शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - ४

स्कन्ध -४ /अध्याय -२०


महाराजा पृथु की यज्ञ शाला में श्री विष्णु का आगमन।



श्री मैत्रेय जी कहते हैं- राजा पृथु ने निन्यानवे यज्ञ किये। विदुर जी! उस यज्ञ से श्री भगवान् विष्णु प्रसन्न हुए और अपने साथ इन्द्र देव को लेकर पृथु महाराज के पास आए। श्री भगवान् ने कहा- सुनो राजन्! इन्द्र ने तुम्हारे सौ अश्वमेध यग्य के संकल्प में विघ्न डाला है, अब ये तुमसे क्षमा याचना करने आए हैं, इन्हे क्षमा कर दो। नरदेव तो श्रेष्ठ, साधू और बुद्धिमान होते हैं, वे किसी से क्रोध नही करते, क्योंकि यह नाशवान शरीर आत्मा नहीं है, यदि तुम जैसे लोग माया से मोहित हो जाएँ तो समझना चाहिए की केवल श्रम ही हाथ लगा, पुण्य नहीं, यद्यपि ज्ञानी पुरूष इस तरफ़ नही जाते। आत्मा का स्वरुप तो शुद्ध, स्वयं प्रकाश, गुणवान, सर्वव्यापक, साक्षी व शरीर से भिन्न है। जो ऐसा जानकार है, वह प्रकृति से परिचित होते हुए उनमें लिप्त नहीं होता। वो केवल मुझसे प्रेम करता है। राजन! जो निष्काम, श्रद्धा से, नित्य मुझे भजता है, उसकी बुद्धि धीरे-धीरे निर्मल हो जाती है। वह तत्व को जान लेता है और मुझे प्रिय हो जाता है। यही परम शान्ति है, ब्रम्ह है और कैवल्य ज्ञान भी यही है। वह पुरूष मोक्ष पड़ पा लेता है। मुझमे दृढ़ अनुराग रखने वाला हर्ष, शोक के वशीभूत नही होता। इसलिए हे वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम में समान भाव रख कर सुख-दुःख को समान समझो। मन और इन्द्रियों को जीत कर राजकीय पुरुषों की सहायता से सम्पूर्ण लोक की रक्षा करो। राजा का कल्याण प्रजा के पालन में है, अगर प्रजा सुखी रहती है, तो राजा को पुण्य और अगर प्रजा दुखी रहती है तो राजा को पाप का भागी होना पड़ता है। इसलिए राजन- श्रेष्ठ ब्राम्हणों की सम्मति लेकर धर्म और न्याय पूर्वक पृथ्वी का पालन करते रहो। तुम्हे सब प्रेम करेंगे,कुछ ही दिनों में सनकादी सिद्धों के दर्शन होंगे। राजन्! तुम्हारे गुणों ने मुझे वश में कर लिया है, जो चाहो मांग लो। चाहे जितना तप, योग, यज्ञ कोई कर ले, पर अगर उसमें क्षमा और दया नहीं है, तो मुझको पाना सरल नही है। अंतःचित्त में समता लाओ मैं तुम्हारे ह्रदय में रहूँगा।


श्री मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! सर्व लोक गुरु "श्री हरि" के इतना कहने पर जगत विजयी राजा पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की। इन्द्र अपने किए पर लज्जित हुए, पृथु के चरणों पर गिरना ही चाहते था कि राजा ने उन्हें ह्रदय से लगा लिया और मनो मालिन्य निकाल दिया। महराज पृथु ने प्रभु के चरण पकड़ लिए, पूजन किया। श्री हरि जाना चाहते थे पर जा न सके, वात्सल्य भाव से पृथु को देखते रहे, पृथु नेत्रों में जल भरे, हाथ जोड़े खड़े रहे। बोले- मोक्षापति प्रभु! आप सबकुछ देते हैं पर ज्ञानी पुरूष विषयों को नही मांगता। आप मुझे हजारों कान दे दीजिये जिससे मैं आपकी गुणों की कथा सुनता रहूँ। उत्तम कीर्ति को आप से ही यश मिलता है, यश को भी आपकी तलाश रहती है। जिसने एक बार भी आपके गुणों को सुन लिया, उसका तो मंगल ही मंगल है। लक्ष्मी जी इसी कारण आपको नही छोड़तीं। जगदीश्वर, हो सकता है लक्ष्मी जी मेरे विरुद्ध हों क्योंकि जिस सेवा में उनका अनुराग है, मैं उसे मांग रहा हूँ । प्रभु! आप मुझ पर दया करें, आप तो दीनानाथ हैं। प्रभु, आप तो अपने स्वरूप में ही रमते हैं, आपने कहा- वर मांग! प्रभु, आपकी यह वाणी ही मोह में बाँध देती है, आप मेरा कल्याण करें तथा जो मेरे हित में हो, वर दें।


श्री मैत्रेय जी कहते है -पृथु की स्तुति सुन कर सर्व साक्षी श्री हरि ने कहा- राजन! मेरी भक्ति करके तुम सहज ही उस माया से छूट जाओगे जो बड़ा कठिन है, तुम्हारा सर्व मंगल होगा। इस प्रकार भगवन ने पृथु के वचनों को आदर दिया। पृथु ने प्रभु की पूजा की। श्री हरि निज लोक को गए, पृथु ने वहां आए सभी देवता, ऋषि, पित्र, गन्धर्व, चारण, नाग, किन्नर, अप्सरा, मनुष्य, पक्षी व अनेक प्राणियों की पूजा की, प्रणाम किया। भगवान् सब का चित्त चुराते हुए अपने धाम को गए। ॐ तत्सत!!!


स्कंध -४/अध्याय -२२


श्री मैत्रेय जी कहते हैं- पृथु के राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। उनके राज्य में सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आए। उन्हें देखते ही राजा पहचान गए कि ये सम्पूर्ण लोकों को पापनिर्मुक्त करते हुए आकाश से उतर कर आए हैं। राजा ने विधिवत उनकी पूजा की, चरणोदक सर पर लिया। ये सनकादी मुनीश्वर शंकर के अग्रज थे, वे सोने के सिंहासन पर ऐसे शोभित हुए जैसे अपने स्थानों पर अग्नि देवता। पृथु जी ने कहा- हे मंगलमूर्ति! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं, मेरा क्या पुण्य बना कि स्वतः आपके दर्शन हुए। अवश्य मुझ पर ब्राम्हण, शंकर और श्री विष्णु प्रसन्न हैं, जिनके घरों में आप जैसे पूज्य मुनि जल, तृण, पृथ्वी अथवा घर के किसी प्राणी की सेवा स्वीकार कर लें, वे धन्य हो जाते हैं, आपके चरण जहाँ पड़े, वहां सब प्रकार की सिद्धियाँ आती हैं। मुनीश्वरों आपका स्वागत है। आपलोग बाल्यावस्था से ही महान धर्म का पालन कर रहे हैं। नारायण अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए ही आप जैसे पुरुषों को पृथ्वी पर भेजते हैं।


राजा के वचन सुन कर श्री सनतकुमार जी बड़े प्रसन्न हुए । सनतकुमार जी बोले- महाराज! आपने सब के कल्याण के लिए बड़ी अच्छी बात पूछी, साधू बुद्धि ऐसी ही होती है। राजन - श्री मधुसूदन के चरणों में आपकी अविचल प्रीति है, इसका प्राप्त होना बड़ा कठिन है। श्री कृष्ण के चरणों में निश्चय प्रेम, गुरु और शास्त्र में विश्वास रखना पुनीत आचरण है, और कल्याण का साधन भी। निष्काम भाव से यम् नियमों का पालन, निंदा से दूर, सेवा भाव से कर्म करना, प्रपंच से दूर रहना, ह्रदय में श्री हरि को बसाना वैराग्य की प्रथम प्राथमिकता है। (आज ऐसा समय नहीं है कि घर छोड़ कर जीवन जिया जा सके, पर हम घर में रह कर भी सुख-दुःख में सम रहना, सब का भला करना, अंहकार से दूर रहना, द्वेष न रखना, मन को निर्मल रखना तथा विवेक से विचार कर कोई निर्णय लेना -यह सब कर सकते हैं, यह भी वैराग्य है।) सनकादी मुनियों ने कहा- जो हरदम इन्द्रियों के चिंतन में रहता है, वो जड़ हो जाता है, उसका कोई पुरुषार्थ सिद्ध नही होता। वह स्थावर योनियों में जन्म लेता है, और कभी मोक्ष को नहीं पाता। राजा पृथु ने कहा -भगवान् दीनदयाल श्री हरि ने मुझपर कृपा की जो आपलोग यहाँ पधारे हैं। आपने आत्मतत्व का ज्ञान दिया, मैं आपको क्या दूँ? मेरे पास जो कुछ है, सब महापुरुषों का प्रसाद है। यह राज्य, स्त्री, पुत्र,धन, महल, सेना सब आपके श्री चरणों में अर्पित है। शासन का अधिकार केवल ब्राम्हणों को है, ब्राम्हण अपना खाता है, पहनता है और दान देता है। यह पूरी पृथ्वी ब्राम्हणों की है, आपने मुझे बताया कि अभेद भक्ति ही भगवान् को पाने का प्रधान साधन है।


राजा पृथु ने श्रेष्ठ आत्मज्ञानियों का पूजन किया, सनकादी मुनियों ने राजा के शील की प्रशंसा की और आकाश मार्ग से चले गए। पृथु ने अपने को उपकृत माना, सब प्रकार की लक्ष्मी से परिपूर्ण राजा विषयों में नही पड़े। उदार, सौम्य, मुक्त भाव से प्रजा की सेवा करते थे। उनके पाँच पुत्र उनके अनुरूप थे। उनकी प्रजा उनका यशोगान करती, उनकी तुलना इन्द्र से की जाती, उनकी शक्ति वायु के समान, धैर्य सुमेरु के समान, समृद्धि कुबेर के समान, तेज शंकर के समान, विचार बृहस्पति के समान, और कीर्ति श्री राम के समान थी। वे सब के ह्रदय में बसते थे। ॐ तत्सत् !!!




स्कंध-५ / अध्याय -१


प्रियव्रत का चरित्र राजा परीक्षित ने शुकदेव जी से पूछा- मुने! प्रियव्रत, जिनको गृहस्थ आश्रम में रहते हुए सिद्धि प्राप्त हो गई और श्री कृष्ण के चरणों में उनकी अविचल भक्ति; यह कैसे हुआ ? शुकदेव जी ने कहा- राजन! प्रियव्रत ने नारद ऋषि की चरण सेवा की थी, इसलिए सहज ही उनको परमात्मा का बोध हो गया। वे हरि कथा के मार्ग का अनुसरण करने लगे और अखंड समाधि द्बारा समस्त इन्द्रियों को वासुदेव के चरणों में अर्पित कर दिया। भगवान् ब्रम्हा जी ने जब प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी तो चारों वेदों के साथ मूर्तिमान हो कर प्रियव्रत के घर आए। वहां नारद जी भी आए। नारद जी ने अपने पिता ब्रम्हा का पूजन किया। श्री ब्रम्हा जी ने कहा- प्रियव्रत! मैं तुमसे सत्य सिद्धांत की बात कहता हूँ, सुनो! श्री हरि के दिए हुए देह को सब जीव अपने कर्मों का भोग करने के लिए धारण करते है, उनका विधान शिव, मनु, नारद और मैं भी नही बदल सकता। हम सब उनकी इच्छा अनुसार कर्म में लगे रहते हैं, हमारे कर्मों के अनुसार हमें योनिया मिलती हैं, और हम उसी अनुसार कर्म करते हैं, सुख -दुख भोगते हैं। मुक्त पुरूष भी प्रारब्ध का भोग करता है, पर जो इन्द्रियों के आधीन है उसमे भय बना रहता है। ज्ञानी कष्ट को सहज सहन कर लेता है। वह कष्ट आने पर घुटने नही टेकता, सहर्ष आगे बढ़ता जाता है। इसी तरह गृहस्थ भी ईश्वर को पा लेता है। प्रियव्रत तुम चरणकमल रूपी किले में रहो, सबको जीत लोगे। भोगों को भोगते हुए बाद में आत्म स्वरूप में स्थित हो जाओगे। ब्रम्हा जी की बातों को सुन कर प्रियव्रत ने विनम्रता से कहा 'जो आज्ञा'।


अब पृथ्वीपति प्रियव्रत महराज ने भगवान की इच्छा से सुशासन किया। शुद्ध ह्रदय प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री से विवाह किया, महाराज की दूसरी पत्नी से तीन पुत्र हुए- उत्तम, तामस और रैवत जो अपने नाम वाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए। एक बार प्रियव्रत ने देखा कि सूर्य देव जब सुमेरु की परिक्रमा करते हैं, तो पृथ्वी के एक भाग में अँधेरा रहता है। उन्होंने संकल्प लिया कि वे इस अन्धकार को दूर करेंगे। वे अपना ज्योतिर्मय रथ ले कर द्वितीय सूर्य की भांति सूर्य के पीछे -पीछे चले, उनके रथ के पहियों के निशान से सात समुद्र बन गए और उससे सात द्वीप बन गए । प्रियव्रत ने सूर्य की सात परिक्रमा की, भगवान् के भक्तों में ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्य की बात नही। शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को बताया- महा पराक्रमी राजा प्रियव्रत ने अंत में राज्य को अपने सुयोग्य पुत्रों को सौप कर स्वयं नारद के बताये मार्ग का अनुसरण किया। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।



इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_4751.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_7560.html

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें