शनिवार, 26 दिसंबर 2009

भागवतांश - ५

स्कन्ध -५/अध्याय -१०



यह कथा श्री शुक देव जी सुना रहे हैं। राजा परीक्षित को श्री शुकदेव जी बोले- राजन! एक बार सिन्धुसौबीर देश के राजा "रहूगन" पालकी पर चढ़ कर जा रहे थे। जब वे इक्षुमती नदी के किनारे पहुंचे तो उनकी पालकी को उठाने के लिए एक और कहार की जरुरत पडी, देववश उन्हें एक ब्राम्हण मिल गए जो स्वयं में आत्म लीना थे और जवान थे। कहारों ने सोचा, ये बोझा ले कर चलने के लिए ठीक है और बलात पालकी में लगा दिया। वे चुप -चाप पालकी ले कर कहारों के साथ चलने लगे। ये थे महात्मा भरत जो हरि की भक्ति में डूबे रहते। इनको अपने देह का भान नही था। कोई जीव पैरों तले दब न जाए, इसलिए वे बच कर जमीन को देखते हुए चल रहे थे, इस कारण पालकी उंची नीची हो रही थी और राजा को तकलीफ हो रही थी। राजा ने ठीक से चलने को कहा तो कहारों ने कहा- ये जो नया आया है, वो ठीक नही चल रहा। राजा ने चाल मिला कर चलने को कहा, पर भरत वैसे ही चलते रहे। राजा ने फ़िर कहा मैं तुम्हे दंड दूँगा, तुमने राजाज्ञा का उलंघन किया है। तब भरत ने कहा- राजन आपने जो कहा इस शरीर को कहा। मुझे आप दंड दें, दंड इस शरीर को मिलेगा, और ऐसी बात एक देहाभिमानी ही कह सकता है, ज्ञानी नहीं। मुझे इसका कोई लेश नही। तुम्हे अभिमान है की तुम राजा हो- बताओ क्या सेवा करूँ, मैं तो जड़ के समान आत्म लीन रहता हूँ। ऐसा कह कर भरत जी चुप हो गए और पालकी ले कर चलने लगे। रहूगन की श्रद्धा जगी, ह्रदय को भेदने वाली भरत की बात सुन कर पालकी से उतर गए, चरणों में गिर गए बोले -देव, आप कौन हैं, आपने यज्ञोपवीत धारण किया है, किसके पुत्र हैं? यहाँ कैसे विचरण कर रहे हैं? कहीं आप कपिल देव तो नही? मैं यमराज से भी नही डरता पर ब्राम्हण देव से बहुत डरता हूँ। आप अपनी शक्ति को छुपा कर क्यों चल रहे हैं? मैं आत्मज्ञानी मुनि कपिल से यह पूछने जा रहा था की इस लोक में शरण लेने योग्य कौन है? राजा ने कहा -मैं घर में आसक्त रहने वाला योगेश्वरों की गति कसे जान सकता हूँ। मुनिवर आपने जो कहा -इस शरीर को कुछ भी हो मुझे लेश नही, तो मैंने अनुभव किया है- युद्ध में श्रम होने पर देह ,इन्द्रिय ,प्राण और मन सब पर असर होता है आत्मा को भी सुख-दुःख का अनुभव होता है। दीनबन्धो! अभिमान से उन्मत्त होकर मैंने आप जैसे परम साधू की अवज्ञा की, मुझ पर कृपा कीजिये! आप देहाभिमान शून्य और श्री हरि के अनन्य भक्त हैं, समदृष्टि वाले हैं। आपके क्रोध से मुझे भगवान् शंकर भी नही बचा सकते, मुझे क्षमा कर दीजिये। ॐ तत्सत!!!


स्कंध-५ /अध्याय-२०


हमारे भागवत में है- प्रियव्रत ने जब सात चक्कर पृथ्वी के लगाये तो उससे सात समुद्र और सात द्वीप बन गए। पहला है जम्बू द्वीप- जम्बू द्वीप अपने ही समान विस्तार और परिमाण वाले खारे जल से परिवेष्ठित है। जम्बू द्वीप में सात पर्वत और सात प्रसिद्ध नदियाँ हैं। इसके बाद कुश द्वीप है जो घृत के समुद्र से घिरा है। इसमें भगवान् का रचा हुआ कुशों का झाड़ है, इसीलिए इसका नाम कुश द्वीप हुआ। इसके आगे क्रोंच द्वीप है। यह अपने ही समान विस्तार वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है। इसे क्षीर समुद्र कहते है। पूर्व काल में स्वामी कार्तिकेय जी ने यहाँ देवों से युद्ध किया था। इसके बाद शाक द्वीप है जो अपने ही समान विस्तार वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा है। इसमे शाक नामक वृक्ष है, इस वृक्ष की सुगंध से द्वीप महकता रहता है। इसके आगे पुष्कर द्वीप है जो अपने ही सामान परिमाण वाले मीठे जल के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमे स्वर्ण पंखुडियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है। यहाँ ब्रम्हा जी का आसन है। यहाँ के निवासी इस स्थान पर ब्रम्हा जी की पूजा करते है।


इस समस्त द्वीपों पर प्रियव्रत के पुत्रों ने शासन किया। राजा प्रियव्रत के १३ पुत्र थे जिन्होंने पूरे विश्व में शासन किया। इसके आगे लोकालोक नामक पर्वत है, स्वर्णमयी भूमि है जो दर्पण के समान स्वच्छ है (आज का बर्फीला प्रदेश)। इसमे गिरी कोई वस्तु फ़िर नही मिलती, यहाँ देवताओं का निवास है। यही है सम्पूर्ण लोको का विस्तार। इसकी भूमि पचास करोड़ योजन है, जिसमे १२ करोड़ योजन विस्तार वाला लोकालोक पर्वत है।


शुकदेव जी परीक्षित जी से कहते हैं- राजन! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रम्हांड का केन्द्र है, वही सूर्य की स्थिति है। सूर्य ही इस भू भाग को चेतन करते हैं। ये हिरण्यमय ब्रम्हांड से प्रकट हुए हैं, इसलिए इन्हें हिरण्य गर्भ भी कहते हैं। सूर्य के द्बारा ही दिशा, आकाश, अन्तरिक्ष, भूलोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, रसातल तथा अन्य भागों का विभाग होता है। सूर्य ही समस्त जीवों की आत्मा और इन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं। ॐ तत्सत!!!


स्कन्ध -६/अध्याय -९
 श्री शुक देव जी कहते हैं- परीक्षित! आचार्य विश्वरूप के तीन मुख थे। हमने सुना है- एक मुख से वे सोम, दूसरे से सुरा और तीसरे से अन्न खाते थे। शतक्रतु इन्द्र ने उनसे वैष्णवी विद्या प्राप्त की थी और असुरों को जीत लिया था। वे ऊँचे स्वर में बोल कर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति दिया करते थे। वे छिप कर असुरों को भी आहुति देते थे। उनकी माता असुर कुल की थीं, इसलिए स्नेह वश वे असुरों को भी आहुति पहुँचाया करते थे। देवराज इन्द्र ने देखा कि यह तो धर्म की आड़ में कपट है और देवताओं का अपराध है। इन्द्र डर गए और क्रोध में भर कर उनके तीनों सिर काट लिए। विश्वरूप का अन्न खाने वाला मुख तीतर, सोम पीने वाला सिर पपीहा और सुरा पान करने वाला सिर गौरैया हो गया। इन्द्र चाहते तो आचार्य के वध से लगा पाप दूर कर सकते थे, पर उन्होंने इसे स्वीकार किया और छूटने का कोई उपाय नही किया। कुछ समय बाद सब के सामने अपनी ब्रम्ह हत्या को चार हिस्सों में बाँट कर शुद्धि के लिए पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री को दे दिया। बदले में पृथ्वी ने यह वरदान लिया कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह अपनेआप भर जायगा; वृक्षों ने माँगा- जो हिस्सा कट जाए, वो फ़िर जम जाए; स्त्रियों ने पुरूष संग माँगा; जल ने माँगा कि खर्चने पर भी बढ़ता रहूँ, इन्द्र ने स्वीकार किया। विश्वरूप की मृत्यु के बाद उसके पिता त्वष्टा ने इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिए एक मंत्र का जाप कर हवन प्रारम्भ किया- "हे इन्द्र शत्रु! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो"। हवन समाप्त होने पर दक्षिणाग्नि से एक बड़ा भयानक दैत्य प्रकट हुआ। वह रोज एक बाण के बराबर शरीर के चारों और से बढ़ता। वह पहाड़ के आकर का, काले रंग का, उसके बाल तपे हुए तांबे के रंग के और नेत्र लाल दहकते हुए, उसके वेग से पृथ्वी काँप जाती। जब वह मुख खोलता तो कन्दरा की तरह दिखाई देता। लोग डर जाते, उसके भयानक रूप को देखकर लोग भागने लगते।


शुकदेव जी बोले- परीक्षित! त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। उसका नाम पड़ा वृत्तासुर। सारे देवता एक साथ युद्ध में उससे हार गए, तब वे सब नारायण की शरण में आए। देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी- ये पांचो भूत और इनसे बंधे हुए तीनो लोक, उनके अधिपति ब्रम्हादि तथा हम सब देवता जिस काल से डर कर उसे पूजा सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है। इसलिए अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं। प्रभो! यह सब देखकर आप विस्मित नही होते। आप सरता पूर्णकाम, सम एवं शांत हैं। जो आपको छोड़ कर किसी और की शरण लेता है, वह मूर्ख है। पिछले कल्प में वैवस्त मनु, जिनके विशाल सींग में नौका को बाँध कर प्रलय के संकट से बच गए थे, वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को वृत्तासुर के भय से हमें अवश्य बचायेंगे। पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरंगों की गर्जना के कारण ब्रम्हा जी भगवान् के नाभि कमल से प्रलय कालीन जल में गिर गए थे, असहाय थे। जिसकी कृपा से वे उस विपत्ति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकट से पार करें। उन्होंने अपनी माया से हमारी रचना की। वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीडित हो रहे हैं, तब वे माया का आश्रय ले कर अवतार लेते हैं और हमारी रक्षा करते हैं। वे प्रकृति और पुरूष रूप से विश्व की रचना करते हैं। हम सब उन्ही शरणागत वत्सल भगवान् श्री हरि की शरण ग्रहण करते हैं। वे अपने निज जन, हम देवताओं का कल्याण करेंगे।


श्री शुकदेव जी कहते हैं- महराज! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने प्रकट हुए। भगवन के नेत्र शरतकालीन कमल के समान खिले हुए थे, उनके १६ पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे। वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे, केवल उनके वक्षस्थल पर श्री वत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नही थी। भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनंद से विह्वल हो गए, धरती पर लोट कर साष्टांग दंडवत किया और फ़िर धीरे -धीरे उठ कर वे भगवान् की स्तुति करने लगे। देवताओं ने कहा -भगवन! यज्ञ में शक्ति तथा फल की सीमा निश्चित करने वाले काल आप हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों को आप छिन्न-भिन्न कर डालते हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं। विधाता! सत्व, रज और तम- इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियां प्राप्त होती हैं, उसके नियामक आप हैं। भगवान्! नारायण! वासुदेव! आप जगत के कारण हैं, जगत आपका रचा हुआ है, आप ही पुरुषोत्तम हैं, आपकी महिमा असीम है! आप परम मंगलमय, कल्याण स्वरुप और दयालु हैं, देवी लक्ष्मी के आप पति हैं। परमहंस जब आत्मलीन हो आपका चिंतन करते हैं, तो अज्ञान- चला जाता है। आप उनके ह्रदय में परमानन्द रूप में प्रकट हो जाते हैं। हम आपको बार -बार नमस्कार करते हैं। भगवन, आपको जानना असंभव है। आपकी महिमा का गान तो वेद भी नही कर पाया। माया का सहारा ले कर आप अपने को छिपा लेते हैं, उस समय आपमें सबकुछ हो सकता है। आप कर्ता और भोक्ता दोनों हो जाते हैं, पर आपका शुद्ध रूप अनिर्वचनीय है। भ्रान्ति बुद्धि से आप कर्ता और भोक्ता दोनों दिखते है, पर ज्ञानी को आप सच्चिदानन्द दिखते हैं। आप सबकी अंतरात्मा हैं मधुसूदन। आपकी अमृतमयी महिमा, रस का अनंत समुद्र है। जो इसकी एक बूंद पा जाता है उसमे आनंद की धारा बहने लगती है। आपको नमस्कार है!


स्तुति सुन कर भगवान् प्रसन्न हुए। बोले- श्रेष्ठ देवताओं, तुम्हारी उपासना से मैं प्रसन्न हूँ। मेरे प्रसन्न होने पर कोई वस्तु दुर्लभ नही रह जाती। तुम्हारा कल्याण हो। तुम ऋषि शिरोमणि दधीचि के पास जाओ। उनसे उनका शरीर- जो उपासना के कारण वज्र हो गया है, मांग लो। दधीचि ऋषि को शुद्ध ब्रम्ह ज्ञान है। उन्होंने अश्वनी कुमारों को घोड़े के सिर से उपदेश दिया था, इसलिए उनका नाम अश्वसिर भी है। अथर्व वेदी दधीचि ने पहले पहल "नारायण कवच" का त्वष्टा को उपदेश किया था, त्वष्टा ने विश्वरूप को दिया और उनसे तुम्हे मिला। दधीचि ऋषि धर्म के मर्मज्ञ हैं, वे तुम लोगों को अपने शरीर के अंग जरुर देंगे। तुम विश्वकर्मा से उनका श्रेष्ठ आयुध बनवा लेना। देवराज- उस शस्त्र के द्वारा तुम वृत्तासुर का सिर काट लोगे। उसके मर जाने के बाद तुम तेज, बल, अस्त्र, शस्त्र और संपत्ति से भरपूर हो जाओगे। तुम मेरे शरणागत हो, तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा। ॐ तत्सत!!!

इस ब्लॉग पर आपके विचार/टिप्पणी जानकार मुझे प्रसन्नता होगी।


इस क्रम का अगला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_9016.html

इस क्रम का पिछला ब्लॉग- http://spiritual-values.blogspot.com/2009/12/blog-post_25.html

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें