-द्वेष, रोग-शोक को बहा देते हैं और अपना जीवन सफल कर लेते हैं। भगवान्, मनुष्य के पाँच कोष -अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, आनंदमय और विज्ञानमय, सब आपकी शक्ति से हैं, यही एक मात्र सत्य है। स्थूल दृष्टि से मणिपुर चक्र में अग्नि रूप से उपासना होती है। ह्रदय, जो सब नाड़ियों का केन्द्र है, इसमें सुषुम्ना नाड़ी ह्रदय से ब्रम्हरन्ध्र तक गई है। ह्रदय में जो आपके स्वरूप को धारण करता है, वह ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त करता है, सदैव ऊपर की ओर बढ़ता है।


श्रुतियां कहतीं हैं- उत्तम-अधम, छोटा-बड़ा सब में समभाव रखना चाहिए। परम तत्त्व का ज्ञान कराने के लिए प्रभु अवतार लेते हैं। उनकी मादक, मधुर लीला कथाएँ मोक्ष से बढ़ कर हैं। मानव जीवन पाकर जो आपको नहीं भजता, उसके लिए यह संसार भयावह है। आपका घोर शत्रु भी आपका नाम लेकर पार हो जाता है। जो आप से प्रेम सम्बन्ध जोड़ लेता है, वह दूसरों को भी पावन कर देता है। देवताओं के पूज्य ब्रम्हा जी आपकी माया के आधीन हैं। जो लोग देह, गह, स्त्री, पुत्र, धन, महल आदि के सुखों में रमे रहते हैं, उन्हें इस संसार में सुख नही मिलता। इसके विपरीत जो समस्त भोगों के बीच रहकर भी ह्रदय में आपको धारण करे, वह सौभाग्यवान होता है। आपको भजने वाला सबका प्रिय बन जाता है। प्रभु, आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, बल, वैराग्य अपरिमित है और देश तथा काल की सीमा से परे है। इस संसार के व्यापार में बुद्धि तो बेचारी बन कर रह जाती है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंह पुरुषोत्तम है, उन्ही सर्वसौन्दर्य-माधुर्य निधि प्रभु का मैं मन ही मन आश्रय ग्रहण करता हूँ, ऐसा श्रुतियां कहतीं हैं।


नारायण जी ने कहा- देवर्षि! तुम भी ब्रम्हा के मानस पुत्र हो। सनकादी ऋषियों ने जो बताया उसे धारण करो, यह विद्या मनुष्य की समस्त वासनाओ को भस्म कर देगी। शुकदेव जी परीक्षित से कहते हैं- नारद जी संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम और ब्रम्हचारी हैं, वे जो सुनते हैं, धारण कर लेते हैं। नारद जी कहते हैं-भगवान्! आप सच्चिदानंद स्वरुप श्री कृष्ण हैं, परम पवित्र कीर्ति वाले हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप धर्म को स्थापित करने और मनुष्य का कल्याण करने के लिए अवतार लेते हैं। शुकदेव जी कहते हैं -परीक्षित! नारद जी भगवान् को प्रणाम करके मेरे पिता श्री कृष्ण द्वैपायन के आश्रम पर गए। वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया। आसन ग्रहण कर नारद जी ने जो कुछ भगवान् के मुख से सुना वो सब मेरे पिता जी को सुना दिया और पिता के मुख से मैंने सुना और तुम्हे बता दिया कि- मन, वाणी से अगोचर, प्राकृत गुणों से रहित परब्रम्ह, परमात्मा का वर्णन श्रुतियां किस प्रकार करती हैं और उसमें मन का कैसे प्रवेश होता है। ॐ तत्सत्!!!


स्कंध-११/अध्याय-९


अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा- राजन! मानुषों को जो वस्तु प्रिय लगती है, वह उनको पाने की चेष्टा में रहता है और वही उनके दुःख का कारण बनती हैं। बुद्धिमान पुरूष इस सत्य को समझ कर मन से, शरीर से परमात्मा को याद करता है। दत्तात्रेय कहते हैं- एक कुरर पक्षी ने अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिए था, दूसरे बलवान पक्षी उसे पाने के लिए उसे चोंच मार रहे थे। पक्षी ने मांस का टुकडा फ़ेंक दिया, सब भाग गए कुरर को सुख मिल गया। अवधूत जी ने देखा- एक बालक, जिसे मान अपमान का ध्यान नही सुख-दुःख की चिंता नहीं, वह अपनी ही आत्मा में रमता है, बड़े मौज से रहता है। इस जगत में दो ही लोग मौज से रहते है, आनंद में रहते हैं- एक तो बालक दूसरे गुनातीत पुरूष। अवधूत जी ने एक कन्या से सीखा कि अकेले ही विचरण करना चाहिए। एक कन्या के घर कुछ अतिथि आए, घर के लोग बाहर गए थे इसलिए कन्या को ही उनका सत्कार करना पड़ा। वह भोजन के लिए धान कूटने लगी, उसकी कलाई की चूड़ियाँ बजने लगी। उसकी आवाज उन अतिथियों तक जाती जो मर्यादा के ख़िलाफ़ होता। उसने दो-दो चूड़ियों को छोड़ सब तोड़ दिया, पर वे भी बजने लगीं। तो उसने एक छोड़ कर एक तोड़ दी तो आवाज बंद हो गई । मैंने उससे यह सीखा कि ज्यादा लोग होते हैं तो कलह होती है, दो होते हैं तो भी बात तो होती ही है, इस लिए अकेले रहना चाहिए। बहेलिया से सीखा कि वह वाण बनाने में इतना तन्मय हो गया कि उसके पास से दल-बल के साथ राजा की सवारी निकल गई, उसे पता नहीं चला। इसी प्रकार आसन और श्वास को जीत कर मन को वश में करके लक्ष्य में लगा दो। जब यह मन परमात्मा में लग जाता है, तो विषय रूपी धूल ख़त्म हो जाती है। जैसे ईंधन के बिना अग्नि स्वत: शांत हो जाती है, उसी तरह मन शांत हो जाता है। सांप से सीखा- संन्यासी को मठ, मंडली नही बनानी चाहिए। किसी गुफा, कन्दरा में जीवन बिताना, कम बोलना, प्रमाद न करना, यह सन्यासी की जीवनशैली होनी चाहिए। मकड़ी- मैंने देखा वह बिना किसी सहायता के अपने मुख से जाल बनाती है, विचरती है उसमें, फ़िर जब चाहे निगल लेती है। भगवान् ने इसी प्रकार पूर्व कल्प में बिना किसी सहायता के अपनी माया से जगत की रचना की और जब चाहा अपने में लीन कर लिया। शून्य रूप में वे अकेले ही शेष रहे। दीमक को मैंने देखा- वह दीवार में अपने रहने की जगह को बंद कर देता है। इस प्रकार शरीर त्याग से पहले ही उसी चिंतन में बंद हो जाता है।


अवधूत जी कहते हैं- राजन!मैंने अपने शरीर से क्या सीखा, वह भी तुम्हे बताता हूँ। यह मुझे विवेक, बुद्धि, विचार और वैराग्य की शिक्षा देता है। आयु पूरी होने पर यह नष्ट हो जाता है, पर इससे चारो पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। मनुष्य शरीर दुर्लभ है, ब्रम्हा ने मनुष्य को बुद्धि से युक्त बनाया, इसकी रचना करके वे आनंदित हुए। राजन्- मेरे ह्रदय में परमज्योति जलती रहती है, मुझे जगत से वैराग्य हो गया है। ज्ञान और बुद्धि से सब कुछ पाया जा सकता है, भगवान् भी।


श्री कृष्ण ने कहा- प्रिय उद्धव! दत्तात्रेय ने मेरे पूर्वज राजा यदु को यह उपदेश दिया। यदु ने उनकी पूजा की वे प्रसन्न होकर पधार गए, राजा आसक्तियों से छुट्कारा पा गए। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-११/अध्याय-२१


भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं- प्रिय उद्धव, मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो मनुष्य क्षुद्र भोग में पड़े रहते हैं, उनके लिए यह संसार दुखों से भरा है। धर्म में निष्ठा मनुष्य का स्वाभाविक गुण है, इसमें योग्य और अयोग्य का ठीक से विचार करके धर्म का सम्पादन करना चाहिए, ताकि समाज का व्यवहार और व्यक्तिगत जीवन निर्वाह में कोई कठिनाई न हो। शास्त्र के अनुसार जीवन को चलाना चाहिए, वासना के जाल में नही उलझना चाहिए। धर्म में कपट, ढोंग नही होता। निष्पाप उद्धव! यह आचार मैंने ही मनु रूप धारण करके धर्म की जड़ता को ख़त्म करने के लिए दिया है।


उद्धव, सबका शरीर पञ्चभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश) से बना है। सभी प्राणियों की आत्मा एक है, फ़िर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम इसलिए बना दिए कि ये अपने वासना को नियंत्रित करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध कर सकें। साधुश्रेष्ठ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुण दोष का विधान इसलिए किया गया है कि कर्म की मर्यादा भंग न हो। वह देश अपवित्र है जहाँ कृष्णसार मृग न हों, जहाँ के निवासी ब्राम्हण भक्त न हों, जहाँ संत न हों। समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करने योग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म हो सके। आगन्तुक दोषों या अन्य दोषों के कारण जब कर्म न हो सके, तो समझो वह समय अशुद्ध है। पदार्थों की शुद्धि जैसे- पात्र, शरीर, स्थान, वस्त्र आदि जल से शुद्ध होते हैं। किसी वस्तु की शुद्धि में शंका होने पर ब्राम्हणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है। पुष्प सूँघने से अशुद्ध हो जाता है। तुरंत का बना भोजन शुद्ध होता है। शक्ति, अशक्ति, बुद्धि, वैभव के अनुसार भी पवित्र और अपवित्र की व्यवस्था होती है। स्नान, दान, तप, संस्कार और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है।


उद्धव जी- इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म के शुद्ध होने से धर्म, और अशुद्ध होने से अधर्म होता है। उद्धव! एक ही वस्तु किसी के लिए ठीक और किसी के लिए त्याज्य है। जैसे -ब्राम्हण दूध का व्यापार करे तो अधर्म है, श्रेष्ठ अगर गलत आचरण करे तो दोष, संन्यासी अगर स्त्री संग करे तो पाप है। बात यह है की जो नीचे सोया है वह गिरेगा कहाँ? जो पहले से पतित है उसका क्या पतन होगा।उद्धव जी! मोह किसी वस्तु से है तो उसे पास रखने की कामना होती है, बाधा पड़ने पर कलह होती है, फ़िर क्रोध आता है। अत्यधिक क्रोध में हित-अहित का बोध नही रहता, मनुष्य पशु बन जाता है। अज्ञान छा जाता है और चेतना लुप्त हो जाती है, कुछ नही बचता। विषयासक्ति आत्मोन्नति में बाधक है। जो लोग इन्द्रियों की तृप्ति के लिए भजन का ढोंग करते हैं, वे मुझे नही जान पाते। उद्धव जी! वेद शब्द ब्रम्ह है, वे मेरी मूर्ति हैं, इसलिए उनका रहस्य समझना कठिन है। वह पारा, पश्यन्ति और माध्यम के रूप में प्राण, मन और इन्द्रिय है, यह अथाह है। जैमिनी आदि बड़े मुनि भी नही समझ पाते। मैं अनंत शक्ति संपन्न, परब्रम्ह हूँ। मैंने ही वेदों का विस्तार किया है। सभी श्रुतियां कर्मकांड में मेरा ही विधान करती हैं और अंत में मुझमे ही समा जाती हैं। अधिष्ठान रूप में मैं ही शेष रहता हूँ। ॐ तत्सत्!!!


स्कन्ध-१२/अध्याय-२


इस अध्याय में कलियुग में होने वाले कर्मो का विवरण है। आज से कई हजार वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था की कलियुग कैसा होगा, और आज वही देखने को मिल रहा है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! ज्यों-ज्यों कलियुग आएगा त्यों-त्यों धीरे -धीरे धर्म, कर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरण शक्ति का लोप होता जाएगा। कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन और सदाचारी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी, वह न्याय और धर्म की व्यवस्था अपने अनुकूल कराने में सक्षम होगा। सत्य और ईमान को सिद्ध करना होगा। जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहार कुशल माना जाएगा। ब्राम्हण की पहचान उसके गुण व स्वभाव से नहीं, यज्ञोपवीत से होगी। संन्यासी गेरुआ वस्त्र, दंड और कमंडल से पहचाने जायेंगे। जो घूस नहीं देगा, उसे अदालत में न्याय नही मिल सकेगा। जो बोल-चाल में धूर्त और चालक होगा, वह पंडित और बुद्धिमान माना जाएगा। गरीब होना असाधुता होगी, पाखंडी पंडित बनेंगे, शास्त्रीय विधि विधान और संस्कार की आवश्यकता नही समझी जाएगी। दूर के तालाब को तीर्थ कहा जाएगा और पास के तीर्थ की उपेक्षा होगी। जो जितनी ढिठाई से बात करेगा, उसे उतना ही सच माना जाएगा। धर्म का सेवन लोग यश प्राप्त करने के लिए करेंगे। राजा नीच, निर्दयी और लोभी होगा, प्रजा में भय व्याप्त रहेगा। प्रकृति अपना संतुलन नही रख पाएगी। मनुष्य रोगी होगा, नाना प्रकार के कुकर्म करेगा, अपराध करेगा। संन्यासी में वैराग्य नही रहेगा, वह गृहस्थों की तरह साधन जुटाएगा और उन्हें की तरह व्यापार करेगा। धान, गेहूँ, यव के पौधे छोटे होंगे तथा उपज कम होगी। परीक्षित! कलि युग के अंत में मनुष्य का व्यवहार दुसह बन जायगा, ऐसी स्थिति में भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे।


शुकदेव जी बोले- प्रिय परीक्षित! सज्जन पुरुषों की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए भगवान् अवतार लेते हैं। सर्वशक्तिमान प्रभु कलियुग में शंभल ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राम्हण होंगे जो भगवत भक्ति से परिपूर्ण होंगे। उनके घर "कल्कि" भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़े पर सवार हो कर पूरी पृथ्वी का विचरण करेंगे और कोटि-कोटि दुष्टों को मारेंगे। प्रजा फ़िर से पवित्र आचरण करेगी और उसकी संतान बलवान और दीर्घायु होगी। उस समय सत्य युग का प्रारम्भ होगा, भगवान् वासुदेव फ़िर सबके ह्रदय में वास करेंगे। जिस समय चंद्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्र के प्रथम पल में प्रवेश करते हैं, एक राशि पर आते हैं उसी समय सत्य युग का प्रारम्भ होता है। सर्वशक्तिमान भगवान् श्री कृष्ण जब अपनी लीला का संवरण कर परम धाम पधारे, उसी समय कलियुग ने इस संसार में प्रवेश किया। इसी कारण मनुष्य की गति-मति दोनों पाप की हो गई। जब तक लक्ष्मी पति भगवान् विष्णु अपने चरण कमलों से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे, तब तक कलियुग इस पृथ्वी पर अपने रहने के स्थान की खोज में भटकता रहा, अपना पैर न जमा सका। जब सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर विचरण करते हैं, उसी समय कलि का प्रारम्भ होता है। कलियुग की आयु मनुष्य गणना के अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्ष है। प्रिय परीक्षित, जिस नरपति ने अपने बल पौरुष से पृथ्वी को जीता और राज किया अब केवल उनकी कहानियाँ ही शेष रह गई हैं । इसलिए किसी को सताना अपने नर्क का द्वार खोलना है। ॐ तत्सत्!!!

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