शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

श्रीमद् भगवत गीता

ईश्वर की वाणीमय मूर्ति है भगवत गीता!  इसका अध्ययन हमारी मृत्यु को सँवारता है।


श्रीगीता कृष्ण की वांग्मय मूर्ति है! भगवान् वाणी के रूप में गीता के श्लोकों में बसते हैं। भगवान् ने महाभारत युद्ध से पहले, जब अर्जुन को मोह व्याप्त हो गया था, तब गीता का उपदेश दिया था। यह उपदेश कुरुक्षेत्र के मैदान में दिया था भगवान् ने। भागवत में कहा गया है- श्री कृष्ण ने जब गीता उपदेश दिया, तो इसे अर्जुन के सिवा और कोई नही सुन सका। दोनों ओर की सेनाएं सम्मोहित सी खड़ी रहीं। अर्जुन ने गीता का उपदेश प्रभु से सुना और तमाम तरह की शंकाओं का समाधान भगवान से पाया। अर्जुन ने भगवान् का विराट रूप भी देखा। अर्जुन डर गए, बोले- हे वासुदेव, मैं आपको पहचान नहीं पाया, मुझे क्षमा कर दीजिये। मैंने आपको अपना सखा कहा और आपको साधारण मनुष्य समझता रहा।

श्री कृष्ण ने कहा जब युद्ध भूमि में आ गये हैं तो शत्रु को पराजित करना महत्वपूर्ण है। अर्जुन का मोह भंग हुआ और ''देवदत्त'',  जो उनके शंख का नाम था, उससे चुनौती भरा निनाद किया।

पांडवो ने वर्षों दुर्योधन का अत्याचार सहा। शान्ति के लिए बहुत प्रयास भी किया। १३ वर्ष तक वनवास किया ताकि युद्ध न हो। त्याग की अन्तिम सीमा तक गए पर युद्ध न टला। पांडवो ने अपनी रक्षा, न्याय और धर्म की रक्षा के लिए युद्ध किया। दुर्योधन के अत्याचारों के प्रतिवाद में यह धर्मयुद्ध हुआ।

कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडव की सेनायें आमने सामने खड़ी हैं। श्री कृष्ण अर्जुन के सारथी हैं। अर्जुन ने कहा- केशव! रथ को एक बार दोनों सेनाओं के मध्य ले चलिए। श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए रथ को आगे बढ़ा दिया।

अर्जुन ने देखा- पितामह, आचार्य द्रोण और अन्य बंधु-बांधव युद्ध के मैदान में हैं। अर्जुन का मन शिथिल हो गया। कैसे करूँगा मैं इनसे युद्ध। मैं इनका वध नहीं कर सकता। नहीं चाहिए मुझे रक्त में डूबा हुआ राज्य। इससे अच्छा है वन में रहना, भिक्षा पर जीवन निर्वाह कर लेना। मैं युद्घ नही करूँगा।

भगवान् बोले- अर्जुन तुम क्या समझते थे की ये युद्ध नहीं करेंगे? और इस युद्ध में दोनों ओर के लोग मरेंगे। जो मरेंगे इस युद्ध में उनको तुम नही मार रहे हो, यह भावी है। तुम नहीं मारोगे तब भी ये मरेंगे ।

अर्जुन अपने तपोबल से समाधि की अवस्था तक पहुँच गए थे, इसके बावजूद मोह मुक्त नहीं  हो पाए। युद्ध क्षेत्र में आते ही उनका मन संसार के मोह में बाँध गया। अर्जुन अपने पितामह, गुरु, भाई और पुत्र मोह में बंध गए।

दूसरी और दुर्योधन- वह केवल युद्ध चाहता था। उसे पूरा भरोसा था कि वह युद्ध में जीत हासिल कर लेगा। वह अहंकार में चूर कर्ण, पितामह और द्रोण जैसे श्रेष्ठ योद्धाओं के रहते अपनी जीत निश्चित माने था। उसे सबसे प्रिय था हस्तिनापुर का राज वैभव। उस राज्य के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था, किसी को भी मरवा सकता था। उसे अपने सम्बन्धियों का मोह नहीं था।

अर्जुन ने युद्ध के भयावह परिणाम की कल्पना करके युद्ध को न करने का निर्णय लिया।

केशव मैं युद्ध नही करूँगा। अपने गुरुओं को मारने का पाप मैं नहीं करूँगा। मैं यह महाविनाश नहीं कर सकता। श्री कृष्ण ने कहा- अर्जुन क्या तुम बाण नही चलाओगे तो यह महाविनाश रुक जायगा? क्या तब लोग नहीं मरेंगे? क्या दुर्योधन युद्ध नहीं करेगा?

हे अर्जुन ! आततायी अपने पाप से मरता है। किसी के मारने से नहीं। देहधारी की मृत्यु उसके शरीर में ही रहती है। जो मरता है, वह शरीर है। आत्मा का संघटन नही होता, और न ही विघटन होता है। आत्मा पञ्च भूतों से परे है, इसलिए उसका विघटन संभव नहीं है। आत्मा अमर है। शरीर एक पुष्प के समान खिलता है और मुरझा जाता है। अगर कोई नहीं भी तोड़ता तो भी यह टहनी से गिर जाता है।

हे अर्जुन, जिसने जन्म लिया है उसका मरना भी तय है। जो मरता है, उसका पुनर्जन्म निश्चित है। आत्मा पुराना शरीर त्याग कर उसी प्रकार नया शरीर धारण करती है जिस प्रकार शरीर पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है। असत की सत्ता नही होती।

अर्जुन बोले- मैं क्या करूँ केशव? यह शरीर वस्त्र ही सही किंतु जिनको मैं जीवित देखना चाहता हूँ उनका वध मैं कैसे करूँ? मैं युद्ध नही करूँगा केशव।

श्री कृष्ण ने कहा- यह युद्ध तुम्हारी इच्छा से नहीं रुकेगा। तुम कर्म को करो, प्रकृति के नियम के अनुसार फल प्राप्त होगा। प्रकृति अपने नियम किसी व्यक्ति के लिए नहीं बनाती। वह तो समष्टि के लिए है।

अर्जुन -मैं क्या करूँ केशव?

श्री कृष्ण- स्वधर्म! तुम अपना स्वधर्म करो। अन्याय और अधर्म का विरोध करो। अर्जुन, तुम क्षत्रिय हो, भिक्षा मांग कर जीवन यापन करना तुम्हारा स्वधर्म नहीं है। और अपने स्वधर्म के विरूद्व कार्य तुम नहीं कर सकोगे। तुम्हे शासन करना होगा, समाज को अनुशासन में लाना होगा। दुष्टों का दलन करना होगा, यही तुम्हारा कर्म और धर्म है। तुम युद्ध के मैदान से अपने शत्रुओं को पीठ दिखा कर नही भाग सकते। तुम अगर युद्ध नहीं करोगे तो वे तुमसे युद्ध करेंगे।  अतः तुम युद्घ से नही बच सकते। अर्जुन, तुम अपने मोह के कारण कह रहे हो कि युद्घ करने से श्रेष्ठ है भीख माँगना। क्या तुम्हारा क्षत्रिय तेज यह सहन कर पायेगा? क्या तुम अपनी प्रकृति के विरूद्व जा पाओगे? धनञ्जय, यह अधर्म है।

श्री कृष्ण बोले- अर्जुन, यह शरीर प्रकृति का यंत्र है। मधुमक्खी पुष्पों के रस से मधु बनाती है, गाय हरी घास को दूध में परिणत कर देती है, मनुष्य अपने भोजन से रक्त, मल और मांस बनाता है। क्या यह सब करना उसके अपने वश में है? नहीं, यह काम प्रकृति करती है। इसलिए कहता हूँ, स्वधर्म पर टिक कर निष्काम कर्म करो अपने स्वरूप को पहचानो! आत्मस्थ हो।

अर्जुन आज श्री कृष्ण का दिव्य रूप देख रहे थे। ये वे कृष्ण नही थे जो उनका रथ हाँक रहे थे। अर्जुन हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, बोले- केशव, मैंने सदा आपका मार्ग दर्शन पाया है। प्रकृति मुझसे क्या करवाना चाहती है, मैं नही जानता। किंतु मैं अपने पितामह और गुरु पर बाण कैसे चलाऊँ?

श्री कृष्ण बोले- मैंने राजसूय यज्ञ में जरासंध का वध अन्याय और अत्याचार को समाप्त करने के लिए किया था। मैं इस धरती पर धर्म की स्थापना के लिए आया हूँ। तुम इस युद्ध से पीछे नही हट सकते हो। अधर्म कोई भी करे, वह सजा का भागी है।

अर्जुन बोले- मेरे पितामह अधर्मी नहीं हैं। दुर्योधन अधर्मी है।

श्री कृष्ण- तो तुम दुर्योधन का वध करो।

अर्जुन- मार्ग में पितामह खड़े हैं।

श्री कृष्ण- पितामह नहीं... भीष्म!  भीष्म का वध किए बिना यदि दुर्योधन नहीं मारा जा सकता तो पहले किसे दण्डित होना चाहिए?

श्री कृष्ण मुस्कुराए, बोले जीवन का सत्य यही है धनंजय। जब अधर्म के विरूद्व शस्त्र उठाओगे तो सबसे पहले तुम्हारे परिजन ही तुम्हारा हाथ पकड़ेंगे। अर्जुन, तुम मनुष्य की दृष्टि से देख रहे हो इसलिए मोह में पड़े हो। तुम सम्पूर्ण की दृष्टि से देखो, ईश्वर की दृष्टि से देखो। ईश्वर से जो सम्बन्ध तुम्हारा है, वही सम्बन्ध पितामह का भी है। तुम दोनों ईश्वर के हो। प्रकृति ईश्वर की शक्ति है। प्रकृति भेद या व्यक्ति सम्बन्ध नहीं रखती।

अर्जुन! मोह के कारण तुम्हें अपना धर्म नही दिख रहा है। तुम्हारी दृष्टि में भेद आ गया है। आसक्ति किसी को सत्य के दर्शन नहीं करने देती। तुम्हें स्वधर्म के लिए आसक्ति को त्यागना होगा।

अर्जुन बोले- मैं आपका शिष्य हूँ केशव। किंतु मैं पितामह का पौत्र भी हूँ। उनके प्रति भी मेरा धर्म है।

अर्जुन ने देखा श्री कृष्ण के चेहरे का तेज सूर्य से अधिक था जो उसके लिए असह्य होता जा रहा था। आकाश के सूर्य से अधिक प्रखर था श्री कृष्ण का तेज।

कृष्ण की वाणी जैसे मेघों की गर्जना सी लग रही थी। बोले- अर्जुन! ऐसा कोई काल नहीं था जब तुम नहीं थे या मैं नहीं था। तुम मोह के कारण अपना स्वरूप भूल गए हो।

श्री कृष्ण का स्वरूप बड़ा विशाल लग रहा था। उनका अद्भुत रूप देख कर अर्जुन विस्मित थे। वे अपलक भगवान् को निहारते ही रहे, अपनी सुध भूल गए।

भगवान् बोले- अर्जुन तुम्हे विस्मृत हो गया है पर मुझे याद है। इस शरीर में मैं ही आत्मा के रूप में स्थित हूँ। समस्त भोग भोगते हुए भी मैं मुक्त हूँ। मैं यह शरीर नही हूँ।

अर्जुन ने डरते हुए पूछा- मैं कौन हूँ केशव?

कृष्ण बोले -तुम भी वही हो जो मैं हूँ। तुम पर मोह का आवरण है। तुम अपना आत्मभाव भूल गए हो इसलिए तुम अपना स्वरूप नहीं देख पा रहे हो। तुम या मैं नहीं, यह युद्ध प्रकृति करवा रही है। प्रकृति ही प्रकृति के विरुद्ध लड़ रही है। कोई किसी को नहीं मार रहा है। जो मार रहा है वह भी मैं हूँ, जो मर रहा है वह भी मैं ही हूँ। आत्मवान अर्जुन- अपने धर्म को न भूलो।

यहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को आत्मवान कहा है, जिसका भाव यह है कि अर्जुन अपने क्षत्रिय स्वभाव, अपने धर्म, अपने गुण को न छोड़ो नहीं तो निरात्मा कहे जाओगे" अर्जुन मोह में पड़ कर अपने व्यक्तित्व को नकार रहे थे, युद्ध के क्षेत्र को छोड़ने को तैयार थे।

अर्जुन व्याकुल स्वर में बोले- केशव! मेरे अपने युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। मैं यहाँ आपके साथ हूँ। मेरे शत्रु क्या सोचेंगे? मैं सारे धर्म- क्षत्रिय धर्म, भाई का धर्म, शिष्य का धर्म, पिता, पौत्र का धर्म सब एक साथ कैसे निभाऊँ?

भगवान् का स्वर असाधारण हो उठा, जैसे लगा ब्रम्हादेश है- "अर्जुन तू सब धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा।"

अर्जुन चेतना के दिव्य सागर में तैर रहे थे- क्या वह मात्र दृष्टा हैं? करता कोई और है? यह क्या घटित हो रहा है?.... अर्जुन को लगा जैसे उनके चारों ओर कृष्ण ही कृष्ण हैं। श्री कृष्ण का अद्भुत रूप देख कर नर श्रेष्ठ अर्जुन डर गए, काँपते हुए पूछे- आप कौन हैं?


श्री कृष्ण हँसे, लगा जैसे बिजली चमकी हो, आकाश इन्द्रधनुषी हो गया। बोले- "मैं ही हूँ, मैं ही महाकाल हूँ, सब मुझसे ही प्रकट हुआ है और मुझमें ही विलीन हो जाएगा।"

अर्जुन ने देखा कि उनके चारों तरफ का संसार विचित्र सा हो गया है। कृष्ण मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। अर्जुन का अस्तित्व उनमें समाता जा रहा था। श्री कृष्ण एक प्रकाशपुंज में परिणत हो गए थे, जैसे सहस्रों  सूर्य एक साथ आकाश पर उदित हो गए थे। सूर्य, वायु, जल, वनस्पति, जीवजन्तु, वृक्ष तथा पूरा ब्रम्हांड उनमें ही समाहित है। उनके सहस्रों मुख प्रकट हो गए थे। बड़ी-बड़ी सेनाएं उनमें समाती जा रही थीं। एक तरफ़ लोग लड़ मर रहे थे, दूसरी तरफ़ लोग जन्म ले रहे थे, पृथ्वी का पूरा सृष्टि  चक्र भगवान् के मुख में था, उसमें अर्जुन ने अपने सगे-सम्बन्धियों को भी देखा- भीष्म, द्रोण, दुर्योधन सबको देखा। अर्जुन ने अपने नेत्र बंद कर लिए, जब आँखे खोली तो सब यथावत पाया। भगवान् ने अपनी माया समेट ली।

रथ पर बैठे कृष्ण मुस्कुरा रहे थे। यह क्या था केशव- अर्जुन ने पूछा!
सृष्टि का सत्य- श्री कृष्ण ने कहा!

अब अर्जुन युद्ध के लिए प्रस्तुत थे। वह अपना क्षत्रिय धर्म और कर्तव्य समझ गए। अर्जुन आत्मवान हो उठे, गांडीव धारण किया। आत्मस्थ अर्जुन को दिव्य अनुभूति हुई। श्री कृष्ण चले रथ को लेकर रणभूमि में। बोले- "पार्थ! आकस्मात प्राप्त स्वर्ग के खुले हुए द्वार की भांति ऐसा युद्ध भाग्यशाली क्षत्रिय को ही प्राप्त होता है।"

जब चारों ओर घोर अँधेरा हो और दूर-दूर तक कोई आशा की किरण न दिखाई पड़ रही हो, गहरा विषाद छाया हो, तो विषाद को आह्लाद में बदलने का काम करती है गीता। गीता की दिव्यता और अलौकिकता संसार में और कहीं नहीं है। आशा का जमागाता सूर्य है गीता। विषाद को योग बनाती है गीता। जब अर्जुन विषाद में डूब कर अपने स्वधर्म से विमुख होने जा रहे  थे, तब गीता ने उन्हें ज्ञान दिया।

गीता कहती है- मृत्यु तो शरीर की होती है, जीव की नहीं। जब शरीर मरता है तो जीव निकल जाता है, जीव भटकता रहता है जब तक वह पुनः नया शरीर नहीं पा जाता। शरीर रुपी वस्त्र पहन कर जीव फ़िर जन्म लेता है। इस प्रकार इस जीव के न जाने कितने जन्म हो चुके हैं और कितने सम्बन्धी बन चुके हैं। शरीर रूपी वस्त्र पहन कर यह जीव फ़िर सुख-दुःख की चिंता में पड़ जाता है। इस शरीर में रहकर ही सुख, आह्लाद, मोक्ष और खशी की राह दिखाती है गीता।

शरीर की यात्रा तो बिना कुछ किए भी चलती है और वह जन्म से मरण तक की यात्रा करती है। पर जीव की यात्रा लम्बी चलती है और इसके रिश्ते भी बदलते रहते हैं। संसार के रिश्ते नाते निभाने चाहिए, हँस कर सब करना चाहिए। पर एक बात हम भूल जातें हैं कि इस जीव का सच्चा रिश्ता तो ईश्वर से है। जीवन के सारे रिश्ते उन्ही से हैं, हमारे भीतर जो बसता है हम उससे ही कितनी दूर रहते हैं। हमारे भीतर जो प्राण है वो कौन है? हमारी आंखों में जो प्रकाश है वो कौन है? हमारे कानो में जो श्रवण हैं वो कौन है? उसे पहचानो। इस जीवन यात्रा का सच्चा साथी वही है- ईश्वर!

भगवान् कहतें हैं-

  • ज्ञान श्रेष्ठ है पाप के सागर को ज्ञान की नौका से ही पार पाया जा सकता है।
  • कर्म को तपस्या बना लो, यही कर्म योग है। ज्ञान के द्वारा अच्छे और बुरे की पहचान करो और कर्म की उच्चा अवस्था को पा लो। कर्म शुभ फल देगा।
  • जो शक्तियाँ समाज की शत्रु हैं उनको ख़तम करना कल्याण का काम है।
  • हे पार्थ, निष्काम कर्म स्वयं को दूषित नही करता।
  • अपने आस-पास की सुगंध और दुर्गन्ध को लेने के लिए इन्द्रियां विवश होतीं हैं इसलिए अपनी चेतना को जागृत करो। राग, ध्वनि और कोलाहल को कान जरुर सुनेंगे, आँखे क्या देखें, मुख क्या कहे अपने ज्ञान के द्वारा निश्चित करो।
  • हम समाज में रहते हैं इसलिए हमारे कर्म अनुकरणीय होने चाहिए।
  • काम, क्रोध, लोभ, मोह, वासना! ये सब पाप कर्म करवटें हैं इसलिए इनसे दूर रहो।
  • निष्काम कर्म के मार्ग पर चल कर भी जीवन जिया जा सकता है, यह हमें श्री कृष्ण ने गीता में बताया है।
  • शरीर का सत्य है मृत्यु, इसलिए इसका शोक नहीं करना चाहिए, अपने धर्म का पालन करना चाहिए।
"ॐ नमो नारायण"

गीता हमारा रक्षा कवच है-

मोह, रात्रि, घोर कष्ट में, दुःख में, निराशा में, हताशा में, गहन अन्धकार में जब आस-पास कोई रोशनी  न दिख रही हो, ऐसे वक्त में यह ईश्वरीय ज्ञान हमें आशा और उत्साह देता है। गीता हमें शुद्ध ज्ञान से अवगत कराती है, पुनर्जीवन देती है।

विद्वानों की बुद्धि, बलवानों का बल, तेजवान व्यक्तियों का तेज- यह सब ईश्वर कि कृपा से होता है। समस्त चराचर में ईश्वर ही बीज रूप में व्याप्त है। आपने देखा होगा कितने पेड़-पौधे अनायास ही उग जाते हैं। जानतें है कैसे? कोई पक्षी अशुचि पूर्ण तरीके से कोई बीज गिरा देता है और एक दिन वह विशाल वृक्ष का रूप ले लेता है। कौन कहता है, किसकी व्यवस्था है यह?

कलकत्ता के "बोटानिकल गार्डेन" में एक वट वृक्ष है। बहुत विशाल है वह। उसके नीचे लाखों लोग छाया पातें हैं। मीलों तक फैली हैं इस वृक्ष कि भुजाएं। इसका वर्णन नहीं है कि किसने लगाया। हाँ, अब उसकी देखभाल कि जाती है। कभी किसी पक्षी ने अशुचि पूर्ण तरीके से बीज गिरा दिया और वृक्ष बन गया।

हमारा निवास स्थान जहा हैं वहां भी तीन पीपल के विशाल वृक्ष थे। पर उसे लगाया किसी ने नहीं था । वह इतने जैयद (बड़े) थे कि उनसे पार होकर सूर्य कि किरणें हमारे घर तक नहीं आ पाती थीं। बाद में बहुत कोशिश करके इनको कटवाया। यही है भगवान् का बीज रूप। आजकल "एन डी टीवी इमैजिन" पर एक प्रोग्राम आता है- राज़ पिछले जन्म का। उसमें किसी तरीके से आदमी को उसके पिछले जन्म में ले जाते हैं। एक डाक्टर हैं जो यह करतीं हैं, ६० मिनट के बाद आदमी अपने पिछले जन्म को देखता है। वह बेहोशी कि हालत में दिखता है और अपने पिछले जन्म को देखता है। उसमे दुःख-सुख और अपने कर्मो को देखकर वह अपने वर्तमान को जोड़ता है। जब वह जागता है तो सब सच मानता है।

यही बात हजारों साल पहले ही श्री कृष्ण ने गीता के माध्यम से हम मानुषों को बताई कि कर्म का फल नहीं त्याग सकते। यह भोगना ही पड़ेगा। फल तो मिलेगा ही, बस कर्म का ध्यान रखो। महर्षि भृगु ने भी पिछले जन्म की विवेचना के आधार पर आज के दुःख सुख को जोड़ा है। महर्षि भृगु ने कुल १० करोड़ कुण्डलियाँ बनाई हैं। उनकी संहिता नालंदा में रखी थी। मुग़ल काल में मुहम्मद गोरी ने जब आक्रमण किया तो नालंदा का पुस्तकालय जला दिया गया था, तो उसमे "भृगु संहिता" का एक बड़ा भाग जल गया। आज हमारे पास बची हुई लिपि ही है। भृगु संहिता कुल ११ खंड में थी। भृगु के पुत्र "शुक्राचार्य" थे। कहतें हैं उनके पास मृत संजीवनी विद्या थी, जिसके कारण दैत्य इतने बलवान हो गए थे। शुक्राचार्य दैत्यों के गुरु थे। भृगु संहिता के अनुसार भी जिनके पास कोई ऐसा दुःख है जो नहीं समझ पाते कि क्यों है, उसका कारण उनका पूर्व कर्म होता।

तो बात हो रही है गीता-अमृत की। अर्जुन जब मोह निशा में भटक कर अपने धर्म को, कर्तव्य को भूल रहे थे, तब भगवान् ने उन्हें गीता का ज्ञान देकर उनके क्षत्रिय धर्म को जगाया था। अर्जुन विजयी हुए और धर्मराज्य की स्थापना हुई।

2 टिप्‍पणियां:

  1. I believe in serve man is equal to serve GOD, but whenever I find myselve in some problems GEETA gives me power and shows me right path. I always read 5 slokes and MAHATTAM. I suggest this to all as I am benefitted by this and I want same for every one.

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  2. papia guha
    bhagwat ka ansh maine likha hai aap poora blog padhe shayad aapka uttar isme ho .
    agar aap hindi me prashn kare toh main achchhi tarh aapke har prashn ka uttr doongi .
    aap 5shloks roj padhti hai bahut achchha shri krishna ko padhe unke chritr ko padhe .
    khush rahiye
    me shakun

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