मन की उधेड़ बुन
चिंतन की अवस्था एक दर्शन है
जगत की आंधीयों से बचाव होती है छत से
मन की आंधीयों को बचाव चिंतन से होता है
जीवन जब जगत का सार समझता है
तब तक जीवन आगे जा चुका होता है
शरीर की मशीने थकने लगती हैं
तन मन की ताकत घटती जाती है
कितना अच्छा होता अगर उम्र की तरह ही
सत को समझने की एक सीमा निर्धारित होती
एक निश्चित काल होता
हे भं ते बताओ ! दिगंत तक फैले इस मन की
उलझनों का छोर कहाँ बांधू ?
इसी खोज मे साँझ आ जाती है
सात वचन ,सात द्वार
सात जनम ,सात कदम
सात दिन ,सात अंजली इतने सारे सात !
ये सात जीवन मे कई रंगों मे
कई तरीकों से बारी बारी आता है
ये कहाँ भेज दिया ?
कमाल नयन ! द्वार खुलते ही
दो बनैली आंखे चुभती हैं मेरे मर्म स्थल पर
उम्र बीतती रही द्वार को खोलते
अब तक ना भेद सकी
अंतिम द्वार भेदन से पहले माँ सो गई
अब ????/
शकुन्तला मिश्रा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें