बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

परित्राण

                                

छोटी सी है !
पर मेरी एक कहानी है !
खुद के होने को भूल गयी !
जख्मों का मान बढ़ाती गयी !
हर शाम रौशनी दीपक की ,
लगती है अधरों में लटकी !
हर रोज सुबह का सूरज ,
एक दर्द का पाठ  पढाता है !
खुशियों को बचा के रखा था !
दुनिया से छुपा के रखा था !
पर यह तो ठहरी चंचला ,
बोली तू रुक अब मैं चला !
हर रोज धैर्य ,साह्स ,आशा ,
इन सब को संजो कर रखती हूँ !
हर रोज सरकती सांसे ,
सहमी ,चौकन्नी ,दर्द भरी !
मैं खुद के सपनो से हारी !
नकली नाते ,खाली बातें !
पाथर पुतुल ,मनहीन लोग !
कब होगी मेरी सुबह सहज ?
कब खुशियां आएँगी आँगन ?
कब मंजिल मुझको चाहेगी ?
कब आशा मुझसे बोलेगी ?
उठ !  होगा तेरा परित्राण !!





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