शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

उत्तम संतान - एक दृष्टि

आज के इस संक्रमित युग में माता-पिता की एक सबसे बड़ी चिंता यह होती है कि वे कैसे अपनी संतान को इस प्रकार बनाएं कि वह हर तरह से उन्नत हो। आज के इस चमक-दमक और दिखावे की ज़िन्दगी में हम अपने ठोस जीवन मूल्यों को कहीं पीछे छोड़तें जा रहे हैं।

हमारे मनीषियों ने जो जीवन दर्शन हमें दिया, वह हम भूल रहे हैं। आज जो जितना चालाक है, वह उतना ही तेज़ माना जाता है। झूठ बोलकर लोग मानते हैं कि मैंने तो जीत लिया। जब अपने साथ यही होता है तो उपदेश पिलाने लगतें हैं।

मैंने यह भी देखा है कि एक माँ के यदि तीन या चार बच्चे हैं तो वह अपने बच्चों में भी भेद की भावना को जगाती है और वे जब बड़े होतें हैं तो आपस में वैर भाव रखतें हैं। माँ ही जब यह होने देती है तो फिर कौन रोके? बचपन का पड़ा हुआ बीज धीरे -धीरे अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है वृक्ष बनने के बाद वह फलेगा भी।

 आप अगर चाहतें हैं कि आपका बच्चा इंसान बने तो पहले उसमें पुष्ट बीज अंकुरित करिए। जब वह परिपक्व हो जाएगा तो अच्छे-बुरे की पहचान करना सीख लेगा। आप उसे दोनों बताइए कि अच्छा क्या है और बुरा किसे कहतें हैं। अच्छे होने से क्या होता है और बुरे होने के क्या परिणाम होते हैं; हमें क्यों अच्छा बनना चाहिए।

 पहली और सबसे अहम बात यह है कि आपका जीवन वैसा ही होना चाहिए जो आप अपने बच्चे में देखना चाहतें हैं। मैंने अपने जीवन में अपने अनुभवों से जो सीखा, यहाँ लिखना चाहतीं हूँ । मैंने अपने बच्चों में तब तक किसी के लिए गलत धारणा नहीं पनपने दी जब तक कि वे वयस्क नहीं हो गए। जब तक कि वे खुद अच्छे और बुरे का भेद नहीं जान गए। मेरे दोनों बच्चे बहुत अच्छे इंसान हैं।

 हमारे ग्रन्थ कहते हैं-

 ब्रम्हा जी ने कई बार सृष्टि की रचना की, तब जाकर ऐसा इंसान बना पाए जो सर्व गुण युक्त हुआ। ब्रम्हा जी ने प्रथम रचना अज्ञान में की थी, इसलिए वह पाप कर्म में लिप्त हो गई। ब्रम्हा जी दुखी हुए। दूसरी बार उन्होंने अपने मन को ध्यान से पवित्र किया, तब रचना की। तो इस बार चार उर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न हुए इनके नाम हैं- सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार। परन्तु ये पूर्ण वैरागी थे। ये चारों यद्यपि आज्ञाकारी थे, परन्तु संसार कि रचना करने को तैयार नहीं हुए। ब्रम्हा जी अपने इन पुत्रों से नाराज हो गए। क्रोध में आकर उन्होंने फिर से रचना की। इस बार जो संतान हुई, वह बहुत रो रही थी, परेशान थी कि मैं कहाँ रहूँ, मुझे सुख पूर्वक रहने के लिए स्थान चाहिए। ये रो रहे थे इसलिए इनका नाम रूद्र हुआ। ये संख्या में १० थे और ब्रम्हा जी ने १० कन्याओं से इनका विवाह किया।

 ये लोग सृष्टि में रत हुए पर इनकी संतानें बड़ी हिंसक और बलवान थीं। ये पृथ्वी के जीवों को खाने लगे, आपस में लड़ने मरने लगे, देवताओं को भी इनसे भय लगने लगा। ब्रम्हा जी फिर दुखी हुए अपनी इस भयंकर रचना से।  सोचने लगे क्या करूँ कि इस पृथ्वी पर सुन्दर और सुव्यवस्थित रचना हो सके। ब्रम्हा जी ने वाणी सुनी "तप"। ब्रम्हा जी तप करने बैठ गए। उन्होंने श्री हरि का ध्यान किया। तब उनके शरीर से एक स्त्री-पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ जो मनु और शतरूपा के नाम से जाने गए।

 इस कथा से यह समझना चाहिए कि ब्रम्हा जी की प्रथम रचना जो अज्ञान में की गई थी, वह पाप में रत हो गई। अर्थात अज्ञान ही गलत कर्म का कारण होता है। जो सृष्टि वैराग्य में रची गई, वह कर्मो से पूर्ण रूप से उदासीन थी। तीसरी बार जब क्रोध में सृष्टि की रचना हुई तो वह हिंसक थी। चौथी बार जब ब्रम्हा जी ने श्री हरि की उपासना की, तप किया तब मनु और शतरूपा का जन्म हुआ। ब्रम्हा जी अपनी इस सृष्टि से प्रसन्न हुए।

ब्रम्हा जी के पुत्र मनु श्री विष्णु भगवान् के परम भक्त थे और उनकी पत्नी शतरूपा आज्ञाकारिणी थी। मनु ने हाथ जोड़ कर ब्रम्हा जी से कहा- हम आपकी संतान हैं। हम ऐसा कौन सा कर्म करें जिससे आपकी सेवा हो सके। ब्रम्हा जी वीर और आज्ञाकारी पुत्र पाकर बहुत प्रसन्न हुए और बोले- तुम गुणवान संतान उत्पन्न करो और धर्म पूर्वक इस पृथ्वी का पालन करो। एक सुन्दर सृष्टि की रचना करो। इस प्रकार हम सब मनु कि संतान है। ब्रम्हा जी की सुन्दर रचना।

यही है इस सृष्टि की रचना कथा। इस कथा से एक बात साफ़ होती है- कि अभिभावक के गुण संतान को मिलतें हैं।

स्वायम्भुव मनु और शतरूपा जिनके द्वारा मनुष्यों कि अनुपम सृष्टि हुई, ये दोनों धर्म और आचरण में बहुत अच्छे थे। वेद भी उनकी मर्यादा का गान करतें हैं। मनु जी ने शास्त्रों की मर्यादा का पालन किया। आइए जानते हैं शास्त्र मर्यादित जीवन के बारे में।

हमारे शास्त्रों में भोजन को देवता का प्रसाद माना गया है। इसलिए इसे पकाने और खाने में भी विशेष शुद्धता का ख्याल रखने को कहा गया है। हम जो कुछ खातें हैं, उसी से हमारे शरीर का गठन होता है। हमारे मन और मस्तिष्क पर हमारे खान-पान का सीधा असर पड़ता है। इसलिए हमारा खाना शुद्ध और पौष्टिक होना चाहिए।

भोजन ज्यादा तला हुआ, जरुरत से ज्यादा पका हुआ, अशुचि और अरुचि से बनाया हुआ, बासी, तामसिक नहीं होना चाहिए। ऐसा भोजन विकार उत्पन्न करता है।

नशा नहीं करना चाहिए। इससे मानसिक संतुलन खो जाता है और इसका असर संतान पर अवश्य पड़ता है। नशा करने से इंसान की रक्त वाहिनी नाड़ियाँ कमजोर हो जातीं हैं। हमारा शरीर प्रकृति के साथ ही सुन्दर और स्वस्थ रहता है। इसलिए किसी भी प्रकार के नशे, जैसे बीडी,सिगरेट, शराब, तम्बाकू या अन्य नशीली वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा करना स्वयं अपनी बदहाली कों निमंत्रण देना है।

यजुर्वेद में कहा गया है- "हे पित्रगण! पुष्टिकर पदार्थों से बने शरीर वाले इस सुन्दर बालक का पोषण करें ताकि वह इस पृथ्वी पर वीर पुरुष बन सके।"

हम सबके लिए स्वच्छ जल, अन्न, घृत, दूध, फूलों और फलों का रस अमृत के समान है। इसके सेवन से शरीर निरोग और पुष्ट होता है, मन और बुद्धि निर्मल होती है। हम पवित्र और तेजवान बनते हैं। स्वच्छ जल के स्नान के बिना हमारा शरीर अशुद्ध रहता है, किसी पावन कर्म में हिस्सा नहीं ले सकते, घृत को अमृत कि संज्ञा दी गयी है। देवों का यज्ञ घृत के बिना शुद्ध नहीं कहा जाता। घृत का सेवन हमें निरोग बनाता है, आँखों कि ज्योति बनी रहती है। घृत को बलवर्धक कहा गया है।

दूध का सेवन हमारे शरीर की हड्डियों कों मजबूत करता है। दूध में दिव्य गुण होते हैं। शुद्ध अनाज हमारा सम्पूर्ण शरीर पुष्ट रखता है। भोजन की अशुद्धता या कमी कई प्रकार के रोगों का कारण होता है।

संयम और नियम-

केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो अपने मन, मस्तिष्क और काया को ऊर्ध्वगामी बना सकता है। हमारे मनीषियों ने कहा है कि सूर्योदय से पहले बिस्तर को छोड़ देने से तन और मन दोनों स्वस्थ रहतें हैं। आनंद की अनुभूति होती है, सुबह की हवा में प्राण होतें है इसलिए ताजगी आती है। दिन की शुरुआत ईश प्रार्थना से करनी चाहिए।

हमारे देश के मुनियों ने अपार विद्वता, अद्वितीय क्षमता, अनुपम सौंदर्य और दिव्यता,यह सब संयम और नियम के बल पर पाया है, धर्म के पथ पर चल कर पाया है। भोगों के बीच में रहकर योगी का जीवन जीना, यही संयम और नियम है। अपनी उत्कृष्टता को बना कर रहना, यही संयम है। यह सब स्त्री-पुरुष दोनों कों करना चाहिए, तभी पूर्ण होता है नियम और संयम।

जिस घर में बच्चे चरित्रवान हैं तो समझिये माता-पिता के चरित्र का पूर्ण योगदान है। इसको ध्यान में रखकर अपने आचरण में हर प्रकार कि शुचिता और शुद्धता लाना भावी माता-पिता का कर्तव्य है। संध्या का काल घोर बेला कही गई है, इस बेला में शिव जी अपने गणों के साथ रहते हैं। पृथ्वी पर इस बेला में पूर्ण शुद्धता का ख्याल रखना चाहिए, ब्रम्हचर्य नियमों का पालन करना चाहिए। इसके अलावा एकादशी और अमावस को भी ब्रम्हचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। ग्रहण काल पूर्ण रूप से वर्जित है, इसमें भी नियमों का पालन करें।

 गर्भावस्था में माँ कों किस प्रकार रहना चाहिए, आइये जानतें हैं शास्त्र इस बारे में क्या कहते हैं।  भागवत में वर्णन है कि किस प्रकार उत्तम,वीर और उर्ध्वगामी संतान प्राप्त कर सकते हैं-

  • किसी को भी मन वाणी या क्रिया के द्वारा पीड़ा न पहुचाएं।
  • अकारण किसी से ईर्ष्या न रखे ,किसी से गाली-गलौज न करें।
  • झूठ न बोलें, हमारे शास्त्रों में नाखून काटना भी वर्जित बताया गया है।
  • किसी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करें।
  • नदी या तालाब में घुस कर स्नान न करें।
  • क्रोध न करें, बुरे लोगों से बात न करें, जिसे देख कर आप असहज हो जातें हो, उससे दूर रहें।
  • प्रतिदिन स्नान करें, धुला हुआ वस्त्र पहनें , किसी का पहना हुआ वस्त्र न धारण करें।
  • झूठा, बासी और मांसयुक्त भोजन न करें।
  • शूद्र का छुआ, अशुद्ध व्यक्ति का लाया हुआ,जहाँ-तहाँ भोजन न करें।
  • अंजुली से पानी न पियें।
  • झूठे मुख बाहर न निकलें, संध्या काल में भी बाहर न निकलें (जो माँ बनने वाली हों)।
  • संध्या के समय बालों को खुला न रखें और न कंघी करें।
  • संध्या की बेला शिव जी की है, इस समय वो अपने गणों के साथ पृथ्वी भ्रमण करते हैं। इसलिए इस बेला में शुद्ध होकर श्री हरि का ध्यान करना उत्तम होता है।
  • अमंगल वेश में न रहें, अपने मांगलिक चिन्हों से युक्त रहें।
  • सभी कर्म जो निषिद्ध हैं, उनका त्याग करें।
  • बिना पैर धोए अपवित्र अवस्था में बिस्तर पर ना जाएं।
  • उत्तर या पश्चिम कि तरफ सिर करके न सोयें।
  • संध्या काल में कदापि न सोयें।
  • सूर्योदय से पहले विस्तर त्याग दें। स्नान के पश्चात् श्री हरि का स्मरण करें, सूर्य को अर्ध्य जरुर दें।
  • स्वयं भोजन करने से पहले अपने से बड़ों को , ब्राह्मण, गाय और याचक को भोजन दें।
  • हमेशा क्रियाशील और प्रसन्नचित रहना गर्भावस्था में आवश्यक है, इसका सीधा असर शिशु पर पड़ता है ।
  • भोजन में दूध, दही रोज लेना चाहिए।
  • भोजन, वस्त्र, शैय्या, स्थान, संग, दृश्य, वातावरण, मन, बुद्धि, शरीर; सब कुछ साफ़, स्वच्छ और शोभनीय बना कर रखें।
  • घर का वातावरण सुगन्धित और प्रसन्न करने वाला होना चाहिए।
  • नियमित रूप से श्री हरि का दर्शन, पूजन करें, उनको उत्तम भोग अर्पित करें।
  • ध्यान रखें कि आपकी कोख में एक तेजपुंज पल रहा है, इसे आपको महान बनाना है।
इस नियम में श्री कृष्ण के बाल रूप कि पूजा करें।

भागवत में लिखा है अदिति ने इस प्रकार नियम का पालन करके वीर संतान पाया जो इंद्र को मार सका।

 अब जानेगें उत्तम संतान के लिए, पुत्र प्राप्ति के लिए शास्त्र ने क्या उपाय बताये हैं-

भागवत में कहा गया है कि एक वर्ष तक प्रत्येक अमावस्या को श्री हरि की पूजा करें। चन्दन, माला, अर्ध्य, नैवेद्य, वस्त्र, आभूषण, गंध, पुष्प, धूप, दीप, पाद्य आदि से पूजन करें। खीर की आहुति इस मन्त्र से दें- "ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूति पतये स्वाहा।"


अर्थात- महान ऐश्वर्यों के अधिपति भगवान् पुरुषोत्तम को नमस्कार है।

घृत मिश्रित खीर से १२ बार आहुतियाँ दें। ब्राम्हण को भोजन दें, माला और चन्दन से पूजन करें।
पुत्र प्राप्ति के लिए हमारे शास्त्रों में एक बेहद प्रभावशाली मन्त्र बताया गया है, यह देव गुरु श्री नारद जी का दिया हुआ मन्त्र है। हम अपने पाठकों के लिए यहाँ दे रहे हैं-
मन्त्र है- देवकी सुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते, देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणम् गतः!

इस मन्त्र को एक लाख बार जपना चाहिए। निश्चय ही कामना पूर्ण होगी। मन्त्र को श्री कृष्ण कि बाल मूर्ति के सामने जपना चाहिए। पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ जपें, ईश्वर की कृपा तो कुछ क्षणों में भी मिल सकती है।

संध्या काल, ग्रहण काल, एकादशी, अष्टमी, पूर्णमासी और अमवस्या को विशेष फल मिलता है। मन्त्र में देवता का स्वरूप बसता है, इसलिए वस्त्र और आसन पवित्र होने चाहिए। ग्रहण काल, एकादशी, पूर्णिमा और अमावस्या को स्त्री संग वर्जित कहा गया है।

मंत्रो कि रचना हमारे मनीषियों ने की । मन्त्र केवल शब्द नहीं हैं, इसमें देवता बंधे होते हैं। मन्त्र की शक्ति से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है। पूर्ण ध्यान पूर्वक मन्त्र को जपना चाहिए। एक मात्रा कि गलती भी मंत्रो के अर्थ को बदल देती है और परिणाम भी बदल जाते हैं। मन्त्र कि शक्ति से असाध्य भी साध्य बन जाता है। मन्त्र मन में और सस्वर भी जपा जाता है। सबसे जरुरी बात है ध्यान लगने की, ईश्वर से तादात्म्य होने की। जब साधक कि अन्तश्चेतना जगती है, तो वह सामान्य मानव से ऊपर उठ जाता है और मन्त्र अपना प्रभाव देता है।

आइये अब हम इस पर चर्चा करें कि बच्चों के साथ किस तरह से व्यवहार किया जाना चाहिए-
बच्चे जब जन्म लेते हैं, तो वो एक ताजा, स्वच्छ खिले हुए फूल की तरह होतें हैं। बच्चे पूरी तरह से अपने अभिभावक पर निर्भर होते हैं। बच्चों कि देखभाल बहुत सावधानी और ज़िम्मेदारी के साथ करनी चाहिए। सफाई और स्वच्छता पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

कुछ माताएं जो सोचतीं हैं कि स्तन पान कराने से उनका शरीर बिगड़ जाएगा, तो आज के डॉक्टर भी यह कहतें हैं कि छः महीने तक शिशु को दुग्ध पान कराना चाहिए। स्तनपान से माताओं को कोई हानि नहीं होती। स्तन पान कराने वाली माताएं अपने भोजन में पौष्टिकता का ख्याल जरुर रखे ताकि उनका बच्चा स्वस्थ रहे। स्तन पान तब कराएं जब आप प्रसन्न अवस्था में हों। शिशु जब तक माँ का दूध पीता है, तब तक माँ के खान-पान, विचार का सीधा सम्बन्ध शिशु से होता है।
इसलिए दुग्ध पान कराने वाली माताएं अपने भोजन और आचरण पर ध्यान दे।

माँ का दूध शिशु को स्वस्थ रखने के साथ-साथ उसकी रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाता है। माँ का दूध बच्चे के लिए पूर्ण आहार का काम करता है। स्वस्थ माँ का बच्चा भी स्वस्थ और प्रसन्न रहेगा, उसका सम्पूर्ण विकास उचित रीति से होगा। बच्चे के स्नान और आहार का भी समय रखना चाहिए। जब माँ समय का ध्यान रख कर बच्चे का हर कार्य करेगी तो बच्चा उसी सारिणी में चलेगा। जैसे बहुत छोटे एक से दो माह के शिशु को एक-एक घंटे पर आहार दें, १० या १५ दिन बाद आप देखेंगे एक घंटे एक बाद आपका शिशु रोने लगेगा कि उसे आहार मिले। इसी तरह जैसे-जैसे वह बड़ा हो उसकी चर्या और खान-पान एक नियम के साथ चलाइये। आप अपने शिशु के आहार में पौष्टिकता का ख्याल रखिए, आप अपने बच्चे को हँसते खेलते बढ़ता हुआ देखेंगे।

जब बच्चा चलने लगे बोलने लगे, आप देखेंगे कि वह निरंतर सीखने कि प्रक्रिया में लगा रहता है। इस काल में अपने घर का वातावरण बच्चे देखते हैं और ग्रहण करते हैं। अब यह पूरी तरह अभिभावक को समझना चाहिए कि अपने घर का माहौल कैसे अच्छे से अच्छा बना कर रखें। कुछ बातें जिनका ख्याल रखें -
  • बच्चों से कभी झूठ न बोलें।
  • कुछ बड़े होने पर उनको सच और झूठ का फर्क समझाएं।
  • उनको बताएं कि सच बोलना अच्छा है, झूठ बोलने से मान घटता है।
  • बच्चों के मन में घृणा और ईर्ष्या का बीज न डालें नहीं तो जीवन भर इसका प्रभाव रहेगा।
  • बच्चों के मन में कभी भय का भाव न आने दें, उनमें उत्साह भरे।
  • घर में बच्चों के सामने लड़ाई झगडा गाली आदि नहीं होना चाहिए।
  • बच्चो को सुबह स्नान आदि के बाद कुछ मिनट पूजा, ध्यान अथवा ईश्वर से सम्बंधित कोई कार्य जैसे फूल चुनना, पूजा के स्थान की सफाई करने के लिए कहना।
  • बच्चे सब कुछ जानने की इच्छा रखतें हैं, जिज्ञासु होतें हैं। उनकी जिज्ञासा को कुशलता के साथ शांत करना चाहिए।
  • किशोर किशोरियाँ बड़े कोमल स्वभाव के होतें हैं, उनको समझ कर उनके साथ दोस्तों कि तरह बर्ताव करें।
  • छोटे बच्चे जो नहीं समझते कि गाली क्या है, अपशब्द क्या है, उनके साथ कैसे बच्चे हैं इसका ध्यान भी दें।
  • आप जिस तरह बोलेंगे, आपका बच्चा उसी तरह बोलेगा। उतनी ही मीठी जुबान बोलेगा जितनी आप।
  • बच्चों के आहार में पौष्टिकता का ख्याल रखें तभी उसका दिमाग तेज रहेगा और वह स्वस्थ रहेगा। 
  • कच्ची उम्र के बच्चों के सामने किसी को भी बुरा-भला न कहें, पर उसे अच्छे और बुरे कि पहचान जरुर कराएँ। जब वह समझदार होगा तो फर्क कर लेगा।
  • कई घरों में होता है- माँ कहती है बच्चे से कि आने दो तुम्हारे पिता को बताती हूँ। और माँ पिता के आने पर बच्चे कि शिकायत करती है। फिर पिता बच्चे को अपनी समझ के अनुसार दंड देता है। माँ समझती है, बच्चा सुधर गया लेकिन मनोविज्ञान कहता है कि यह गलत है। ऐसा करने से बच्चा अपनी माँ के लिए कुंठा पाल लेता है या बाप को लेकर उसके मन में अच्छे विचार नहीं रहते।
  • किसी के सामने बच्चे कि बुराई न करें इससे उसके मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है और वह ज़िद्दी तथा बागी हो जाता है।
  • किसी के सामने उसकी तारीफ़ करें, उसके अच्छे काम को प्रोत्साहित करें वह और उत्साहित होगा। 

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