रविवार, 15 अप्रैल 2012

आँगन की गौरैया

आज मैंने बाहर अपना बगीचा धुला, वहां दाना पानी रखा।
तभी एक गौरैया आई, पूरे आँगन में फुदक-फुदक कर गाने लगी।
एक दम निडर!

मैंने कुछ दाने उसकी ओर फेंके,
उसने एक चोंच लगा कर छोड़ दिया।
वह पौधों के बीच खुश होकर चहकने लगी,
 मैं उसे देखती रही,  मन मैं सवाल भी थे..
बहुत दिनों  के बाद आज तुम आई हो,
किस आलोक से प्राण लेकर आई हो।
है कौन तुम्हारा सहचर?
फिरती हो अनंत में मरण को भूल कर।
खुली हवा बागों फूलों पर,
सुबह, शाम, घर, आँगन, बाहर,
मनुष्य की भृकुटी से निडर।

मुक्ताकाश, उन्नत उड़ान, अपने पर लहरा कर,
तू मरने को है राजी पर बंधन नहीं जरा भी,
हरदम ताज़ी लय पर गाती तिंयु-तिंयु के सुर भी,
वही रास्ता, वही मकां है, वही शहर भी।

सुन तू!
कुछ पल ठहर हमारे घर भी।
मेरे फूलों को उनकी जिन्दगी नसीब हो,
इन्हीं के बीच में छोटा सा तेरा घर भी हो,
तू भी आज़ाद रहे, मैं भी खुशहाल रहूँ।
तू अपने घर में खुश रहे, मैं अपने घर में खुश रहूँ !

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