शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - ७

स्कन्ध-८/अध्याय-१५


परीक्षित ने शुकदेव से पूछा- भगवान् श्री हरि सब के स्वामी हैं, फ़िर उन्होंने दीन की भांति राजा बलि से तीन पग भूमि क्यों मांगी? मिल जाने पर उनको बाँधा क्यों?



शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उसकी सम्पत्ति छीन ली और प्राण भी ले लिया तो असुर गुरु शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या से उसे जीवित कर लिया। तब राजा बलि ने अपना सर्वस्व गुरु के चरणों में अर्पित कर दिया और तन, मन से ब्राम्हणों की सेवा करने लगे। भृगुवंशी ब्राम्हण प्रसन्न हुए और स्वर्ग पर अधिकार दिलाने वाला विश्वजीत यज्ञ बलि से करवाया। हविश्यों के द्वारा जब अग्निदेव को हविष्यान्न दिया, तब अग्नि में से एक दिव्य सोने की चादर से बना हुआ रथ निकला। उसमें सोने का धनुष, अक्षय तरकश, दिव्य कवच और हरे रंग के रथ के घोड़े थे। उनके दादा प्रह्लाद ने उनको कभी न कुम्हलाने वाली माला दी।


राजा बलि ने सारे दिव्य अस्त्रों को धारण किया, असुर सेना को ले कर ऐश्वर्य से भरे राजा रथ पर सवार हुए। क्रोध से प्रज्वलित उनके नेत्रों से ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश पी जायंगे। अन्तरिक्ष को कंपाते हुए बलि ने देवताओं की राजधानी अमरावती पर चढाई कर दी। अमरावती की शोभा अपूर्व थी, सोने के महल, ऊँचे परकोटे, सुगन्धित सफ़ेद धुँआ। इस नगरी का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था। अमरावती की स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्ष की सी रहती हैं, हरदम संगीत बजता रहता है। वहा की शोभा अपूर्व है, राजा बलि ने सेना सहित पूरी अमरावती को घेर लिया, भय को संचार करने वाले शंख को बजाया। इन्द्र ने देखा बलि ने युद्ध की पूरी तयारी की है, अतः वे अपने गुरु बृहस्पति के पास गए। बोले- भगवन, मेरे शत्रु बलि ने इस बार बड़ी तैयारी की है। पता नही कौन सी शक्ति से वह इतना बढ़ा है। इस समय उसके प्रलय को कोई नही रोक सकता। लगता है दसों दिशाओं को भस्म कर देगा। इसके शरीर, मन और इन्द्रियों में इतना तेज और बल कहाँ से आ गया? देव गुरु बृहस्पति जी ने कहा- इन्द्र, मैं बलि की उन्नति का कारण जानता हूँ। ब्रम्हवादी भृगुवंशियों ने इसे महान तेज और बल दिया है, अब इसे केवल सर्वशक्तिमान श्री हरि ही हरा सकते हैं। तुमलोग स्वर्ग को छोड़ कर कहीं और छिप जाओ और भाग्य के चक्र के बदलने तक प्रतीक्षा करो। जब यह उन्ही ब्राम्हणों का तिरस्कार करेगा, तभी इसका नाश होगा। राजा बलि ने अमरावती पुरी पर अपना अधिकार कर लिया। तीनो लोकों को जीत लिया, तब शिष्य प्रेमी भृगुवंशियों ने बलि से सौ अश्वमेध यज्ञ करवाए। राजा की कीर्ति-कौमुदी दसों दिशाओं में फ़ैल गई। ब्राम्हण देवता की प्राप्त कृपा से बलि बड़ी उदारता से राज्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे। ॐ तत्सत!!!

स्कन्ध-९/अध्याय-४


शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मनु पुत्र नभग के पुत्र का नाम था नाभाग। जब वे दीर्घ काल की तपस्या के बाद लौटे, तब बड़े भाइयों ने नाभाग को हिस्से में केवल पिता को दिया (संपत्ति को बड़े भाइयों ने आपस में बाँट ली)। नाभाग ने पिता से कहा- मेरे हिस्से में आप हैं, पिता ने कहा तुम इनकी बात न मानो। पिता ने कहा -अंगिरस गोत्र के ब्राम्हण बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। वे छठे दिन एक भूल कर देते हैं। पुत्र, वहाँ जाओ और उन्हें दो सूत्र बता दो। जब वे जाने लगेंगे तो यज्ञ से बचा हुआ धन तुम्हे दे देंगे। नाभाग ने ऐसा ही किया, यग्य का बचा हुआ बहुत सा धन ऋषियों ने नाभाग को दिया और स्वर्ग चले गये। जब नाभाग उस धन को लेने लगे तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरूष आया, कहा -यह धन मेरा है। नाभाग बोले- ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है। काले रंग के पुरूष ने कहा-चलो इस विषय में तुम्हारे पिता से बात करते हैं। नाभाग ने पिता से प्रश्न किया। पिता ने कहा -दक्ष यज्ञ में यह निश्चय हुआ था की यज्ञ भूमि में जो बचता है वह रुद्र देव का है, इसलिए यह धन महादेव का है। नाभाग ने उस काले पुरूष से कहा- पिता ने कहा है यह धन आपका है, भगवन मुझसे अपराध हुआ, मुझे क्षमा कर दें। तब रुद्र ने कहा- तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी सत्य कहा, मैं तुम्हे ब्रम्ह तत्व का ज्ञान और यह सारा धन देता हूँ। इतना कह कर भगवन अंतर्धान हो गए। जो मनुष्य प्रातः और सायं काल इसे पढता है वह ज्ञानी होता है। नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीश। वे भगवान् के परम भक्त थे, उदार और धर्मात्मा थे। जो शाप कभी कही नही रोका जा सका वो अम्बरीश को छू भी नही सका।


राजा परीक्षित ने कहा -भगवान्, मैं उनके चरित्र को सुनना चाहता हूँ। शुकदेव ने सुनाया- अम्बरीश पृथ्वी के सातों द्वीपों के राजा थे। अतुलनीय ऐश्वर्य के स्वामी थे, परम दुर्लभ वस्तुएं उनको प्राप्त थीं। वे भगवान श्री कृष्ण के, ब्राम्हणों और संतों के भक्त थे। वे वाणी से भगवान् का गुणगान, हाथों से उनकी सेवा, कानों से कथा का श्रवण और पैरों से उनके धाम की यात्रा किया करते थे। उनका सब कुछ भगवान् को अर्पित था। वे संतों की आज्ञानुसार शासन करते, उनकी प्रजा बहुत सुखी थी। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा में सुदर्शन चक्र को लगा दिया।


एक बार राजा ने द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का नियम लिया। व्रत की समाप्ति पर कार्तिक मास में तीन दिन का उपवास किया। यमुना जी में स्नान कर मधुवन में श्री कृष्ण की महाभिषेक विधि से पूजा की। वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला, अर्ध्य आदि से ब्राम्हणों को दान दिया। उसी समय ऋषि दुर्वासा आए। राजा ने आसन दे स्वागत किया, भोजन का आग्रह किया। दुर्वासा स्नान करने यमुना जी गए, इधर द्वादशी घड़ी भर शेष रह गई थी। राजा सोचने लगे अगर पारण न करूँ तो व्रत भंग होगा। अतिथि को बिना भोजन कराए पारण करूँ तो भी व्रत भंग होगा। उन्होंने ब्राम्हणों से विचार करके भगवान् का चरणोदक ले लिया। स्नान से निवृत्त हो कर जब दुर्वासा आए तो यह जानकर की राजा ने पारण कर लिया है, बहुत क्रोधित हुए कि मुझे खिलाये बिना ही तुमने पारण कर लिया, "इसका फल चखाता हूँ"। उन्होंने अपनी जटाओं से एक बाल उखाडा और राजा को मार डालने के लिए कृत्या पैदा की। कृत्या तलवार ले कर अम्बरीश पर टूट पड़ी। राजा तनिक भी विचलित नही हुए, सुदर्शन चक्र ने कृत्या को भस्म कर दिया। वह चक्र दुर्वासा की ओर बढ़ा, वे अपने प्राण बचाने के लिये तीनों लोक का चक्कर लगा लिए पर सुदर्शन ने पीछा नही छोड़ा। वे ब्रम्हा के पास गए, बोले- मेरी रक्षा कीजिये। ब्रम्हा जी बोले श्री हरि के द्रोही को बचाने का सामर्थ्य मुझमे नही है, तुम शंकर जी के पास जाओ। दुर्वासा कैलाश पर गए, महादेव से बोले- मैं आपकी शरण में हूँ। शिव जी ने कहा- हम जैसे हजारों उनके चक्कर काटते हैं, यह चक्र विश्वेश्वर का है, मैं कुछ नही कर सकता, तुम उन्ही की शरण में जाओ। दुर्वासा भगवन के धाम वैकुण्ठ में गये, कांपते हुए चरणों में गिर पड़े। बोले- हे अनंत, विश्व विधाता, मेरी रक्षा कीजिये। मैं आपका प्रभाव नही जानता था, मैं आपके भक्त का अपराधी हूँ। भगवान् बोले- दुर्वासा जी, मैं सर्वथा भक्त के आधीन हूँ। भक्तों ने मेरा ह्रदय अपने हाथ में रखा है। जो सब कुछ छोड़ कर केवल मेरी शरण में है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ। मेरे भक्त मेरे ह्रदय हैं और मैं भक्तों का ह्रदय हूँ। आप उसी भक्त के पास जाइए। आपका कल्याण हो। दुर्वासा लौट कर अम्बरीश के पास आए। बोले- मुझे इस चक्र से बचाओ। राजा ने चक्र की स्तुति की और वह शांत हो गया, दुर्वासा की रक्षा हुई। ॐ तत्सत!!!


स्कन्ध-९/अध्याय-१०


परम यशस्वी राजा रघु के पुत्र अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए। देवताओं की प्रार्थना से साक्षात् परब्रम्ह श्रीहरि के अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र- राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न हुए। श्री राम पिता के वचन की रक्षा के लिए राज्य छोड़, सीता और लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष के लिए वन को गए। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हेतु राम-लक्ष्मण ने मारीच ताड़का आदि कई राक्षसों को मारा, जनक पुर में सीता स्वयंवर में शिव धनुष को भंग कर सीता को प्राप्त किया। श्री लक्ष्मी जी ही सीता नाम से जनक पुर में अवतीर्ण हुईं। परशुराम, जिन्होंने २१ बार पृथ्वी को राजवंश से विहीन किया, भगवान् ने उनके गर्व को तोड़ा। वनवास काल में शूर्पणखा, जो राक्षसी थी, उसकी नाक को काटकर विरूप किया। सीता जी के रूप और गुणों को सुनकर रावण ने उनका हरण कर लिया। राम सीता की खोज में वन-वन भटके। जटायु का संस्कार किया, कबंध का संहार किया। हनुमान जी से और सुग्रीव से मिले। बलि का वध किया, सुग्रीव राजा और अंगद युवराज बने ।


शुकदेव जी बोले- परीक्षित! शिव जिनकी वंदना करते हैं, वे श्री राम मनुष्य लीला करते हुए समुद्र तट पर पहुंचे। हनुमान जी ने पता लगाया कि सीता जी लंका की अशोक वाटिका में हैं। राम ने समुद्र से विनती की- मुझे मार्ग दो। तब समुद्र शरीर धारण कर रत्नों का थाल लेकर राम की शरण में आया, बोला- दयानिधान, मैं सूख जाऊँगा तो मुझमे रहने वाले जीव मर जायेंगे। आप मेरे ऊपर पुल बना लीजिये और पार चले जाइए, आप का यश बढेगा। भगवान् ने नल-नील की सहायता से बाँध बनाया। सेना सहित लंका पर आक्रमण किया, रावण पूरे वंश सहित मारा गया। राम जी ने विभीषण को राजा बनाया।


सीता, लक्ष्मण, हनुमान और सुग्रीव के साथ श्री राम अयोध्या के लिए विमान पर सवार हुए। देवताओं ने पुष्पवर्षा की, ब्रम्हा जी ने स्तुति की। इधर भरत जी नगर से बाहर विरक्त जीवन जी रहे थे। सिंहासन पर श्री राम की पादुका थी, भरत जी पत्तों के बिस्तर पर सोते, कंदमूल खाते, वल्कल वस्त्र पहन कर चौदह साल रहे। श्री राम को जब यह मालूम हुआ तो उनका ह्रदय भर आया, वे पहले भरत से मिले। राम-भरत ने गले लग कर एक दूसरे को आंसुओं से भिगो दिया। सबने नगर में प्रवेश किया, नगर वासियों ने पुष्पवर्षा की, दीये जलाये। हर तरह से राजा राम का स्वागत हुआ, भगवान् ने गुरुजनों को प्रणाम किया। महल में आए, माताओं से मिले, सबका शोक मिट गया । राम राजा बने, सीता जी महारानी। राम के राज्य में सबको सब प्रकार से सुख था। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।

इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9737.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9016.html

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें