मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

भागवतांश - ३

स्कंध -३ /अध्याय -१२


श्री मैत्रेय जी ने विदुर जी से कहा- सुनिए, सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ, किस प्रकार ब्रम्हा जी ने इस सृष्टि को रचा। सबसे पहले उन्होंने अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ बनायी - तम्, मोह, महामोह, द्वेष और लोभ। इन वृत्तियों की रचना के पश्चात यह सृष्टि पाप से रत हो गई। ब्रम्हा जी ने भगवान् के ध्यान में पवित्र हो कर दूसरी सृष्टि रची । सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार को बनाया। ये चारों ऋषि थे, ब्रम्हा जी ने कहा पुत्रों, तुम लोग सृष्टि रचना में योगदान करो, परन्तु ये तो जन्म से ही भगवान् में रत थे। उन्होंने कहा - हम यह कार्य नहीं कर सकते। ब्रम्हा जी को क्रोध आया कि मेरे पुत्र मेरी आज्ञा नहीं मान रहे हैं। क्रोध के कारण ब्रम्हा की भौहों के बीच से एक नील लोहित बाल रूप प्रकट हुआ, ये देवताओं के पूर्वज रुद्र थे। ये जन्म लेते ही रोने लगे, रुद्र ११ थे, इनकी ११ पत्नियाँ थी बोले मुझे रहने का स्थान बता दें। तब ब्रम्हा जी ने कहा मैंने तुम्हारे रहने के स्थान बनाए हैं। ये हैं -हृदय, इन्द्रियाँ, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा और तप। ये रुद्र और इनकी ११ रुद्रानियों (पत्नियों) द्बारा बहुत सी प्रजा हुई जो आकार, स्वभाव और बल में रुद्र के समान ही थे। ये सारे संसार का भक्षण करने लगे क्योंकि ये ब्रम्हा के क्रोध से हुए थे।


ब्रम्हा जी ने कहा सुरश्रेष्ठ तुम्हारी प्रजा सब दिशाओं को भस्म कर रही है, ऐसी सृष्टि न रचो तुम। जाओ तपस्या करो ताकि सब का कल्याण कर सको और ज्योति स्वरूप श्री हरि को पा सको। रुद्र ने कहा -बहुत अच्छा! यह कह कर तपस्या करने जंगल को चले गए, इसके पश्चात ब्रम्हा जी ने फिर सृष्टि का संकल्प किया, उनके दस पुत्र हुए। जिनमें नारद जी ब्रम्हा की गोदी से, दक्ष अंगूठे से, वशिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलत्स्य ऋषि कानों से अंगीरा मुख से, अग्नि नेत्र से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए। फिर उनके दाहिने स्तन से धर्म और और पीठ से अधर्म उत्पन्न हुआ। भौहों से क्रोध, होंठ से लोभ, मुख से सरस्वती, छाया से कर्दम जी। इस प्रकार सारा विश्व ब्रम्हा जी से उत्पन्न हुआ। श्री मैत्रेय जी कहते हैं -विदुर जी! ब्रम्हा जी सरस्वती के मनोहर रूप को देख मोहित हो गए, तब उनके पुत्र और ऋषियों ने कहा - यह दुस्तर पाप है, जगत गुरु आपको यह शोभा नही देता आप श्रेष्ठ हैं, सब आपका अनुसरण करेंगे। यह सुन ब्रम्हा जी लज्जित हुए अपने शरीर को त्याग दिया जिसे सब दिशाओं ने ग्रहण कर लिए उससे कुहरा बना जो अन्धकार का प्रतीक है।


ब्रम्हा जी ने पुनः शरीर धारण किया, हरि की प्रेरणा से एक सुव्यवस्थित रचना करने का संकल्प लिया। ऐसा सोचते ही उनके मुख से चार वेद प्रकट हुए। ब्रम्हा जी शब्द स्वरूप हैं - वाणी रूप में व्यक्त और ॐ कार रूप में अव्यक्त है। उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण है, वो परब्रम्ह है। इस प्रकार इस विश्व का विस्तार हुआ पर बहुत कम, ब्रम्हा जी संतुष्ट नहीं हुए, सोचने लगे इतना प्रयास करने के बाद भी विस्तार नहीं हो रहा लगता है, विधाता ही विघ्न कर रहा है, तभी उनका शरीर दो भागों में बंट गया। "क" ब्रम्हा जी का नाम है, उन्ही से विभक्त होने के कारण शरीर को काया कहते है। ब्रम्हा जी के शरीर का एक भाग स्त्री और दूसरा भाग पुरुष का हुआ। ये ही मनु और शतरूपा बने। यहीं से मैथुनी सृष्टि का आरम्भ हुआ, मनु-शतरूपा की पाँच संतानें हुई। दो पुत्र - प्रियाव्रत और उत्तानपाद तथा तीन पुत्रियाँ आकूति, देवहुति और प्रसूति। इनका विवाह हुआ आकूति का रूचि प्रजापति से, देवहुति का कर्दम से और प्रसूति का दक्ष प्रजापति से। इन तीन कन्याओं से सारा संसार बना, ब्रम्हा जी अपनी इस रचना से संतुष्ट हो गए । ॐ तत्सत !!!


स्कंध ३/अध्याय २३


श्री मैत्रेय जी ने कहा -विदुर जी! मनु और शतरूपा ने अपनी कन्या देवहुति का विवाह कर्दम मुनि से किया। देवहुति प्रतिदिन प्रेम पूर्वक पति के अभिप्राय को समझ कर उनकी सेवा करने लगी, जैसे पार्वती जी ने शंकर की सेवा की काम, दंभ, लोभ, पाप और मद को त्याग कर बड़ी सावधानी व लगन के साथ। सेवा में विश्वास, संयम, प्रेम के साथ अपने परम तेजस्वी पति को संतुष्ट कर लिया। देवहुति बहुत दिनों तक सेवा में लगी रही, व्रत का पालन करती रही, इसलिए बहुत दुर्बल हो गई थी। कर्दम जी को दयावश खेद हुआ, बोले - मनुनंदिनी !तुमने मेरा बड़ा आदर किया है, तुम्हारी उत्तम भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ, मेरी सेवा से तुम्हारा शरीर बहुत क्षीण हो गया है। योग के द्बारा मुझे भय और शोक से रहित विभूतियाँ प्राप्त हुई हैं, उन पर अब तुम्हारा भी अधिकार है। तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गई हो, मैं तुम्हे दिव्य-दृष्टि देता हूँ। उनके द्बारा देखो की पतिव्रत धर्म के पालन से तुम्हें दिव्य भोग प्राप्त हुए हैं, तुम इन्हे भोग सकती हो । कर्दम जी के इस प्रकार कहने से देवहुति का मुख खिल उठा, वो विनय और प्रेम से भरी वाणी में बोली -स्वामिन! मैं यह जानती हूँ कि कभी न निष्फल होने वाली तिगुनात्मिका योगमाया पर अधिकार रखने वाला ऐश्वर्य आपको प्राप्त है। आपने विवाह में प्रतिज्ञा की थी की मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ सुख का उपभोग करूँगा, उसकी पूर्ति अब होनी चाहिए । श्रेष्ठ पति द्बारा संतान प्राप्त होना महान लाभ है, गृहस्थ सुख के लिए जो सामग्री चाहिए उसका, एक भवन भी होना चाहिए।


मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! कर्दम जी अपनी प्रिया की इच्छा पूरी की। योग बल से एक अद्भुत विमान की रचना की जिससे सर्वत्र जाया जा सकता था। यह विमान सभी सुख सुविधाओ से पूर्ण था, इसकी शोभा विस्मित करने वाली थी, इसमें मणिमय खम्भे, दिव्य सामग्रियाँ, सुंदर पुष्प वाले सरोवर, सोने की शैय्या, रेशमी वस्त्र, पन्ने का बना फर्श, मणियों के बने सजीव हंस व कबूतर, मूंगे की वेदियाँ, क्रीडा स्थली, शयन कक्ष, आंगन आदि को देख कर देवहुति परम प्रसन्न हुईं। कर्दम जी ने कहा- विमान पर चलो देवी! कमल लोचना देवहुति ने सरोवर में स्नान किया, महल में स्थित एक हजार कमल गंध वाली किशोरियां उनकी सेवा में लगीं, सुगन्धित उबटन से स्नान कराया, सुंदर रेशमी वस्त्र पहनाये। देवहुति का मलिन और मुरझाया हुआ शरीर कान्तिमान हो गया, अब उनको सुंदर आभूषण पहनाया। पीने को अमृत आसव दिया, देवहुति अपूर्व शोभा को पा रही थीं, मुख कमल से स्पर्धा कर रहा था। जब उन्होंने कर्दम जी का स्मरण किया तो उनको वहीँ पाया । कर्दम जी ने अपनी प्रिया को विमान पर दीर्घ काल तक मेरु पर्वत की घाटियों में विहार कराया। इस विमान में काम देव को बढ़ाने वाली सुगन्धित वायु चल कर कमनीय शोभा का विस्तार कर रही थी, सिद्धगण इनकी वंदना करते थे। दोनों ने अनुराग पूर्वक विहार किया।


मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इन्होने भगवान् के भवभय हारी पवित्र चरणों का आश्रय लिया है, इसलिए कर्दम जी के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। यहाँ कर्दम जी ने अपनी शक्ति के बल पर पत्नी की कामना को पूर्ण किया। इस अनुपम विहार के बाद ऋषि आश्रम को आए, देवहुती ने संतान की कामना की, नौ कन्या देवहुति को हुई। पूर्व में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार जब कर्दम जी तप को जाने लगे, तब देवहुति ने उनके चरण पकड़ लिए बोली - स्वामिन! आप चले जाओगे तो पुत्रियों का विवाह कैसे होगा, इनके लिए वर कौन खोजेगा, मेरे शोक को कौन हरेगा! मैं तो माया से ठगी गई। इन्द्रिय सुख व्यर्थ हो गया, फिर हरि की प्रेरणा से कर्दम जी को कपिल नाम का पुत्र हुआ, जिसके जन्म लेते ही कर्दम जी तपस्या करने वन को चले गए। कपिल मुनि महान ऋषि हुए और अपनी माता के गुरु भी, कपिलदेव जी ने अपनी माता को ज्ञान दिया, सभी बहनों का विवाह भी किया। ॐ तत्सत !!!


स्कंध -४ /अध्याय ९



इस अध्याय में बालक ध्रुव का वर्णन है जो अपनी सौतेली माँ से अपमानित हो कर भगवान को पाने जंगल में तप करने चले गए। पहले महीने जंगली कंदमूल खाकर तप किया, धीरे धीरे वो केवल जल, फिर पाँचवे महीने श्वास को जीत कर तप करने लगे। ह्रदय में हरि को स्थापित कर, एक पैर पर खड़े होकर जब "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" का जप किया तो तीनों लोक थम गए क्योंकि हरि को ह्रदय में धारण कर भक्त ध्रुव हरि से एकाकार हो गए। सब के प्राण रुक गए, देवता घबरा कर नारायण के पास आए बोले - पाहि प्रभु! श्री भगवान् ने कहा -देवताओं! ध्रुव् ने चित्त को मुझमें लीन कर दिया है, इसी कारण सब की यह दशा हुई है, मैं जाकर उसे अभी इस दुष्कर तप से मुक्त करता हूँ।


श्री मैत्रेय जी कहते है -विदुर जी! भगवान् के इस आश्वासन से देवताओं का भय जाता रहा। भगवान् गरुण पर सवार हो कर अपने भक्त को देखने के लिए मधुबन गए। उस समय ध्रुव जी जिस तेजोमय मूर्ति का ध्यान कर रहे थे, वह विलीन हो गई। ध्रुव ने घबरा कर ज्यों ही नेत्र खोला, उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देख अधीर हो पृथ्वी पर दंडवत लेट कर चरणों में नमन किया। हाथ जोड़ कर प्रभु को देखने लगे, स्तुति करना चाहते थे पर कैसे करें, यह नही जानते थे। सर्वान्तर्यामी भगवान मन की बात जान गए, उन्होंने कृपा पूर्वक अपने वेदमय शंख से ध्रुव के गालों को छुआ- स्पर्श होते ही ध्रुव को दिव्य वाणी प्राप्त हो गई। वे जीव और ब्रम्ह को जान गए, स्वरुप को पहचानते ही श्री हरि की स्तुति करने लगे। ध्रुव बोले -प्रभो! आप सर्व शक्ति संपन्न है, आपने ही मेरे प्राणों में प्रवेश करके अपने तेज से मेरी वाणी को सजीव किया है, मेरी समस्त इन्द्रियों को चेतना दी। मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ। भगवान्! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनंत गुणमयी शक्तियों से सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हैं, असत गुणों से देवताओं के रूप में स्थित हो कर अनेक रूप हो जाते हैं । जैसे तरह-तरह की लकड़ियों में प्रकट हुई आग विभिन्न रूपों में भासती है। नाथ! ब्रम्हा जी ने आपकी शरण ले कर ज्ञान के प्रभाव से इस जगत को देखा। दीनबन्धो! मुक्त पुरूष भी आपके चरण तल की शरण लेते हैं। प्रभो! इन शरीरों के द्वारा भोगा जाने वाला सुख चाहने पर तो नरक में भी मिल जाता है, पर जो आपकी उपासना, आपकी प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य के लिए करते हैं अवश्य ही उनकी बुद्धि आपकी माया द्वारा ठगी गई है। नाथ! आपके चरण कमलों का ध्यान करने से जो आनंद मिलता है, वह ब्रम्ह में भी नही मिलता। अनंत परमात्मन! मुझे आप शुद्ध ह्रदय भक्तों का संग दीजिये, उनसे मैं आपकी लीलाओं और गुणों को सुनता जाऊंगा और संसार के दुःख रूपी सागर को पार कर जाऊंगा। कमलनाभ प्रभो! जिनका चित्त आपके चरणों में लगा, वे अपने शरीर और सगे सम्बन्धियों की भी चिंता नही करते। अजन्मा परमेश्वर! मैं तो स्थूल को ही जानता हूँ। इससे परे जो आपका परम स्वरुप है उसे कहने की शक्ति मेरी वाणी में नही है। भगवन! कल्प का अंत होने पर इस विश्व को जो अपने उदर में लेकर शेषजी की शैय्या पर शयन करते हैं और उनकी नाभि से निकला कमल, जिससे ब्रम्हा जी जन्मे, वो भगवान् आप हैं। मैं आपको नमन करता हूँ प्रभो! आप अपनी चिन्मयी दृष्टी से सबके साक्षी है। हे नित्यमुक्त, सत्वमय, सर्वग्य, निर्विकार, आदि पुरूष - आप तीनो गुणों के अधीश्वर हैं, संसार के अधिष्ठाता हैं, आप जगत के कारण, अखंड, अनादि और अनंत हैं। मैं आपकी शरण मैं हूँ भगवन! निष्काम भाव से की गई पूजा का फल आपका दर्शन है। स्वामिन! जैसे गाय अपने बछड़े को हिंसक पशुओं से बचाती है, उसे दूध पिलाती है, उसी प्रकार आप भी हम जैसे जीवों की रक्षा करते हैं और कामना पूर्ण करके संसार भय से मुक्त करते हैं। ध्रुव जी ने इस प्रकार परम पावन श्री भगवान् की स्तुति की! शुभ संकल्प वाले ध्रुव की स्तुति से खुश हो कर प्रभु ने कहा- हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले राज कुमार मैं तेरे संकल्प को जानता हूँ, उसका प्राप्त होना कठिन है तो भी मैं तुम्हे देता हूँ। तेरा कल्याण हो! भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी लोक को आज तक कोई नही पा सका, वो मैं तुझे देता हूँ इस पृथ्वी पर भी तुम अपने पिता द्वारा प्राप्त सिंहासन को धर्म पूर्व छत्तीस हजार वर्ष तक चलाओगे, तुम्हारी शक्तियाँ कभी क्षीण नही होंगी । आगे चल कर तुम्हारा भाई उत्तम शिकार खेलते मारा जायगा, उस गम में तुम्हारी माँ पागल हो जायगी। उसे खोजते हुए वह जंगल के दावानल में प्रवेश कर जाएगी। ध्रुव! यज्ञ मेरी प्रतिमूर्ति है, तुम बड़ी -बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञ करोगे। मेरा स्मरण करोगे, उत्तम भोगों को भोगोगे। अंत में मेरे निज धाम को प्राप्त करोगे जो सप्त ऋषियों को भी दुर्लभ है।


श्री मैत्रेय जी कहते हैं -इतना कह कर भगवान् गरुण पर सवार हो कर निज लोक को गए । इतना पाकर भी ध्रुव प्रसन्न नही दिखे। दुर्लभ पद पाकर भी कृतार्थ नहीं हुए क्योंकि उनके ह्रदय में सौतेली माँ का वचन चुभा था। लेकिन प्रभु का दर्शन मिल जाने के कारण मन पवित्र हो गया था। भगवान् के जाने के बाद ध्रुव सोचने लगे कि प्रभु को पाने के लिए सिद्ध पुरूष कई जन्म तक तप करते हैं, उनको मैंने छ: महीनों में पा लिया, पर मैं मलिन मन रह गया, मैं कितना भाग्यहीन हूँ। नाशवान संसार में पड़ा रहा। इधर जब उत्तानपाद ने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर आ रहा है, तो सोचा "मेरा ऐसा भाग्य कहाँ" पर उन्हें नारद जी की बात याद आई, विश्वास हुआ, खुशियाँ मनाई जाने लगीं। उनकी अगवानी के लिए हाथी घोड़े सुवर्ण जटित रथ तथा मंगल बाजे बजाते हुए राजा-रानी और भाई, गुरुजनों के साथ नगर के बाहर आए। ध्रुव का मन निर्मल हो गया था, वे प्रेम से सबसे मिले और सब ने उनको आशीष दिया। ध्रुव ने महल में प्रवेश किया बड़े हर्ष के साथ। पूरा नगर सजाया गया था। पताकाएं, बंदनवार, जक भरा कलश, रंगोली, फल से। ध्रुव का राज महल मणियों और रत्न जटित खम्भों से जगमगा रहा था। तरह-तरह के पक्षी चहचहा रहे थे। उत्तान पाद अपने पुत्र के अद्भुत पराक्रम और वैभव को देख प्रसन्न थे। समय आने पर ध्रुव को राज्य दे तप करने वन को गए। ॐ तत्सत !!!

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