खिली कमलिनी ,शरद चांदनी ,
अनकिये क्षणों को, तुम भी जी लो !
सोचा था नहीं देखेंगे ,पीछे पलट के ;
पर नकारों के सहारे कब चला जीवन !
साधना रूकती नहीं ,आलोक भी छिपता नहीं ;
झर गई शाख ही ,पर माँग है रूकती नहीं !
सजाओ भारत माँ को
रिद्घ करो नदी और वन को ,
साफ़ रखो हवा ,पानी को ,
तब सिद्ध करो मृत्युंजय को !
सोचा था नहीं देखेंगे ,पीछे पलट के ;
पर नकारों के सहारे कब चला जीवन !
साधना रूकती नहीं ,आलोक भी छिपता नहीं ;
झर गई शाख ही ,पर माँग है रूकती नहीं !
सजाओ भारत माँ को
रिद्घ करो नदी और वन को ,
साफ़ रखो हवा ,पानी को ,
तब सिद्ध करो मृत्युंजय को !
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