शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

घड़ी की यात्रा

मैं एक घड़ी हूँ। कलकत्ता की एक दूकान में १९७२ में अपनी सखियों के साथ बैठी मुस्कुरा रही थी। मेरा रंग सुनहरा है। मैं एक दम सोने जैसी दिख रही थी। एक दिन एक १८ वर्षीय लड़की दूकान पर आई, उसे मैं भा गयी, उसने मुझे ले लिया। उसने मुझे अपनी शादी में पहना, मैं भी उस लड़की के साथ उसकी ससुराल आ गई। वह अपनी सुंदर कलाई पर जब मुझे पहनती तो वह बहुत खुश होती मेरे रूप पर। मैं उस घर में सबको भाती थी। उस समय पूरे आस पास के लोगों के पास मुझसे सुंदर कोई नही था। उस घर की एक लड़की मुझे लेना चाहती थी, प़र मेरी मालकिन मुझसे बहुत प्रेम करती थी। उसने मुझे किसी को नहीं दिया।


जिसके साथ मैं आई आज भी वह मुझसे प्रेम करती है, मैं भी उनका साथ निभा रही हूँ। इस लम्बी यात्रा में कई बार मैं महीनों ऐसे ही पड़ी रहती थी। प़र जब कभी मेरी मालकिन मुझे चाभी देती है, तो मैं अवश्य उनको समय बताती हूँ।

मेरी मालकिन के पुत्र ने उन्हें एक और घड़ी लाकर दी है, वो मुझसे बहुत सुंदर है। मैं अब थक जाती हूँ, मेरी पालिश भी धुंधली हो गई है। लेकिन मेरी मालकिन मेरी सुध हफ्ते में एक बार जरुर लेतीं है। वे मुझे अपने कमरे में सामने आलमारी प़र ही रखती हैं। मैं उनसे रोज मिलती हूँ, और वे भी मुझे देखतीं हैं। अपने बेटे की लायी हुई घड़ी को वे बड़े प्यार से धूल से बचाकर रखतीं हैं, प़र मुझे भी नही भूलीं। जिस दिन मुझे चाभी मिल जाती है, उस दिन मैं उनको १० से १२ घंटे चलकर दिखातीं हूँ। मेरी चाहत है वे मुझे अपने पास ही रहने दें। मैं उनके समय की साक्षी जो हूँ। मैं आपको अपना नाम बता दूँ-

मैं हूँ - "एच एम् टी नूतन"

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